भी राघ

हंग-फकलाधर

[ नल-दमयनती - कथानक के आधार पर |

रचपयिता

स्वासम्न्‌ स्वाराज्यणा स्लिखझ अख्किच्यक्त'

सं० २०४४ वि मल्य-५१ रुपये

प्रकाश क--

रचयिता स्वयं

सर्वाध्िव्यार स्ुरघप्तलिस बच्जस्यिसा के आअध्यीलय

प्रथम संस्करण--१,०००

सं०--२०४४ वि० सनू--१६८७ ई० मुद्रक-- णगौोरी क्ाँव्कच; स्काल्य दी गोल्डेन प्रिटर्स

सी० ३३/५८, डी-४, छित्तूपुर, सिगरा, वाराणसी

संस्तव

नल-दमयन्ती की कथा एक बडी प्राचीन और निज॑ंबरी (भारतीय लीजेंड्री) कहानी या आख्यान है। नलोपास्यान' महाभारत में बडे विस्तार से मिलता है। वहाँ नल के जीवन की विस्तृत गाथा गाई गई है जन्म से लेकर राज्य-प्राप्ति, दमयरती के साथ विवाह, द्यूत-क्रीड़ा में भाई से पराजय, राज्य-च्यू ति, वन- गमन, वन में दमयन्ती-त्याग, दमयन्ती-दुर्द शा, पुन दमयस्ली का राजगह पहुँचना, नल का सारथिकर्म एवं सारथि-विद्या सिसा कर द्त-विद्या में शिक्षित और लोकोत्तर नंपुण्य प्राप्त करना तथा अन्त में जुआ में भाई को हराकर स्वकीय राज्य की पुनः प्राप्ति

संस्कृत में नलोपाख्यान को लेकर अनेक काव्य-वाहइक लिखें गए। 'नलोदय काव्यम्‌', “नलचरितम, नलोद्वाहनाटकम्‌, चसिल- चम्पू' इत्यादि जहाँ तक मुझे ज्ञान और श्वत है, भारत की सभा भाषाओं में इस निजंघरी लोक गाथा को लेकर उपन्योस, साटक काव्य, कहानिया लिखी गई हैं। विदेशों तक उसका प्रचार तै।

श्री हपे कवि के नेपधीयचरितम! का स्थान नलकाट्- वाडः मय में अपूर्ब और अतुलनीय हे। श्री हर्०े एक ऐलिहासिक पुरुष थे। उन्होंने बढ गवब के साथ अपने विषय मे लिखा ।॥& कान्यकुब्जेब्वर से उन्हें ही राज-सभा मे पहुंचने पर 'ताम्बलंदय ओर बंठने के लिए प्रतिप्ठानुकुल आसन का सम्मान प्राप्त होता था। इसका कारण था उनका बंदुप्प और काव्य-प्रतिभा।

वे अनेक शास्त्र के और विशेषतः गइूराचार्य के अत वेदान्ल के महा पंडित थे। 'खण्डन-खण्ड-खाद्य' नामक बेदार्त के अति प्रोड ग्रन्थ के वे निर्माता थे। उन्होंने 'चिन्तामणि' मंत्र की सिद्धि प्राएन की थी। कहा जाता है कि रात्रि को वे काठ्य-रचना करते ओर प्रात: और भी उत्कृष्ट कल्पना उनके सम्मुख उपस्थित हो जाती थी। तब रात्रि के पद्म को वे नप्टकर दूसरी कविता लिखने

थे। यही क्रम निरंतर चतले देख उनको माला ने सोचा क्रि यही हालत रही तो शलीहाँ कभी कविता ने पूरी कर सेगा, वह नित्य नयी रचना करत। ओर उसे नाएझ करता शी रहे जायेगा कवि की बुद्धि से संबद्ध कल्यला को छोड का मन्द्रगतिक बनाने के लिए उसने ब्रामों मात और भरा का दूध पिलाना प्रारम्भ किया। कहा जाता है कि उक्त मोजन से बह मन ही जाती है।

इस जनश्रूति मे भले ही कोई तथ्य ने हो पर यह सत्य है कि श्री हु की रचना में कवि प्रौड़ोंक्तिपिद्ध कल्पना एवं तंदसुतारी व्यंग्यार्थ और नई -नई कल्पयनाओं का उज्ज्वल विलास है। इसी कारण 'पञ्चनली' का पूरा का परा प्रकरण पण्चार्थ बोधक (पाँच अर्थो' का बोध कराते वाला) शब्द - लेप (अभंग और सभंग दोनों) से परम चमत्कारिक है। अस्तु यहा 'नधधीय चरितम' के वियय में इतना ही कहना है कि सरकृत - काब्य-वा इमये में बह अतुलनीय है। वह 'बृहत्तवी' (किरालार्जनीयमु, 'शिश्ुपाल अधम्‌' ओर “नेषधोय चरितम्‌') का एक अमल्य, अवुल्प रत्त है। पर उसकी आधिकारिक कथा '“स्ण्ड काह्य जेंसी अति लघ है। नल- दमयन्ती के द्वारा जागरित पूर्व राग, पर्वेरागजन्थ विरह, स्वर्यवर

और है शृंगा री नायक-नायिका के संग्रोंग श्रगार का हो मुल्य वणन हू

वह अलंकृत शैली का अत्यन्त उत्कष्ट काब्य है। इ्लेप, अर्थान्तरन्यास, उद्प्रेक्षा, उपमा, काव्यलिग, विभावना आदि अलंकारों की विच्छित्ति और वक्रोक्ति से वक्त कांग्य सर क्त अल॑ंक्त शेली के उत्कृष्टतम काव्यों में है। 'पच्चनली', “चन्द्रोपालंभ', 'कामोपालंभ' अतुलनीय हैं। 'हुंतः की चेप्टा के प्रकरण में स्वभावोक्ति रमणीय है। वक्रोक्ति, लक्ष्योक्ति और व्यंग्पोक्ति--

पांडित्य-मंडित है। दर्शुन-पाण्डित्य अपूर्व है महाकाब्यीय आवश्यक विहार और प्रकृति-वर्णन भी सुन्दर है। इतना सब कुछ 'नंपधीय- चरितम्‌ में रहने पर भी श्री शम्मूनारायण सिह “अकिचन ने नलदमयल्ती की प्रेम-कथा को लेकर अपने इस प्रेम-प्रसंग-प्रधान डगार-काव्य का निर्माण किया। इसमें वे अत्यंत सफल भी है

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इस महाकाव्य को यदि हम चाहें तो अन्तिम सर्यो (निसर्ग-दर्ग न, श्रमण-दिवस और हुंंस-प्रदीप आदि) के आधार पर शान्तरमस- पर्यवसायी झ्ू गार-काव्य कह सकते है। इस महाकराव्य की प्रथम विशेषता है कि प्राचीन संस्क्ृत-काव्यों के समान स्गंबद्ध है, १रल्‍्तु अभिव्यक्तियाँ और प्रकृति-चित्रण, भावाभिव्यक्ति-बर्णन, लक्ष्याथ- व्यग्याथ-प्रयोग एवं अभिव्यजन शैली सर्वथा आधुनिक और बहुत अंगों में स्वच्छन्द्तावादी है। कथावस्तु यद्यपि बहुत सीमित है तथापि उसके घटक तत्वों में नवोनता है। प्रथम दो सर्भ कवि की नवीन कल्पना से मंडित हैं। “परिचय सर्ग! और 'स्वप्न-सरगं” नवीन होते हुए भी नवीन, रुचिर कल्पना से मुखरित हैं। नवीन अभिव्यक्ति- शॉली के विभिन्‍न सर्गो के वर्णन और रूपाकन को नीचे उद्घत पद्म में देखें--

(परिचय-सर्ग--नल सौन्दर्य वर्णन से सबद्ध)

“स्वगिक मेला तजकर परियाँ

घन - बीच छिपी - सी बसती थी नल का सोीन्‍्दर्य परखने को

चपला के रूप बिल्सती थी ॥१२॥ तन - मादकता की लट्टरों में-_-

पड़कर सन्बर छिप जाती थीं सौन्दर्यमयी लज्जावाली

अणमर ही नयन मिलाती थी ॥१२॥ किसके जीवन की गर्भ लिये

भाता समीर मसंतवाला ब्रन अवगाहन करने को भी भर

किसके जीवन की धारा बन १७४।॥ योवन की मादक होली पर

भावों के पल्तछी आते थे भव सरस पहेली का उवबल

संकेत मात्र दे जाने थ॑ ॥१५॥|

]!ऊषा-वणन |

“इयामल अम्बर में वह लाली

प्र्ची की प्रभा दिखाती थी सरसिज - विकास का समय सहज

मानस को अब समझाती थी ॥१५१६।॥। पिगल किरणों पर चढ़कर ज्यों

सुन्दरतता आती निषध - देश प्रावी के नयनों को भाये

इसलिये सजाती विविध वेश” ॥॥१७॥।

कवि का स्वष्त -सर्ग एक नई कल्पना भी है और मनो- वेज्ञानिक भी अनेक मनोवैज्ञानिको के मत से--विशेषतः “फ्रायड' के सिद्धान्तानुसार मानव के मन की कामप्रेरित भावनाये जो लोक- वर्जना के कारण चेतनमन की वाणी में मुखर अभिव्यक्ति नही पाती है, वे मन की अवचेतन कक्षा में पहुँचकर स्वप्न के झरोखों द्वारा कल्पना - नयनों से मनोभव के चित्रों का अंकन कर लेती है। यहाँ भी नल का किशोर (एडोलसेट) मन पिता की सभा में विदभे से भ्रमण कर आगत रसिक पथिकों के मुख से विदर्भ कुमारी दमयन्ती के अलोकिक सौन्दर्य के वर्णन में कामासक्त हो गया। निपथ- राजकुमारी की योवन - हाला से छलकते अनाघ्रात लावण्यसुरभित तारुण्य की मनोहारिणी-रूपनिशझ्लेरिणी में बह गया नल अपने आप को भूल गया। दमयन्ती के अनास्वादित मधुमय यौवन-रस के प्रवाह में डुबकी लगाने के लिए मतवाला हो गया पर लौकिक वर्जनाओ के कारण वाह्य जगत में आने के कारण वे काम की दमित वासनाएँ अवचेतन और अचेतन मन द्वारा स्वप्न में प्रकट हुईं। यायावर पथिकों के वर्णन से भी अत्यधिक यौवन के छलकते रूपलावण्यरस को लेकर स्वप्न के चषकों में नल पीता है--

“अधरों के पथ से झाँक रही मृदु - मधुर कपोलों की लाली आशा में भर ज्यों खोज रही मादक प्रिय चुम्बन की प्याली ॥६॥

कुछ सकुच नयन उनमीलित - से,

दो मधुप त्याग ज्यों चंचलता शशिगत सरोज में विलसित हों

बेसुधष पीकर मधुमादकता ॥५॥ अधखुली सजीली बाहों में

मधुसर की लहरित झलक रही गति में उमड़ी नव राग लिए

आलिंगन की ज्यों ललक रही ॥6॥।

लज्जा की भर मुस्कान मधुर नल के समीप वह खड़ी हुई नत-शिर मुख दक्षिण भुजा-ओर मोहक उलझन में पड़ी हुई”॥११॥ और जब पीछे मुड़कर सुमनों की माला लेने गई-- 'पढ़कर ज्यों मन-मोहक टोना--तब “देखा नल ने मुड़कर चलते वह काम - कलारस की बाला ज्यों अंग -अंग से छुलक रहा योवन की मदिरा का प्याला॥१३॥ उरू युग लगते थे वसन - बीच पग - चालन में मंथर गति से दो लहरें काम - सरोवर में करती क्रीड़ा उठ चल रति से ।१४। जघनोर भमरित कल कसमस में ज्यों काम - लहरियाँ सेल रह वक्षःस्थल से कटि की लघुता लख सहज मिलाती मल रही ॥१६॥

लज्जा - सुन्दरता की क्रीडा-- चलने फिर लगी वहाँ मिलकर ब्रीड़ायुत मंद मुस्कान लिए वह प्रेम - भाव में रही सिहर ॥२२॥ मोहकता का जादू पढ़ती ज्यों देव - लोक की परी चली उसकी भोली नत चितवन से-- ज्यों सिद्धि लता की कली खिली” ॥२३॥ उस अचेतन मन ने नल के आत्मसौन्दर्य को भी मोहक बना दिया। आत्मसौन्दय की यह स्वकलना भी मनोवेज्ञानिक पक्ष रखती है-- “अपनी सुन्दता भी नल को सपने में मोहक लगी आज सौन्दर्य - कला ज्यों रूप धार मोहक भावों में रही राज” ॥२७॥| और इसी स्वप्त - भंग के पशचात मन की प्रलापावस्था में आकाश- वाणी से नल को उस मनचाही सुन्दरी के मिलत का वरदान भी मिल गया प्रथम “परिचय सर्ग” में दमयन्‍्ती के जो मादक यौवन ओर सोन्दय्य का वर्णन है, उसी का परिणाम स्वप्न सर्ग' है इसके बाद काव्य-कथा के प्रवाह में “उपबन सर्ग' आता है जो अत्यन्त विज्ञाल है--१६५ पद्यों का और इसमें प्राकृतिक सुपमा का लालित्यपूर्ण आधुनिक शैली में अत्यन्त मनोरम रूपांकन हुआ है। उपवन, कुसुम आदि के वर्णन भी सशक्त, सौन्दर्य बोधक, मुखरिति ओर अभिव्यक्ति-लालित्य से ओत-प्रोत है। तत्पश्चात हुंस आदि की बातें बाती हैं। _ चतुर्थ 'हंस - गमन सर्ग--हंस की दूत -यात्रा है। पंचम में दमयन्ती - हंस - संवाद है जिसके द्वारा नल का श्रवणज परवेराग आलंबन - आश्रयमूलक पूव॑राग में परिणत हो जाता है। सर्वत्र नायक - नायिका का सौन्दय॑-दप्रत्यक्षतः परोक्षतः वरणित है। यह वणन अत्यंत रमणीय है

बाद के “नल-चिन्तन' और “'दमयन्ती-चिन्तन दो सर्ग हैं। इन सर्गो' का रस पाठक स्वयं पढ़ कर समझ सकते है। अनुराग, प्रेम, पूर्वरागज बवियोग की दशाओं के वर्शन में प्रायः सभी आवश्यक अवयव इन सर्मों में पिरो दिये गए है। सभी हृदयहारी एवं सरस है

स्वयवर साज सर्ग” अष्टम प्रकरण तथा 'स्वयवर सर्ग! नवम प्रकरण है दोनों ही बहुत बडे - बडा तथा हृदयहारी वर्णनों से ओत - प्रोत हैं। रूप - चित्रों में लावग्य-मइन की कला कवि की अपने ढंग की निराली है। विभिन्‍त परिस्थितियों मे भाव-रूपो को बदलने और तदबुसारों रसों को भावपूर्ण ढग से रखने की कला कवि की सराहनीय है। बडे प्रकरण में भी विभिन्‍न घटना - स्थतरों को पहचान कर कवि ने अपनी स्वाभाविक्र भाव-तल्लीनता का परिचय दिया है जो पाठक को सहज रूप से आकर्षित कर लेती है। स्वयंवरार्थ मनोहर और उचित सजावट की विशेषता से 'स्वयवर - साज सर्ग! 'स्वयंवर पक्षग से अलग कर दिया गया है। 'स्वयंवर सर्ग' स्वयं अपने मनो रम भाव - चित्रों के कारण चित्ता- कर्षक है। इन दोनों सर्गों को भावपूर्वक पढ़ने से ही भावों की गहराई तथा सरसता का पता चलता है

आगे 'शान्ति-विलास' सर्ग है। यह सर्ग विशेषरूप से कुछ दृष्टियों से पठनीय है। इसमें भी सरस प्रकृति-वर्गन है। मिलन की मादक कल्पना भी वहाँ अत्यत सहज पर अत्यत उत्कंठामयी एवं मूच्छेनाका री है। श्रीहर्ष के 'नंबधीय चरितम' में प्रथम रति-मिलन का वर्णन घोर श्रंगारी है। आज के युग मे उसे अइ्नील भी कहा जा सकता है-पर जिस रीति काल में बड-बड़े महाकवियों ने सभोग-छ्वू गार के वर्णन में “विपरीत रति' के नग्न वर्णन को अश्लील' नहीं माना--उस परम्परा के पूर्वज श्रीहर्ष. का प्रथम समागम-वर्गत अश्लील होकर यथार्थ पर आधारित उद्याम श्वु गारी संभोग का शब्द-चित्रांकन है। उसको मैं उद्युत कर रहा हूँ--पर हिन्दी अशुवाद लिखने में युग - बोध के कारण लेखनी मूक रह गई। पाठक स्वयं पद्य का हिन्दी अनुवाद "नेषधीय चरितम' के हिन्दी अनुवादसहित ग्रन्थ से देख ले--

“अस्तिवाम्यभयमस्ति कौतु्क॑ सास्ति धर्मजलमस्ति वेपथ॒ अस्तिभीति रतमस्ति वाज्डितं प्रापदास्ति सुखमस्ति मेथुनम्‌' ने. सर्ग १८, इलोक ६२ पर यहाँ इस सर्ग में तथा आगे के दो सर्गो (सान्ध्य विहार और प्रात बिहार) में ऐसा कुछ नही है। सान्ब्य विहार और प्रात विह्ार-दोनों सर्गो' का नाम 'निसर्ग - दर्शन” सर्ग भी है। दमयन्ती और नल को कायिक भोगों का बहुत अवसर और बहुत आनन्द मिला--पर वे जान गए कि उनमें स्थायित्व नही है, क्षणिकता है और अन्त में शेथिल्य और ऊब भी है--

“नल दमयन्ती को भोगों की माया अवसर पर खूब मिली पर अन्त निरन्तर भोग - भरी कायिक गति पर कटु ऊब मिली ॥५॥ दोनों रहस्य यह समझ सके आपस में भोग विलासों से कायिक भोगों में तृष्ति कहाँ जो मिल ले सुखमय इवासों से” ॥६॥। वे जान गए कि काम - भोग की लालसा अत्षणीय है। तृप्तिदायी नही है। ठीक ही कहा है-- जातु कामः कामानामुपभोगेन शजझ्ाम्यति' दोनों के चित्त में पावन भावों का उदय हो गया फलत:-- “शुति प्रेममरे साधन पथ पर नल दमयन्ती के भाव मिले, अपनी दान - रेखाओं में चित्रित निसगग - छवि - भाव भले” १२॥

दोनों की जीवन-कला प्रकृति-सुषमा के साथ एकीमत हो विलसने लगी--

हे देवि |! जीवन की कला सचमुच प्रकृति में विलसती, श्ृंगाीर की मादक छूुटा, अनुराग-धन से बरसती मुस्कान चपला-भाव में, नव रूप पर जो निरखती, वह कौन जिसको लालिमा, श्वूगार पाकर परखती” ॥२३॥

इसी प्रकार प्रकृति के साथ रहस्यमयी प्रेम-भावना में परोक्षतः रहस्यवाद को भी झलक मिल जाती है

आगे सन्ध्यासुन्दरी की सुषमा का स्वच्छुन्दतावादी शैली में कवि ने अच्छा वर्णन करते हुए दम्पती के भाव-जगत से उसे मिला दिया है!

अम्बर - परिधान पहन इ्यामल फहरा मादक छवि क्षितिज - छोर ज्यों सन्ध्या - श्री अञ्चल पसार उनको पुकारती विभा - ओर' ॥२७॥

प्रात विहार सर्गी 'सान्ध्य विहार से का अनुगामी भी है-- दोनो प्रकृति-सौन्दर्य देखकर मद-विह्लुल हो जाते है। दमयन्ती कहती है-- “बोली दमयन्ती,--'नाथ ! आज, यह प्रात कला की उजियाली मधुमयी नवागत लाली से, क्‍या भर देगी रस की प्याली ? क्या उसी नशे में चूर आज, प्राची से गठबन्धन होगा? अच्छा होगा तब मंत्र बोल, मेरा भी छुन वन्दन होगा। छा गई मधुर मुस्कान - विभा, मुखमंडल के व्यापारों में। भर गए युगल आलिगन में, बज उठी रागिनी तारों में ।”

इस प्रकार इन दोनों सर्गो (सान्ध्य विहार और प्रात विहार) की कथा में चिन्तन, विहार, सहज भोग और प्रकृति के उद्दीपन विभाव का सहज स्फुरण भी है और विचार-प्रवाह भी है।

इस ग्रन्थ का निसर्ग-दर्शन-सर्ग (प्रात: विहार) सचमुच ही निसगं की, प्राकृतिक सौन्दर्य की मनोरम झाँकी प्रस्तुत करता है। कवि के भावुक हृदय ने प्रकृति के रमणीय चित्रों को छायावादी अभिव्यक्ति-शैली में भी चित्रित किया है, जिम्ममें लाक्षणिक वक्रता,

आलंकारिक रमणीयता, अयंगत ललित व्यंग्याथें तथा अभि- व्यजनीय लालित्य है। कुछ उदाहरण उपयुक्त कथन को स्वतः पुष्टि करेगे। सस्मित आनन की किरणों से-- मधुता सुमनों की खिलती -सी चल दृष्टिपात के भावों से मधुपों को प्रियता मिलती - सी ॥५॥ रंगीन विभा में खिलती नव--कलिकाओं का आभार मात दम्पति - यौवन-छवि-लहरो से, मिलती बयार मधु प्यार जान ऊषा के सौन्दर्य - बोध को मानवीकरण की अभिव्यक्ति-प्र क्रिया द्वारा कवि ने अत्यंत मनोरम बना दिया है-- आनन्दमयी उस लाली में, वह विभा उमडती किस स्वर में ? अन्तर - रेखायें चल पाती, होकर विभोर किसके तल में ?॥१५॥ अम्बर की बाहों में भूली किसकी सुध में नित जाती, आकर प्रभात की विभा बॉट सन्‍्तोष कहाँ. वापस पाती १।१६॥ प्रिय प्रममभरी तब बाहों में, मैं भी प्रभात छवि पारऊँगी अपने जीवन का बेभव दे, सनन्‍्तोष-लाभ उर लाऊँगी। १७॥

आगे की कुछ पंक्तियाँ इतनी काव्यमयी हैं कि उनके उद्धरण का मोह मैं रोक नहीं पा रहा हुँ-- “रंगीन विभा में हँसती वह, निज सतत मोद में माती-सी। ऊषा सुराग भर प्रकट हुई, प्रियतम-हित लिए आरती-सी ॥१६॥ 'कल पक्षी पंक्ति बाँध सुन्दर माला की भाँति उड़े चलते तर - राजि छटठा के ऊपर से अम्बर छवि -ग्रीवा में लसते ॥१९। प्यारी छाया को उर समेट, तरुवर सोए जो जगत भूल कलरव कर पक्षों जगा रहे, समझा लज्जा के पाठ मूल

यह पूरा का पूरा सर्ग कवि के नेसर्भिक भावुक भाव-बोध का साक्षी है। कहो-कही कवि छायावादी ढंग से जिज्ञासा भी कर बेठता है-- 'प्रियतम, यह भ्रम होता होगा, वह ऊषा में लाली क्या है ? भरती पराग कलिकाओं में, वह यौवन-मतवाली क्या है ? ॥२७॥

इस सर्ग के सरस भाव-बोध के मधु का पान सर्ग को पढ़कर ही पाठक कर सकते हैं

“भ्रमण-दिवस सर्ग” भी इसी प्रकार भ्रमणा्थे लालित्यपूर्ण ,रैंथ पर जाते हुए नल-दमयन्ती की यात्रा का वर्णन करने में कवि बार- बार भाव॒क हो उठा है। नागरिक जनों की भावना, नगर की सुख-समृद्धि, सौन्दय-कला सबका दर्शन हुआ | आगे चलकर महाराज नल के हृदय को राग से विराग की ओर उन्पुव करने के लिए कवि ने नदी के कगार पर श्मशान घाट की ओर रथ को भोड़ दिया नल ने शारीरिक और मासल सुखभोगी कलेवर की करुणा- जनक और अवशध्यं भावी गति तथा अन्त देखकर विराग से भर गया वहाँ मृतक कलेवरों का यथातथ्य वर्णन यथोचित शली में मिलता है, जो पठनीय ही नहीं बल्कि सवेदनशीलता के साथ विचारणीय भी है। राजा-रानी दोनों के भाव वहाँ बदल जाते है--

दमयन्ती भय-श्रम-घृणा-भरी, वह हृदय देखकर काँप उठी

गत-भोग-दुश्य क्षण सोच भभर, भय की वह कटदुता नाप उठी

बेंसी ही छाया नृप-उर में, छा गई सोच वेभव विलास

परिणाम परख नव्वरता का, क्षणभगुर जीवन से निराश'।

वहाँ से आगे बढ़ने पर प्रकृति के मनोरम दृश्यों में उन्हें शान्ति मिलती है, जहाँ--

'संगीत-भाव देवी लेकर, मन-मुदित विहग तरु डाली पर राजा के स्वागत-गान हेतु, गा रहे भाव प्रिय खाली भर वहाँ से आगे बढ़ने पर जादूगर के कुछ विलक्षण तमाशे मिलते हैं यहाँ के अद्भुत दृश्य अनेक काव्य-रसों की पुष्टि करते हुए पाये जाते हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने महाकाव्यीय गरिमा के अनुसार कुछ अवशिष्ट रसों की पुष्टि के लिए ही यह स्थल

सामने रखा है।

यहाँ से स्व-समाज-सहित राजा का रथ प्रकृति के बीच खेत में काम करते हुए किसानों के समक्ष पहुँचता है। एक प्रजा-पालक तथा जन-प्रिय राजा को प्रजा के बीच तक पहुंचना उसका कत्तंव्य भी होता है। यहाँ किसानों की तन्‍्मयता और उनके उत्साह-भाव से कुछ प्रगतिवादी दृश्य-दयोतन भी हो जाता है। वहाँ से रथ बीहड जंगल की ओर मुड़ जाता है। वहाँ राजा नल ने तो सिंह का बध किया, किन्तु ऋद्ध सिहनी का बध यदिं उस समय दमयन्ती करती तो वह राजा को दबोच बेठती दमयन्ती भी शील-सौन्दये- ' सम्पन्न एक वीरांगना के रूप में सामने आती है

वहाँ से “विगतपुरी' की यात्रा कवि की एक बहुत ही विलक्षण कल्पना है। यह एक अति प्राचीन नगर जो ध्वंसावशेष मात्र पड़ा हुआ दिखाया गया है। यहाँ खंडहरों के भिन्‍न-भिन्‍न अगों का वर्णन कवि ने इतनी भावुकता के साथ किया है, जिसे पढ़कर सहुृदय पाठक भाव-विभोर हो सकते हैं। उदाह रण-स्वरूप आगे कुछ पंक्तियों को देखिये--

कवि सरोवर की दु्दशा देखकर उसकी कोमल और उदास लहरों का वर्णन करता है।

मुदु लहरें टूट उरोजों से--

पंकज - कलिकाओं से मिलती उमड़े यौवन के भावों में--

कुछ मदिर कथा कहकर हिलतीं अब काई के भीतर से ही

लहरें हिल करुण कथा कहतीं हा! तिरते कमठों से ठकरा

सिसकी भर मौन व्यथा सहतीं।

इसी प्रकार के तमाम वर्णन भरे पड़े हैं। आगे एक स्थान में आये चित्रों के देखिये--

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'मणि-दीप-कला में रस-विभोर, छवि झमक श्वरोखों से चलती चन्द्रिका-कलित घनश्याम-पास, चपला का आलिगन करती तम-भरी अँधेरी रात वही, जुगनू के दीपक पर रोती। लबु चल प्रकाश से आशा तज, दुखभरी निराशा में सोती शशि-कला-प्रभावित नयथनों से, प्रमी चकोर तब सुख पाता घन-क श-राशि, दशिमुख-छवि फ्र, न्योछावर तन मन हो जाता अब वहाँ खूसटों के स्वर में, चमगादड़ का सहभाव रहा चपला जेसे अब भय भरती, शशि करता ज्यों उपहास महा

इस ध्वंसावशेषित नगर की कल्पना तथा भाव कितने मामिक हैं, पाठक पढ़कर ही समझ सकते हैं। इस स्थल की पक्तियाँ प्राय: सभी उद्धरण-योग्य है, किन्तु बहुत कहकर एक और उदाहरण दे रहा हू देखिये--

हा ! जहाँ सजावट मोहित हो, कोमल आलिगन से मिलती

जग की सुख-सीमा सिमट मधुर, क्षण-क्षण मिलने को दम भरती

अब नकुल-नाग के युद्ध-बीच, भय से तृण-जाली काँप रही

झटकों से आहत होकर नित, चितित उदास-सी हाँफ रही' इस सर्ग में अनेक रोचक और उद्वेजक उभयविध चित्र देखने ही लायक हैं। इसमें आगे दाशनिकता की ओर उन्म्रुखीकरण है--

संसार इसी का नाम जहाँ, संसरणशीलता नाच रही रच-रचकर फिर ध्वंसित कर, हा ! निज करुण कहानी बॉच रही'

यह पुरा का पूरा सम पंचकलात्मक हंस-प्रदीप/ की आधारशिला या पूर्वपीठिका है, जिसके जिज्ञासा-स्वरूप आधार पर गृढ़ से गृढ़ जीवन-रहस्यों का स्पष्टोकरण हो सका है। अधिकारी जिज्ञासु के समक्ष ही गूढ़ तत्त्वों का निरूपण होना चाहिये। यह 'भश्रमण- दिवस सर्गी! राज-सुख-भोगी दम्पति को अधिकारी जिज्ञासु बना देता है। धीरे-धीरे जीवन के रंगीन भौगिक दृश्य समाप्त हो गये ओर नल-दमयन्ती दोनों विषयों से निराश हो चले--

हंस-प्रदीप सर्ग का प्रारम्भ ही कवि पूर्वसंकेतित आधा र-शिला से प्रारम्भ करता है--

[ १६

नल-दमयन्ती का नव यौवन, रुकने वाला फ़िर कहाँ भला, जीवन के अम्बर से होकर, आशा-पथ से उस पार चला'। जीवन-रस का आधार चला गया, अब रस की प्याली किससे मॉग--

थौवन आकर फिर चला गया, तन-भोगों की लेकर लाली

आशा कर मलती खड़ी रही, किससे माँगे रस की प्याली' ?

नल और दमयन्ती दोनों प्रातःकाल उपवन में टहल रहे थे। पतझड का समय था। दोनों जीवन के पतझड में बाहरी परत्चइ् का राग मिला ही रहे ये, तब तक हयराज अपने दल के साथ आकाश- ग॑ से उपवन में पहुँचा। यथोचित सत्कार के पश्चात्‌ पत्रा- सनों पर हंसों की सभा बेठी | रानी के संक्रेतानुगार और स्वक्ीय अन्तरोद्भूत शंकाओं के आधार पर राजा ने प्रश्न रखता प्रारम्भ किया। यही समाधान-स्वरूप हंसराज का प्रवचन पाँच कलाओ में विभक्त है हँस का एक अथ नोर-क्षीर-विवेकी, संसार के कर्दम-कलुष से मायाहीन तत्त्वदर्शी भी होता है। विरक्त, ज्ञानी, त्वागी और ममताजथी महापुरुषों को इसी कारण परम हंस कहा जाता है। इसी कारण इस पंच कलात्मक हंस-प्रदीप' में ज्ञान, दाशेंनिक चिन्तन, संसार की असारता और जीवन के चरम लट्ष्य का विवरण दिया गया है। यहाँ कवि के व्यक्तिगत चिन्तन तथा उसकी विवेक- दृष्टि का पता चलता है। कमं-ज्ञान तथा उपासना आदि सभी ध्यात्मिक मार्गों का दिग्दर्शन समुचित रूप में मिलता है। फिर भी चरम गन्तव्य सबका एक ही है। गन्तव्य सभी का एक परम उस तक चाहे जसे हो लें। उस परम ऐक्य को धारा में-- समुचित चाहे जसे बह ले॥२३॥ सम्पूर्ण हंस-प्रदीप अपने में अन॒ठा है, जिसमें जीवन की अमात्मक शंकाओं का समाधान मिल जाता है। यह पंच कला- प्मक हसराज का प्रवचन सचमुच ही हंस का प्रवचन है। इसकी

महानता तो जीवन-साधना करने वाले अधिकारी साधक ही समझ सकते हैं। भव-चक्र में अश्रमित संकटापनन्‍्त जोवन के लिए इसमें पथ और पाथेय दोनों प्राप्त हो जाते है। इसकी पंक्तियाँ तो प्रायः उद्धरण-योग्य ही हैं, परन्तु एक उदाहरण देखिये और उसकी गहराई पर विचार कीजिए | कवि ने दिखाया है कि मानव अपने ही मिथ्याहंकार-तम से ग्रसित अन्त करण को इतना मलिन बना डाला है कि वह अपने ही जीवन-सर्वस्व परभावनन्‍द-स्व॒रूप परमात्मा का ही पता नहीं लगा पाता-- “चलने से ही प्रिय. छिप जाता मुड़ अहंकार की गलियों में। रुकने से ही वह मिल जाता निर्मल अन्तर की थलियों मे” ठीक ही है, प्रमात्म-मिलन के लिए अन्तःकरण की निर्मलता पर- मावश्यक है। अहंकार के पोषण में मनुष्य कल्मष-रचना करता जाता है और यह भी सत्य है कि अहकार की छत्र-छाया में चाहे जो भी सिद्धि मिले, परन्तु अच्त में अपनी नही सिद्ध होती-- “निज अहंकार के पोषण मे जीवन करता कल्मष - रचना। चाहे जेंसी भी सिद्धि मिले उसमें कही कुछ भी अपना” ॥५९॥ कवि का आनन्दवादी विचार अच्त में घूम-फिशए कर सभी मार्गों से शाश्वत आनन्द-स्वरूपता तक पहुँचता है। अपने अन्दर उस आनन्द-कंद परम प्रिय को परख लेने पर बाहर भी उद्सी की रसमयी झॉाँकी मिलती है। बाहर भी वह रस - भाव-रूप नाना रंगो में बरस रहा। पीने वाला जो परख सका उसका ही जीवन सरस रहा ॥।' साथ ही साथ यह भी सत्य है कि ससार की विषय-वासना उसकी प्राप्ति में बाधक होती है। उस दिव्य झलक के पदरचातु वासना बचती भी नहीं

“संसार - वासना गल जाती आनन्दमयी प्रिय मधुता में। जीवन का सबकुछ मिल जाता सर्वस्व त्याग की लघुता में॥॥ सबसे बड़ी बात तो यह है कि हंसराज के उपदेश में बाह्य रूप से संसार-त्याग की बात नहीं कही गई है। फरमार्थ के आगे व्यवहार को उड़ा नहीं दिया गया है, बल्कि व्यवहार-साधना के बीच से ही परमार्थ-साधना का संकेत है। देखिये लोक-सेवा का कितना सुन्दर संकेत है-- ध्यर-हित में निज हित पहाचानें घन - सी अपनी जीवन-गति कर धरती पर सबकी प्यास बुझा प्रिय से मिल लें सरिता के स्वर ।।५-१४८ सेवा में ही वरदान छिपा-- प्रभु का, जिससे शुचिता मिलती सेवा-पथ में अनुकूल बनी-- जग - लीला निज स्वागत करती” ॥५-१४९

व्यवहार-क्षेत्र में भी उद्योग -समर्थंक तथा मानवता-प्रेमी कवि ने करतव्य-परायणता का संकेत किया है।

कर्तव्य - काल जो अपना है उसमें कही आलस्य करे जग - भोग - बीच ही योंग परख मानवता का प्रिय भाव भरे”॥५ा। पंचकलाओं से विभूषित इस “हंस-प्रदीप सर्ग' में कवि काव्यात्मक शास्त्र के अणता-रूप में सामने आया है। इसमें भारतीय दर्शन- बोध तथा जीवन की गहन अनुभूतियाँ सराहनीय हैं। इस अश को कवि अलग काव्य-शास्त्र के रूप में भी सँजोया है, जो भविष्य में जीवन-साधकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

सम्पूर्ण “हंस-कलाधर' का अध्ययन करने के पश्चात्‌ मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि युगानुसार हिन्दी-साहित्य में एक आवश्यक महा- काव्य का आगमन हुआ काव्य-रस तथा भावुकता की दृष्टि से तो यह अतिशय आकर्षक है ही, साथ ही साथ व्यावहारिक तथा पारमाथिक हृष्टिकोणों से भी महत््वशाली है, इसलिये यह महा- काव्य हिन्दी-समाज के लिए अभिनन्दनीय और स्वागताहें है एतदथे मै कवि को बधाई देता हुँ और उसकी भावी प्रगति के लिए मंगल कामना करता हूं

वाराणसी-- करुणापति त्रिपाठी गुरु पु णमा--सं० २०४४ बि० भूतपुर्व--कुल पति सं० विश्वविद्यालय, वाराणसी अध्यक्ष--उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी, लखनऊ

'इंडरााामणऊ नरक चेक कनट(+न०८नाउरककक,. 33४०8 भाराापा,. ५+०-+४०-मक-+-न्मस,

मानव-जीवन की यात्रा प्राणि-जगत में सर्वोत्तम कही जाती है। फिर भी इसमें दो बातों पर ध्यान देना अत्यावश्यक है। पहली बात तो यह कि जीवन-पथ में उत्तम से उत्तम सहारा होना चाहिये, जिससे शांति, सन्‍्तोष और आनन्द की प्राप्ति होती रहे ओर दूसरी बात यह कि जीवन को गति उत्तम गन्तव्य की ओर होनी चाहिये | जीवन के लिये बहुत से उत्तम तथा श्रेयस्कर गन्तव्य हो सकते हैं, फ्रन्तु परमात्म-मिलन सर्वोत्तम गन्तव्य माना जाता है। परमात्म-मिलन ही परम प्रुरुषार्थ है। पथ के उत्तमोत्तम सहायक संबलों में काव्य का स्थान सवपिरि है। काव्य के सहारे जीवन-पथ पर चलने वाला व्यक्ति शीघ्र ही उस दिव्यता को प्राप्त कर लेता है, जिससे परमपुरुषार्थ की सिद्धि होती है। इसी लिये काव्य की महिमा लौकिक तथा पारलोकिक दोनों दृष्टिकोणों से सराहनीय होती है

भावाभिव्यंजन जो रसानुभूति करा सके, वही काव्य का स्वरूप धारण कर सकता है। उस भावाभिव्यंजना से होकर विशुद्ध भाव- दशा या रस-दशा तक पहुँचने के लिये व्यक्ति को राग-ह्वष तथा स्व-पर के ऊपर उठना पड़ता है। राग-द्वेष का ऐनक लगाकर देखने से मनुष्य संसार की सुख-दुःखात्मक अवस्था को ही प्राप्त होता है। आनन्द अपने शुद्ध रूप में ऐसे दन्द्रों के ऊपर होता है। विशुद्ध आनन्द या परमानन्द तक होने के पहले दन्द्वात्मक जागतिक लीला को भी हृदय की मुक्तावस्था से देखने पर द्रष्टा की भूमिका बदल जाती है। जब संसार की परमात्म-रचित लीला रस-सिद्धि के साथ परमानन्द-संकेतिका के रूप में दिखायी देने लगे तो मुक्त हृदय की वही भूमिका वास्तविक मधुमती भूमिका होती है

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काव्य की आत्मा का नाम रस है। रसोद्भूत आनन्द ही काव्या- नन्‍द कहलाता है। काव्यानन्द और ब्रह्मानन्द में बुनियादी भेद नहीं होता ब्रह्मानन्द निरपेक्ष और स्वयं में पर्ण होता है, जिसका अनुभव योगी जागतिक प्रपंचों के ऊपर उठकर समाधि में करता है। घही आनन्द जब हृदय के रसात्मक भावों से परावत्तित होकर आता है, तो काव्यानन्द कहा जाता है। इसी लिये काव्यानन्द को ब्रह्मानन्द-सहो- दर कहा गया है। भावों की धारा जब राग-ह्वष की ऊबड़-खाबड़ तथा कंकरीली-पथरीली भूमिका पार करके हृदय की समतल भूमि प्र रस-रूप में प्रवाहित होती है तो वही काव्यानन्द के दर्शन कराती है और वही धारा आगे चलकर ममताभिमान के युगल कगारों को त्याग परमानन्द के जीवन-समुद्र में मिल जाती है।

मानव-हृदय में निवर्सित स्थायी भाव राग-द्वेष के साथ चलने पर बन्धनकारी होते है, जिससे वह सुख-दुःख तथा मोह के ऊपर नहीं उठ पाता वे ही भाव जब स्व-पर के ऊपर उठकर हृदय की मुक्तावस्था में अपने सजातीय रसों से सिक्त हो जाते हैं तो उनसे रस-दशा या आनन्द-दक्षा की प्राप्ति होती है। काव्य-रस की पुनीत धारा में श्रद्धा के साथ गोता लगाने पर दानवता भी मानवता में बदल जाती है और मानवता परम दिव्यता को प्राप्त होती है, जिसके सम्मुख परमानन्द या ब्रह्मानन्द का द्वार सतत्‌ निरन्तर खुला ही रहता है। इसीलिये काव्य एक ओर भोगी को भोगों से ऊपर उठाकर योगी बनने में सहायक होता है और दूसरी ओर योगी को भी संसार में रहने का सर्वोत्तम सहारा बन जाता है।

जगत की परिवर्त्तनशील लीला से ही भावों का ग्रहण होता है। स्थिरता में लीला की कोई कल्पना नही की जा सकती | संसार परमात्मा की लीला है। क्षण-क्षण परिवत्तंनशीलता ही इस लीला की गति है। मानव-हृदय इस लीला से भाव ग्रहण करता है, परन्तु दोष यह है कि वह लीला को लीला नहीं समझता उसे वह सत्य समझकर उसमें अपना राग-द्वेष मिलाकर सुखी तथा दुःखी होता रहता है। लीला तो सुख-दुःखात्मक होती ही है, परन्तु उसकी हर गति-विधि से रस ग्रहण करने की भूमिका ही कवि की

भूमिका होती है। इस लीला-प्रदर्शन में व्यक्तिगत राग-इंष के ऊपर उठकर रसानन्द की दशा में रमने वाला भावुक व्यक्ति ही अधिकारी कवि होता है। मंच पर अभिनेता विभिन्‍न परिवर्तनि- शील मुद्राओं से अपना अभिनय दिखाता है। दर्शक के हृदय को रस-भाव ग्रहण कराने के लिये ही उसका प्रयास चलता है। यदि कोई दर्शक राग-द्रषवश किसी मुद्रा विशेष को पकड़ना चाहे, तो वह अपने भ्रामक मोह के कारण दुःख और अशान्ति को ही प्राप्त होगा यही कारण है कि विषय-वश्यता मानव के लिये अभिशाप बन जाती है

बाहर की चलती लीला में व्यक्ति को आकर्षित करने वाला लीलाधर सवंदा विद्यमान रहता है। उस लीलाधर को जागतिक विषयों में अनुपस्थित समझकर ही तो व्यक्ति अपने को वास्तविक कर्त्ता तथा भोक्ता मानकर दुःखमय जीवन व्यतीत करता है उस परम प्रिय की व्यापकता यदि आत्मानुभूति में उतर आये तो अशान्ति और असन्तोष का कोई कारण नहीं रह जाता। जेंसे कोई नर्त्तक अपने नर्त्तन की नाना आंगिक मुद्राओं में विद्यमान रहता है, वेसे ही लीलाविहारी परमात्मा संसार की हर लीला में उपस्थित है। व्यक्ति अपनी अहंतावश बाहर चलती हुई मनोहर लीला का रसास्वादन करके अपनी भयंकर इच्छाओं का मोहमय दुःखद जाल बुनकर अपने ही को फॉसता जाता है। मोहवश नाना प्रकार के दु:खों और भ्रान्तियों का चिन्तन करता हुआ मानव मृत्यु का जीवन जीता है। मानव-शरीर पाकर व्यक्ति को आनन्द का जीवन जीना है। प्रारब्ध को प्रबल जानते हुए भी उसके हर प्रकट फल से अनुकूल रस खीच लेने वाला व्यक्ति ही काव्य की दिव्य भूमिका का पारखी होता है। यदि महल है तो उसका आनन्द ले और यदि महल नहीं है तो अपनी फूस की झोपड़ी में उतना ही आनन्द ले। यदि वह भी नही है तो वृक्ष के नीचे शीतल मन्द तथा सुगन्धित हवा का आनन्द लेते हुए डाली पर बैठे गगन-विहारी पक्षियों के कलगान में अपने हृदय की तान मिलाये, वही काव्य

की दिव्य भूमिका का पारखी हो सकता है। वास्तविक आनन्द

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तो धनौरवयें तथा वेभव की गोदी में नहीं मिलता वह तो प्रकृति की रसमयी गोदी में मिला करता है। अयोध्या के महलो से निकल कर राम यदि जंगल में भी महल बनवाकर (जंसा कि वे करने में सक्षम भी थे) मोटे मखमली गददे पर विश्राम करते तो वे अना- गारिक तुलसी दास की काव्य-भूमिका से बहुत दूर होते। जंगल में नदियों और पहाड़ों के बीच भ्रमण करने पर उनका आनन्द परि- पृर्णछप से बना ही रहता है। कुश और साथरी पर सोकर राम ने सन्‍्तोष की सहज भूमिका निभायी सीता ज॑ंसी जीवन-संगिनी के हर लिये जाने पर भी राम का जो धीरज सामने आता है, वह धेय्यंवानो के लिये आदर्श है। ऐसी विषम परिस्थिति में भी अपने अदम्य उत्साह से समुद्र में पुल बॉंघवाकर तत्पदचात्‌ राक्षसों की नगरी का भली-भॉति संहार करके साध्वी सीता को पुनः वापस ले आने वाला साहस धन्य है। सीता के उद्धार के साथ धरती का भी उद्धार देखकर आज भी पाठक साहस और उत्साह से भर जाते हैं। इस प्रकार जीवन की हर परिस्थिति में आनन्द, मस्ती धीरज और उत्साह बना रहे, वही है जीवन जीने की भूमिका काव्यगत सभी सुख-दुःखात्मक घटना-क्रमों में पाठक जो रस ग्रहण करता है, वही भगवान की रची हुई सांसारिक लीला के अन्दर भी रसास्वादन का अभ्यास है। हृदय अपनी निर्मेल अवस्था पर राग-ह्वष के ऊपर उठ जाता है, तब वह व्यावहारिक लीला में भी वेसे ही रस प्राप्त करता है, जिस प्रकार काव्यगत चित्रित लीला में यही हृदय की मुक्तावस्था है हृदय की यह दिव्यावस्था जब काव्यजगत से होकर व्यवहार-जगत में भी अपनी भूमिका निभा सके तो वही भाव-साधना की सफलता भी है। गोस्वामी तुलसी दास ने यह दिव्य भूमिका राम के जीवन में उतारी है। पाठक अनेक सुख-दुःखात्मक घटना-क्रमों की भावमयी लीला देखकर जब रामचरित के दिव्य. मानस में गोता लगा लेता है तो वह भी उस निर्मेलता को प्राप्त होने लगता है, जिससे सत्याधारित आनन्द की झलक मिल पाती है। ऐसे निर्मेल हृदय की यात्रा सत्कर्म, परोप- कार तथा लोक-कल्याण के दिव्य मार्गो' से सम्पन्न होती है, वहाँ स्वार्थ-केन्द्रित व्यक्तिगत फल को महत्त्व नही मिलता

मानव-जीवन का प्राप्तव्य लक्ष्य आनन्द ही होता है, परन्तु वह भ्रामक विषयों की भूल-भुलैया में पडा उसका वास्तविक द्वार नही पकड़ पाता | सौन्दर्य आनन्द का एक उत्तमोत्तम द्वार है, परन्तु व्यक्ति वहाँ स्वयं अपवित्र और असुन्दर भावों के साथ पहुँचता है, इसलिये उसको प्रवेश नहीं मिल पाता और फिर उसे लौटकर इसी मोहमय श्रमात्मक-प्रपच में आना पड़ता है। वास्तविक सौन्दर्य तो वह है, जिसे देखने पर मन की वासना ही समाप्त हो जाये और उस अमन अवस्था में भीतर से आनन्द की किरणें उतर आयें। वासना की दृष्टि से देखा हुआ सौन्दयं परिणाम में दुःखद और मोहयुक्त होने के कारण बन्धनकारी भी होता है। सौन्दर्य देखने की दृष्टि तो वह है, जिसमें मन स्वयं अपने अहंकार का आसन छोड़ दे और निर्वासनिक अवस्था प्राप्त करके आनन्द-सरोवर में गोता लगाने लगे। सवासनिक हृष्टि को निर्वासनिक अवस्था तक पहुँचाने का सर्वोत्तम साधन प्राकृतिक सौन्दर्य है। घन-घटा के सोन्दर्य पर मयूर वासना के ऊपर उठ जाता है और मतवाला होकर नाचने लगता है। वृन्दावन के कुझ्जों को मीरा जब अपनी प्रेममरी आँखों से देखती थी तो वह जागतिक वेभव के ऊपर उठ कर अलोकिक आनन्द में आत्म-विभोर होकर नाचने लगती थी। लोकिक वासना रखने वाले लोगों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे मीरा की उस भूमिका को समझ सकेगे। वृन्दावन की प्राकृ- तिक छा में घनश्याम की छवि देखने वाली आँखें दूसरी ही होती हैं। मनमोहक वंशी-ध्वनि सुनने वाले कान भी कुछ दूसरे ही होते हैं। वह सौन्दर्य ही क्या जो मन को हर नले। मन ही तो जीव का बन्धन है। मन जहाँ सवासनिक अहंकार के आसन से हटा वही से जीव को स्वहूपानन्द की किरणें उतरती हुई प्रतीत होती हैं। इसीलिये तो कोटि मनोज लजावनिहारे राम ने अपने सोन्दयं के दर्शन का फल बतलाया है-- मम दरसन फल परमअनुपा, जीव पाव निज सहज सरूपा' प्रमात्मा का असीम सोन्दय प्रकृति के अन्दर व्याप्त है। इस रहस्य को आल्तरिक भावों से बूझने वाला व्यक्ति ही वाल्मीकि और कालिदास की कक्षा में पहुँचता है

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वास्तविक सौन्दये की भूमिका तो प्रकृति के अन्तगंत ही मिलती है, उसमें अन्तः:करण को जो दिव्यता की झलक मिलती है, उसका संकेत परमशान्ति और परमानन्द की ओर होता है। घन की घटा देखकर जिसका मन-मयूर नाच सका, चन्द्रमा की मधुर मुस्कान पर जो चकोरवत आत्म-विभोर हो सका, कोयल की मतवाली ध्वनि सुनकर जो वासन्ती के भावों से भर नहीं गया, मक रन्द- माधुयें-सम्पन्न नव विकसित सुमनों पर प्रेम-प्रपुरित अश्रमरों के “गुन-गुन' स्वर में अपना आन्तरिक स्वर मिला सका, शान्ति “सकेतिका तथा दिव्य भावोदभाविनी देव-नदी गंगा की मतवाली लहरों पर लहराते जल-पक्षियों को देखकर जो जलशायी विष्णु के दिव्य दर्शनों की कल्पना कर सका, उसके हृदय को पत्थर ही समझना चाहिये। प्राकृतिक छटा जिसको आलम्बन-रूप से आकर्षित कर सकी, वही उस सात्विक दिव्य सौन्दये-भूमिका का अधिकारी हुआ | वासनाजनित एकांगी प्रेम वाले व्यक्ति भले ही नायिका के विभिन्‍न अंगों तथा आभरणों के उपमान बाहर प्रकृति में ढूँढ़ कर अपने को धन्य समझे, परन्तु उनसे उस दिव्य सौन्दर्ये- परख को आशा नही की जा सकती वासना का बन्धन तोड़कर ससीमता से ऊपर उठकर असीमता की झलक दिखाने वाली छवि ओर ही होती है, कामान्ध विषयी जनों से सीधे उसकी आशा नही को जा सकती | हॉ, उनको उस दिव्य पथ का पथिक बनाया जा सकता है, यह कार्य भी सर्वाधिक काव्य-साध्य ही होता है। शारीरिक सौन्दर्य-परख की रागमयी दृष्टि जब निर्वासनिक भावों का ऐनक लगाकर प्रकृति के झरोखे से परम छवि की झलक पा जाती है, तो वह कृतार्थ हो जाती है। इस काव्य-पग्रन्थ में इस अकिचन द्वारा ऐसी ही भूमिका के निर्वाह का बाल-प्रयास है। मांसल सौन्दर्य का क्‍या परिणाम होता है, तथा जगत-बैभव अन्त में किस गति को प्राप्त होते है, इसके दृश्य भ्रमण-दिवस सर्ग मे देखने को मिलते हैं

इस सृष्टि में काम के प्रवाह को रोकने में मानव प्रायः असफल रहा है। नवीन मनोविज्ञान ने भी काम को मूल प्रवृत्तियों मे सर्वो-

परि स्थान दिया है। उसकी धारा को रोका नहीं जा सकता, बल्कि उसका मार्गान्तरीकरण किया जा सकता है। भगवदगीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि धनतिकूल काम-स्वरूप भी यम ही हैं आम “धर्माविरुद्धो कामोइस्मि भरतषेभ यह घर्म की अविरुद्धता या अबुकूलता पवित्र प्रेम से अलग होकर नहीं चलती | काम को विशुद्ध प्रेम का रूप देना है। काम के पंक से विशुद्ध प्रेम के पकज को प्राप्त करना है। नल-दमयन्ती की जीवन-यात्रा काम की ही भूमिका से प्रारम्भ होती है, परन्तु उसमें व्यावहारिक धर्म-परथों की अवहेलना कही नही की गयी है मांसल सौन्दर्य की दृष्टि प्राकृतिक सौन्दय की ओर उन्मुख हो जाती है। काम-भोगों को पूर्णतया भोगने के पश्चात्‌ नल-दमयन्ती दोनों को यह बात अनुभूत हुई कि भौगिक सुखो में स्थायित्व हैं और शान्ति प्राकृतिक सौन्दर्य के झरोखे से जो शान्त रस की किरणें हृदय तक पाती है, उनसे वह अपने परमानन्द- स्वरूप की मृक पुकार सुन पाता है। बन्धन वहाँ स्वयमेव ढीले पडने लगते है। प्राकृतिक सौन्दर्यानुराग की स्थिति प्राप्त करने पर दोनों को पारमाथिक सत्सग प्राप्त होता है, जिसे पाकर वे कृतार्थ हो उठते है। सत्सग से ही पारमाथिक विवेक को प्राप्ति होती है और वह सत्संग भी भगवत॒कृपा के अभाव में नहीं मिलता। “विनु सत्संग विवेक होई, राम कृपा विनु सुलभ सोई ॥।” [तुलसी दास] नामकरण :-“इस काग्य-ग्रन्थ का नाम हंस-कलाधर' रखा गया है विज्ञ पाठकों को यह सन्देह हो सकता है कि जब इसमें नल-दमयन्ती का चरित्र-चित्रण है तो नाम हंस कलाधर' क्‍यों रख दिया गया। हंस इसमें एक ऐसा पात्र है जिसकी कला (युक्ति) से नल-दमयन्ती के हृदयों में पला हुआ पूर्वानुराग तो सफलता के लक्ष्य तक पहुँचता ही है, समय आने पर उसी के सदुपदेशों से परमार्थ-सिद्धि का भी पथ ज्ञात हो जाता है। जो श्रद्धालु दम्पति हेस को कला [युक्ति) से लोक-परलोक दोनो का सफल पथिक्

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हो सका, उसका अथरे-वोधक शब्द यदि “हंस-कलाधर' हो सके तो इस अकिचन की भोली समझ से अनुचित नहीं कहा जा सकता

“हंस' शब्द का दूसरा अथे होता है नीर-क्षीर-विवेकी (सदसद विवेकी) परम तत्त्व का ज्ञाता पुरुष नल-दमयन्ती दोनों ही अन्त मे वासना-जगत के ऊपर उठकर उस ज्ञान-विभा के लक्ष्यार्थी हो जाते हैं, जिसे 'हंस-पद” कहते है। दोनों ही परम पुरुषार्थ-पथ के पथिक हो जाते हैं, इस प्रकार भी यह 'हस-कलाधर' शब्द नल या उस दम्पति का अरथें-बोधक हो सकता है।

हिन्दी-शब्दकोषानुसार हस का अर्थ दिव्य गुण-सम्पन्न राजा भी होता है | दिव्य गुण-सम्पन्न राजा की कला जिसमें हो वह (ंस- कलाधर' कहा जा सकता है। नल दिव्य भूपोचित गुणों से सम्पन्त था भी, इस अथ-भाव को लेकर 'हंस-कलाधर' शब्द राजा नल का सकेतक हो सकता है। इस शब्द से और भी अर्थ निकलते है जो मुख्यार्थ-संकेतक भले ही हो, पर वे अवान्तर भावों के सके- तक तो अवश्य हो जाते है। जसे 'हस' शब्द का अर्थ सूर्य भी होता है और उसके साथ लगा हुआ दूसरा शब्द 'कलाधर'” है, जिसक्रा अर्थ चन्द्रमा होता है सूरज जगत का ज्योति-दाता और चन्द्रमा शीतल आनन्दमयी ज्योति प्रदान करने वाला है। इस प्रकार 'हस-कलाधर' शब्द ज्ञान-प्रकाश और आननन्‍्द-प्र काश दोनों के अधिष्ठान का एक साथ अथे-बोधक हो जाता है। वल के राज्य मे ज्ञान और आनन्द दोनों का भाव दिखाई देता है, इस- लिये वह हस-कलाधर' के रूप में विराजनान है

इस प्रकार इस अकिचन ने हंस-कलाधर' शब्द को यहाँ नल या नल-दम्पति के पर्यायरूप में रखने की जो घधृष्टता की है, वह मनमानी तो नहीं कही जा सकती शब्दों के ऊपर समया- नुसार अर्थारोपण हो भी जाता है। यदि ऐसा भी लगे तो भी विज्ञ पाठक क्षमा करने की कृपा करेंगे।

कुछ संस्कृत-विद्वानो ने अपने नाम “शम्भू नारायण को अशुद्ध कहा और उसे 'शम्मु नारायण' लिखने की सलाह दी। शम्म्ु

शब्द ब्रह्म और शिव दोनों का वाचक है। शब्द-रूप के अनुसार 'शम्भू' शब्द द्विवचनान्त है, इसलिये वह (शम्भू ब्रह्मत्रिलोचनो --अम रकोष) ब्रह्मा और शिव दोनों का ही एक साथ वाचक हो गया आगे शब्द 'नारायण' भी है। इस प्रकार शम्भू नारायण' नाम मे ब्रह्मा शिव और विष्णु तीनो एक साथ गये प्रस्तुत रचना में नल-दमयन्ती दोनों अनुपम श्री-सम्पन्न तथा

यौवन-सुलभ समुचित सौन्दर्ययुक्त दिखाये गये है। लोकिक टृष्टि से दोनों ही स्वंगुण-सम्पन्त है। यौवन के पदाप॑ण पर दोनों स्वा- भाविक रूप से काम के वशीभृत हो जाते है, फिर भी वे धर्म-पथ पर ही चलते हैं। यही तो सामाजिक मानव-धर्म है। योवनावस्था मनुष्य की एक ऐसी सशक्त और अन्धी अवस्था होती है जिसमें प्राय: मानव-धर्म भुल जाने की आशंका रहती है। विशेषता धर्मे- पथ पर चलकर ही भोग भोगने की है। यह काम-भोग इस दम्पति- जीवन में पूर्ण यौवन तथा सौन्दयय में विलसता हुआ पाया जाता है। धर्मान॒ुकूल होने पर तथा हृदय की सम्पन्नता पाने पर वह काम-वासना जीवन की साधना बन जाती है। जीवन की ढलती अवस्था मे, यौवन-छवि समाप्तप्राय होने पर भी दोनों के आन्तरिक प्रेम में अन्तर नही पड़ता, क्योंकि ऐसी अवस्था में धर्म-पालन, की आन्तरिक छवि पूर्ण सहायक होती है। दोनों का

ही सीन्‍्दर्याशुराग प्रकृति-श्री-दर्शक होने के कारण अलौकिक पथ

पकड़ लेता है। जीवन की कल्याणकारिणी तथा वास्तविक सौन्दय॑-

मयी झ्ाँकी तो प्रकृति के झरोखे से ही मिलती है।

नल-दमयन्तोी दोनों ही नाना सांसारिक वेभवों के बीच विषय-

जनित काम-सुख-भोगों को भोग उनकी असारता समझ सके।

शारीरिक योवन और सौन्दयं दोनो समाप्त होकर इस दम्पति के

जीवन में प्रश्न-सूचक चिह्न छोड़ जाते है। विषय-भोगों से शान्ति

की समस्या हल नही हो पाती, तब परम शान्ति की जिज्ञासा

उत्पन्न हो जाती है। इस रचना का 'भ्रमण-दिवस सर्ग” उस परम

शान्ति को प्राप्ति के हेतु उचित विराग की पुष्टि करता है। संसार

के वेभव-विलास की चमक-दमक भी नश्वरता को ही प्राप्स होती

है। विनाशशील वेभव-विलास तथा यौवन-सौन्दययं से वास्तविक

शान्ति की आशा नही की जा सकती | यौवन तथा योवन-सुलभ मादकता के समाप्त होने पर नल-दमयन्ती दोनों ही बहुत खिन्‍न पाये जाते हैं। एक दिन प्रातःकाल दोनों उपवन में पहुंचते हैं और उसके बाहरी पतश्नड़ में अपने जीवन-पतझड़ का राग मिलाने लगते हैं। ऐसे ही समय में हंसों का दल वहाँ उतर पड़ता है। हंस-समाज- सहित अपने पू्वगुरू का दर्शन पाकर वह राज-दम्पति निहाल हो उठता है। समयोचित स्वागत के उपरान्त वहाँ एक सुन्दर सत्संग-सभा का समायोजन हो जाता है राजा नल सद्गुरु हंसराज से शान्ति का मार्ग पूछता है। हंसराज की समझ में यह बात गयी कि नल-दमयन्ती दोनों पृर्णूपेण सांसारिक वेभव-विलास- जनित सुखों को भोग कर उनकी असारता समझ चुके हैं। अब उन्हें शान्त्यर्थ परम ज्ञान की आवश्यकता है। सदगुरु हंसराज जी जिज्ञासु दम्पति की द्ांकाओं का पूर्णरूपेण समाधान करते है। यही हसोपदेश पाँच कलाओं में विभक्त 'हुस-प्रदीप” नामक अन्तिम सर है। इस प्रकार सदगुरु के उपदेशों से परितृषप्त उस दम्पति ने जीवन की वास्तविक शान्ति का मार्ग समझ लिया। शान्ति-पथ-प्रदर्शन ही इस रचना का अन्तिम लक्ष्य भी है। काव्यगत गुणों मे मौलिकता एक महाव्‌ और प्रशंसनीय गुण है इस बात पर भी ध्यान इस काव्यग्रन्थ में दिया गया है। पाठक स्वयं बढ़कर आदि से अन्त तक इसकी मौलिकता की परख कर सकते हैं प्रथम दोनों सर्गो में ही नही बल्कि सवंत्र मौलिकता की झलक मिलती है। कथानक के घटकों में भी अपने ढंग की मोौलिकता है। स्वयंवर-साज सर्ग में अपने ढंग की अलग सजावट है। नल से दमयन्ती का मिलन राज-महल में नहीं बल्कि राज- नियंत्रित उपवन में होता है। देवताओं की युक्ति से नल उस उपवन में पहुँच जाता है जहाँ दमयन्ती नित्य नियमानुसार टहलनें जाया करती है। स्वयंवर और विवाह के सौन्दय-चित्र अपने ढंग के हैं, परन्तु भारतीय परम्परा के अनुसार ही है। तत्पश्चात्‌ प्रेम- पूर्ण प्रथम मिलन तथा प्राकृतिक सोन्दये के चित्रणों का मूल्यांकन पाठक स्वयं पढ़कर कर सकते है। “भ्रमण-दिवस सर्ग॑ के अन्यान्य भाव-दर्शक चित्रणों के साथ “विगत नगर' के ध्वंसावशेषों का

[ हे०

चित्रण अपनी मौलिक कल्पना के साथ ओर ही ढंग का है। यहाँ का करुणाजनक हृश्य परम शान्ति-पथ की जिज्नासा का आधार बन जाता है। पंचकलात्मक €ंस-प्रदीप सर्ग' तो जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति के सकेतार्थ ही है। जीवन-साधना की दाशेनिक भूमिका पर किस कोटि की बातें सामने रखी गयी है, उसे पारखी जीवन-साधक तथा विज्ञ पाठक ही समझ सकते है।

श्रद्धालु पाठकों से निवेदन है कि वे इस रचना को श्रद्धा के साथ पढ़कर लाभान्वित हों और छोटी-मोटी भूलो के लिये इस दास को क्षमा करें। कवि-स्वभाव की तुलना लोग कपि-स्वभाव से करते हैं। जसे रसयुक्त फल के लिये कपि डाली तोड़ डालते हैं वसे ही कवि भी काव्य-रस के लिये शब्दों को तो तोडते ही है, साथ ही साथ आवश्यकता पड़ने पर व्याकरण का तना भी झकझोर डालते है। फिर भी साहित्य के गौरव पर ध्यान दिया गया है। रचना में गुणों की महानता के लिये इस अकिचन को कोई श्रेय नहीं है, क्योंकि कवि के भाव-विचार तो प्राय: परमात्म- प्रेरित ही होते हैं। इस प्रकार यह दास तो निमित्तमात्र हो सकता है। पढ़कर काव्य-रस का पाथेय लेकर जीवन-साधना के पथ पर चलने वाले सहृदय पाठकों को शत-शत वार वन्दन !

जन्म-भूमि तथा स्थायी पता-- आपका--

ग्राम-भदिवाँ (अमोली) शम्भू नारायण सिह “अकिचन' पत्रालय-अम्बा, परगना-जा ल्हपुर जनपद-वा राणसी

आयन्‍मयवा+पयप्मक उजथयाभाममाक वा ५--5०म०७»कम्मही धधपणामरकारयाकाके,

अनु क्रम णिका

मंगलाचरण-- १..परिचय सर्ग! २--स्वप्न सर्ग #०हई: हह#* ३--उपवन सर्ग “४ “८ ४--हंस-गमन सर्ग ** ** ५--दमयन्‍्ती-हंस-संवाद सर्ग ** “४” ६--नल-चिन्तन सर्ग ** ७--दमयन्ती-चिन्तन सगे ८--स्वयंवर-साज सगे ** ६--स्वयंव र-स्े ४“ १०--शान्ति-विलास सगे ४” ४४ ११--निसर्ग-दर्शन सर्ग [सान्ध्य विहार|हह हल १२--निसगं-दर्शन सर्ग [प्रात: विहार] ०" ४“ १३--भ्रमण-दिवस सर्ग "७ १४-हंस-प्रदीप [प्रथम कला] *" “*“ हंस-प्रदीप [द्वितीय कला] “« हंस-प्रदीप [तृतीय कला] *० *«“ हंस-प्र दीप [चतुर्थ कला]४० हंस-प्रदीप [पंचम कला]“" ««

पृष्ठ संख्या

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झतुवर ! मेरी शुभ आशाःर में--

तेरी करुणा का बल होये। तब भावपूर्ण जग - लोला में--

जीवन का गान सफल होये ॥१॥

हदयता की सुन्दर लोला में--

मुस्कान एक त्तव जान सक। हर ग्रति - विधि में तेरे अर्तन--

के हाव - भाव पहचान सक्‌ ॥०॥

भय - राग - दष का भ्रोमक पट

अन्तर से सहज हटा पाऊ॥ सन का आरोपित स्वार्थ त्थाग

छवि के शुभ दर्शव पा जाऊँ।॥३॥

जग - रूप मधुरिमा के स्वर का

केवल दर्शन में अपना हो! झाँकी की उस विभोरता में--

मिल सके भाव-रस जितना हो ॥४॥

रए॑ ह| तर ही. छवि से सजी - बजी तव प्रकृति सदा दिखलायी: दे |

सुन्दर लीला में भावों कौ-- बँशी - ध्वनि. सदा सुनायी के ॥#&॥0

तैरे ही स्वर की छारा। मैं--

कविता के सुन्दर राग चलें तेरी करुणा की चितक्‍ता सै---

मानस में सुन्दर भाव पले॥ 6:

हैर पद-गति में गुझ चरणों तक--

चलने का सुन्दर ध्यान बनें, भोली पुकार जीवन -पथ से--

कविता के स्वर में गान बने ॥छा॥

जीवन - मंजिल में चलकर नित--

तुझकी ही जीना जान सके भाडों की उस अनन्य मति से--

शुचि प्रेम - राह पहचान सके॥ठा)

तेरे बिलांस का जग - नर्त्तत--

हरे रूप - भाव में मधुमय हो, कैविन्कमं-रहूप के वन्दन में--

स्वीकार संदा मेरा नय हों॥श्॥

परिवय-सर्यग

ज्वामी की चाह जान मन में--

श्री पहुँची ज्यों सिषध-देश सुख - शान्ति - साधनों में प्रवेश--

याकर बेठी ज्यों विविध वेश 8 श।

स्थायी वास ले पाया तौ--

आकर वसनन्‍्त उस देश बसा। चल का भरीर ही केन्द्र मान

मादक यरैवत्त के वेश खेसा ॥२॥

ऊषा की चबोधक चिंतवन-संग चलती थी कमेमयी लीला,

तोषद विश्वाम, प्रेम का फ्थे सनित पदिखलगती सन्ध्या - वेलय ।5॥

ज्यंगार सजाकर रजनी नितं--

आती यौक्‍त सरभार बिये। रत्वों को भाया यहीं लुटा

जाती अम्बर को ध्यार लिये ।॥॥४॥

शशि कला अपनी दे पाता

तब भी रजनी निप॑ंघे-देश, सणि-दीपों की मृदु जगमग में--

पा जाती थी प्रिय कलित वेश ॥५॥

[४ ।॥ रजनी का घन लज्जित होता प्यारी चपला को गोद लिये॥

कल्लन-भाषण ले आते प्रकाश जब वातायान से मोद लिये ॥£१

दुख की माया को दूर - देश तजकर आती नित अंधियारी | बह प्रेम - मिलने की बेला मैं-- दिखलाती सुन्दरता सारी ॥छ॥

तैम से प्रकाश की शोभा का--

होता निशि में श्रृंगार सफल जीवन-रस से सुन्दरता का--

हो पाता था अभिसार समल ॥57

मंधुमास रचित रस - माया मैं-- अलि - साथ रंगीले अम्बर का। मृदु हांस » भरें वन - वेभव में-- अभिसार सहज गुन-गुन स्वर का ॥68

मधु की माया छिफ्कर आती रस भर देती जीवन-वन में। नव रंग - भरी हरियाली का-- अब भाव सोचता नल मन में ॥१०॥

दूख-मोह भरे जीवन - पथ में--

सुख-शान्ति-रूप वह सुखद राज | सुख-विलसित जीवन गिर सके

[ |]

सस्‍्वगिक मेला तजकर परियाॉ---

घन-बीच छिपी - सी बसती थीं नल का सौन्दर्य परखने को--

चपला के रूप बिलसती थी ॥१९५१२॥

तन-मादकता की लहरों में--

पड़कर सत्वर छिप जाती थी सोन्दये मयी लज्जावाली

क्षण भर ही नयन मिलाती थी॥१३॥

किसके जीवन की गन्ध लिये

आता समीर मतवाला बन, अवगाहन करने को जीभर

किसके जीवन की धारा बन ? ॥१४॥

यौवन की मादक डाली पर--

भावों के पक्षी आते थे। नव सरस पहेली का केवल--

संकेत मात्र दे जाते थे॥१५॥

संयम में यौवन की शोभा शुगार सहज रच पाती थी; पर मृधा बनावट की माया-- अति दूर सहम रह जाती थी ॥१६॥

नेसगिक नर-रचित दिव्य

सुन्दरता का मुदु मेल जहाँ, नल वहाँ पहुँचने वाला अब

अन्तर - संगम - रस - खेल जहाँ ॥१७॥

[६

सुन्दरता की मादक रेखा--

जिस क्षितिज-लोक से आती थी, ऊषा निज मृदु मुस्कान दिखा

संकेत सदा दे जाती थी।॥ १८)

इयामल अम्बर में वह लाली

प्राची की प्रभा दिखाती थी। सरसिज-विकास का समय सहज

मानस को अब समझाती थी ॥१९॥

रा!

पिंगल किरणों पर चढ़कर ज्यों

सुन्दरतता आती निषध -देश, प्राची - नयनों के मन भाये

इसलिये सजाती विविध वेद्य ॥२०॥॥

भर प्यार रंगीली बाहों से--

किरणें आलिगन करती थी। सुन्दरता के पट पर चित्रित

नगरी ज्यों नित्य विलसती थी ॥२१॥

नूप - लक्ष्य - हेतु गठबन्धन की-- जब बात कही कुछ हो पाती, कोयल की मंगल - ध्वनि आकर

शुचि सहजसमथंन कर जाती ॥२२॥

जीवन - यौवन सुन्दरता .कौ--

मृदु मौन कहानी कह जाता। लज्जा को मोहक छाया में--

बठा नल तनन्‍्मया सुन पाता॥२३॥|

[|

अब पिता वानप्रस्थी नरवर

करता स्वरूप का ध्यान रहा, भुपासन पर शोभित नल का

समृचित करता सम्मान रहा ॥२४॥

आशाभर निपुण योग्य सुत का--

सब भाँति परीक्षण कर देखा। शासन में शान्ति - सुरक्षा का--

मिल पाता था समुचित लेखा ॥२५॥

अब वीरसेन मन सोच रहा

आयेगी पुत्र - बधू. कोई, पर चयन भ्रामक हो जाये

चिन्ता - रेखा उर बनी नई ॥२६।

तन - मन की वह सुन्दर बाला

है कौन, रखे जो मृख-लाली, सुत के भावों की आशा में--

विश्वास सहज भरने वाली ॥२७॥

नारी -गुण से सम्पन्न सदा

लज्जाशीला गुणवती मिले, पृति - सेवा - रता, सहज सरला

सुधि नित्य निरन्तर पति की ले ॥२५॥

मन का सब कूछ पति-चरणों पर--

रख कर सब कुछ पाने वाली। उसको प्रिय परम समझ पाये

इ्यामा, मन को भाने वाली ॥२६॥

मन के भावों की तन - शोभा--

बनकर शुभ सहज विकस पाये। शोभा को भी शझोभित कर दे

सुत के अन्तर में बस जाये ॥३०।॥

अञज्चल में माता के गुण हों,

आखों में हो शआऔगार सरल, कर में सेवा शुचि बसती हो,

उर में आकर्षक भाव सफल ॥३९१॥

भावों की गंगा -धारा में--

जीवन का लक्ष्य समझती हो। उस प्रेम-सिन्धु की दूरी क्‍या,

पाने की चाह उमड़ती हो ॥३२॥॥

क्षणभंग्र काया का विलास,

बस लहरों का उठना - गिरना, उमिल क्रीड़ा में प्रेम सत्य

जाने उसमें प्रिय का मिलना ॥३३॥

तन - भोग मात्र ही लक्ष्य नहीं

वह पथ हो योग - साधना का। शुचि सहज समपंण - सेवा में--

मिट चले विकार वासना का ॥३४॥

उसकी अपनी इच्छा फिर क्‍या

जो भी होगी प्रिय-भाव-सनी सुत के जीवन में रस भर दे

होगी वह पृत्र-वध्‌ अपनी ॥३५॥

.]

संग्रह को कटुक वंचना वह

अन्तर से सदा जान पाये, इसलिये त्याग - पथ पर चलकर

निर्भार हुई ब्रिपष को भाये॥३६॥

इस भाँति सोच - रत वीरसेन,

बेठा नल भी था वही बीच तब तक कुछ अतिथि पहुँच आये

ज्यों भाव लिये हों रूप खोच ।।३७॥

जन रहे विदभे - भूमि - वासी

पहुंचे देश - भ्रमण करते क्या रही देश की सुन्दरता,

नेंसगिक भाव हृदय चरते ॥३५।!

वन्दन नमन - भरी मुद्रा

उनमें आकर साकार हुई। शुभ सरस कहानी कहने को

जेसे पावन आधार हुई॥३६।॥

देखी नल को सुन्दरता तब

जो भावों में बसती थी। योवन के भार दबी - सी कुछ

लज्जा की राह विलसती थी ॥४०॥

तन-श्री स्वागत-विधि लखकर अपनी तन - सुधि जन गये भूल पथ-श्रम की दिव्य सफलता - हित

विकसित भावों के हुए फूल ॥४१॥

[ ६० |

वुछा तब बीरसेन ने फिर

“हे अतिथि-जनो, क्या समाचार ? किस भाँति भ्रमण करते पहुंचे

बीहड़ पथ कैसे हुए पार ॥४२॥॥

धनैसगिक सुषमा भरी हुई

पावन भू-श्री को आँक सकें, नटवर के चल जंग - नर्त्तन में--

उसकी छवि पर कुछ झाँक सके ॥४३॥

इसलिये भ्रमण करते पहुँचे शोभा - संपूरित निषध - देश हैं जहाँ प्रकृति सब भाँति सजी अपना वैभव - लेकर अशेष ॥४४॥

देखा दक्षिण से उत्तर तक--

यह प्यारा देश विलसता -सा। आकर्षण के कर सजा हुआ

अम्बर के उर में बसता - सा ॥॥४५॥॥

पूरव में. आर्यावते देश---

अपनी उपमा में एक रहा। हिमगिरि से श्री - वैभव पाकर

उसके पद मस्तक टेक रहा ॥४६॥

ऊषा की छवि अरुणाभ, अहा !

पहले जिसका वन्दन करती। मलयानिल की गंधित बेला

प्राणों में नव जीवन भरती ॥४७॥

[ ९११ ॥|

जलाना देशों के प्रक्षी भी--

नभ से इसकी झाँकी प्राते॥ रस - भावों से भावित होकर

उड़ बार-बार आते - जाते ॥४८॥॥

गंगा - यमृूना की गोदी का--

देखा हमने वह धन्य देश॥ घट ऋतु - रंजित परिधान पहन

है प्रकृति बदलती जहाँ वेश ॥४५९॥

धन-धान्य-सरजी उस धरती पर

हरियाली सहज उमड़ती - सी मधुमास - रचित सुमनावलि पर

इयामा मोहक स्वर भरती - सी ॥॥४५०॥

नगराज हिमालय से निकली

प्यारी नदियों का सरस देश॥। झांकी आकर झाँकी लेती

सुन्दरता पाती सहज वेद ॥५१॥

नभ के घन दूर-देश से

पाते केकी का प्यार जहाँ चपला मृस्काती लुक - छिपकर

करती मोहक अभिसार जहाँ ॥५२॥

मधुमास जहाँ निज वेभव में--

शुंगार - स्वछप निरख पाता, बेसुध अपनी मादकता से--

जीवन में मधुरस बरसाता ॥५३॥

जीवन पाने का क्‍या रस हैं,

यह आर्यावर्त बता देता।ा शृंगार सुलभ निज जग्रमग में--

प्रिय प्रकृत प्रेम - पथ दर्शाता” ॥५४॥

यों देश -देश की मद बातें

आयी प्रसंग में नई-नई। फिर देश - देश की सुन्दरियों--

की चर्चा भी रसमयी हुई ॥५५॥

फिर वीरसेन का प्रइन हुआ

“प्रिय अतिथि, सुदेश-भ्रमणकारी ! नल के है योग्य कौन बाला

गुण - सुन्दरता में जो न्यारी” ॥५६॥

सुनकर पथिकों ने फिर देखा

नल का सौन्दर्य निराला -सा। मुस्करा उठा नल सुन प्रसंग

उर मोहक भाव गये सरसा ॥५७॥

था प्रशन्‍्त उचित समयानुकूल

पथिको के भाव संभल जागे। देखा दमयन्ती को भी था

नल को बंठा देखा आगे॥४५८५॥

दमयन्ती का कहल्िपित स्वरुप--

बेठाया नल के वाम - भाग रस की आँखों से भाव - मग्न

देखा मन का विरचित सुहाग ॥५९॥

आनन्द उमड़कर आँखों से--

घन अश्वुरूप बन घिर आया मधुरसता की चयला - श्री से

मुस्काब - रूप मृदु दर्शाया ॥६०॥

फिर बोल उठे जन अतिथि संभल

“यह प्रइन समय का जान पड़ा, भावी आकर्षण से पूरित

अपने में रखता मान बड़ा ॥६१॥

थल - थल की भूमि कहाँ कंसी

किस सुन्दरता से सची हुई, हम भ्रमणशील जन देख चूके

मन रूप - धारणा बच्ची हुई ॥६२॥

पर्वत श्रीशेल देश दक्षिण

कालेश्वर का श्रृंगर जहाँ, दर्शन से पथ मंगलमय कर

चल पड़े वही से जहाँ - तहाँ ॥६३॥

उस दिव्य भुभि की वट - छाया कालेश्वर जो के शुभ थल में, बेठे देखा, वह दृश्य. धन्य अब तक चित्रित जो स्मृति-तल में ॥६४॥

छवि-रत्नों में वह महारत्न

यूवती - स्वरूप में ज्यों आया। परिचय उसका जो जान सका

स्मृति - पट पर अब तक छाया ॥६५॥

[ है४ |

दक्षिण - देशों में रम्थ देश

सब भाँति विदर्भ विलसता-प्ता दिनमणि जितमें मध-श्री भरता

शशि सस्मित जिसे निरखता-पा ।।६६।॥

मधुमय वसन्‍त निज वेभव में-- खग - मृग - विहार-लीला रचता योवन-विक्रास धर रूप जहाँ जीवन-रस-भाव सफल करता ॥६७॥

हरियाली अपने वैभव में--

रचती गोदी की मृुदु्ाया। बहुरंगी सुमनों की शिशुता--

परती जिसमें शीतल छाया ।।६८१)

हर ओर शान्ति का सहज भाव

जिसके सुराज मे फलित हुआ, उस भीमराज का राज धन्य

जिसमें कुभाव भी ललित हुआ ॥६६९॥

उसकी कन्या वह दमयन्ती

अति रूपवती कल की लाली माँ की जिस गोदी में आयी

मंजरी प्रियंगू नाम वाली ॥७०॥

सुनते थे कानों से पहले उस भीम-सुता की श्री-कलता, जसे वसन्‍्त की रचना में-

सुमनों से विलसित स्वर्णंलता ॥७१॥

5 |

सखियों-सेंग. आयी. दमयन्‍्ती

तन-श्री में मृदुता भरती - सी यौवन - विकास - रेखाओं में--

सुन्दरता लहरित चलती - से ॥७२॥

शोभा की किरणें निकल रहीं

चसनो की ओट सुभग तन से, शशिजर सुहसिनी का सुहास

जसे कलिताभ विरल घन से ।॥७३॥

काया - कसमसी कड्म्चुकी से--

मिल खेल रहो तन - मादकता | यौवन - सुद्यर आकर्षण में--

रस - राग - भरी - सी पावनता ॥७४॥

उर भावमयी मृदुता विहंसित

आँखों में रूप बनाती थी। उन्‍मीलन में जसे लुक - छिप

निज मोहक रूप दिखाती थी ।।७५॥

अधरों में लगली थी जेसे पाटल - कलिका कुछ हिलती हो, समृदु मधुर मधुप-गुजार - भरी रवि प्रात-छटा में खिलती हो ॥७६॥

खश्ुंगार-भरी शोभा तन की--

भर देती भाव रम्यता का; पर चाल-ढठाल से टपक रहा

शुभ लक्षण पूर्ण सम्यता का ॥७७॥

[| १६

तन - सजी आलियों - बीच सहज

मन्‍्थर गति में वह न्यारी थी सुमनों से भावित लहरों-संग

ज्यों तिरती दिव्य मराली थी |॥छ८।)

यंग - चालन में मधुमास रमित

भतवाली गति में स्वर भरता। रुनझुत नूपुर के भावों से--

दोलित दुकूल में वल खाता ॥७९॥)

शशिरूप सुधर आनन विहँसित उसमें आभा सुख - सारमयी, जिससे घन - केश - राशि भावित

चातक - स्वभाव को प्यारमयी ||८५०॥॥

कल-भाषण में दशनों की छवि--

मुस्कान लिये यों बन पायी, चपला - पथ पॉति रजत-परियाँ नर्तनपर अधर उतर आयी ॥|5५१॥

अधरों के मोहक दोलन में--

सुन्दर भाषण को कला रही। शोभा-सर की युग लहरें ज्यों

प्रिय प्रेम-पुलिन पर बुला रहीं ॥5८२॥

सुन्दरता की परिभाषा भी--

आकर ढिग स्वयं लजा जाती, फिर काम-चित्र की भाषा में--

हंस-कलाधर

अँग - चालन के उस आकर्षण--

से मानस लहरित हो जाता। विहंसित शशि-मुख की कला देख

सागर की भाँति उफन पड़ता ॥5८४॥।॥

सब भाँति सुघर यौवन-विकास--

में मोहकता नव पायी हो, आकर्षण. का ज्यों सार खींच

धर रूप महा छवि आयी हो ॥5५॥

सुन्दरता में पावनता की--

मिलकर धारा उर वहती थी शुचि शालीनता सहज भासित--

हो वाहय प्रदर्शन करती थी ।॥८५६॥

कटुता - काई का नाम नहीं जीवन - धारा में जान पडा। वह अमी - धार - सरिता - सी थी प्रिय - सागर था अनजान पड़ा ॥|5७॥

सोन्दर्य - कल्पना जा समीप

मन - चकित प्रशिक्षण लेती थी, अंग - अंग पर हो जाती विभोर

अजित थाती भी खोती थी ॥८५॥

वह सत्यरूप संकलपों की

शिवता में ज्यों साकार हुई, सुन्दरता के आश्रय वाली

मानवता को आधार हुई ॥5५६॥

१७७

-]

परिचय-सर्ग

मानस के भाव - सुजीवन से--

नव प्रात खिली - सी लगी भली सरसाती किरणों की पाली

मधुभरी मधुप से रहित कली ॥६०॥

सुन्दरता प्रेम - कहानी निज

कहती गोदी में यौवन की। वेसे ही भोली दमयन्ती

कहने वाली किससे मन की ? ॥६१॥

रंजित घन-इन्द्र-धनुष में ज्यों--

उसके तन की छाया पड़ती। वेसी मुस्कान चपला की;

इसलिये चमक क्षण छिप रहती ॥६२॥।

उस छवि की छिपती छाया ज्यों--

नत्तित मयूर घन में लखता, उसकी बोली सुधि में लाकर

डाली से छिपकर स्वर भरता ॥€३॥।

क्षण समझ पाया उस पथ को

जिससे उसका यौवन आया। उर भाव - भरी सुन्दरता का+--

केसे वह रूप निखर पाया ? ॥६४।॥

ऐसा लगता ज्यों केन्द्र वही

सुन्दरता मृदु मोहकता की यौवन - मंजिल पर पहुँची वह

हँस-कलाधर ६६

तन की शोभा हो निज मन को

मन - मृदुता मनसिज माया की। कर सके समपंण प्रिय - पद पर

उसकी फिर अकथनीय झाँकी ॥६९६।

ऐसी बाला वह भाव - भरी

मुझकोी ऐसा आभास हुआ। उसकी सुन दिव्य कहानी तब

परिजन से हृढ़ विश्वास हुआ” ॥६७॥

वाणी की रेखा मोहमयी

रूपित नल-उर पर सुन्दरतम भीतर शुूंगार - भाव विकसित

पर बाह्य रूप से गया सहम ॥॥8५॥

अन्तर-पट पर कल चित्रण की--

मृदुता धर रूप निखर आयी, मोहक विकास वय-भावों से--

चलकर अधरों पर म्‌स्कायी ॥६९॥

देखी उसने उर- ध्यान - बीच

भीतर जगमग श्यृंगारमयी, उस एक रूप पर छवि - रेखा

आती लगती बन नयी - नयी ॥१००॥

अन्तर - छवि की मुस्कान देख नरता कोमल सुधि गयी भूल पहुंची लेकर कल्पित रेखा

२०

परिचय-सर्ग

वाणी का ही वह चित्रण था

पर वाणी मौन हुई नल की। सौन्दय्य - कल्पना उर अभिसृत

लज्जा के पथ कुछ झलकी ॥|१०२॥

नरवर भूपाल पिता के भी--

मन में कोतृहल पथ बदला। सोचा, कंसे सुत के समीप

देखे. ऐसी सौन्दर्य - कला ॥१०३॥

फिर सोचा मन, जीवन - विधान अपने में स्वयं निराला-सा। नर समझ पाता अवसर पर पड़ जाता कौन कहाँ पॉसा ॥१०४।॥

तब पथिक जनों को साथ लिया

वह पहुंचा निज सत्संग - धाम, परमा्थे - कथन जिसमें होता

लखने को निज में स्वयं राम ॥१०४५॥

स्वागत - विधान भी वही बना निशि - बेला उनको रहने का। मन में सत्संग -भाव आया कुछ कहने का कुछ सुनने का १०६॥

जीवन - विचार ही जीवन का--

आधार स्वय बतला देता संतत प्रयास से चल - फिर कर

हंस-कलाधर

बोले जन, “नरवर ! जीवन में--

अपना जो भाव समझ पाये उसको अभाव असफलता फिर

जीवन - पथ में क्योंकर आये ? ॥१०५॥

मुदग्राही को जग मोद - भरा

इस लीला में परिवर्तन की यह भेद सहज जो लख पाता

उसको जग - चित्रपटी मन की ॥१०६९॥

जीवन की चपल तरंगों से-- प्रकटित रूपों के विविध लास, मन पर अद्ृष्ट की छाया से लगता मोहक, कट्‌, मधुर रास ॥११०॥

बाहर की चलती लीला मे-- जीवन का राग प्रकट अपना।

अपने में भावित हो पाया, उसका अपना संसार बना ॥१११॥

कुछ बनकर स्वयं अहंता से--

लीला का रूप कही धरता, छवि की झाँकी उसे मिलती

उसको स्वरूप सहज मिलता ॥११२॥

जब राग - दष के एनक को-- आँखों से सहज उतार सके, पग - पग निसग की लीला में--

२१

हर

परिचय-सर्ग

नटवर का कोई प्रेम-रूप

अन्तर में आकर बसता हो, उसका अपना प्रिय पथ होगा

यदि भावों - भरी सरसता हो ॥११४॥

संचित जीवन का निज सब कुछ प्रिय - चरणों पर धर दे झुक कर

कुछ शेष बचा अपना करे प्रिय उसका निज होता सत्वर ॥११५॥

लीला उससे भावित होकर

आँखों के सम्मुख जाती, अन्तर - विभोरता के पथ पर

रस - रूप सहज दिखला देती” ॥११६॥

यो सुजनों से रुक वीरसेन-- की बात समय कुछ चल पायी तब तक सुरंग की झोली सें-- रोली बिखेर सन्ध्या आयी ॥११७॥

खग नीड़ - ओर मूह कर उड़ते मृग हार छोड़ पथ पर भाये भोले किसान तज ताल - छोर

संगीत भरे गृह - पथ आये ॥११८॥

व्वनि से हुलास दे उपबन को स्यामा छिपती-सी क्लांत हुई। मादक ध्वनि मिल तरु-शिखरों से--

हँस-कलाधर

रुनझून नूपुर के गीतों से--

कंगन के सुन्दर ताल मिला-- पन्घट उदास कर गागर ले

प्रमदा-दल भी घर-ओर चला ॥१२०॥

सुमनों को निज गोदी में ले

हरियाली मिली ललाई से रवि - वन्दन में वह भुली-सी

सन्ध्या की करुण विदाई से ॥१२१॥

खफ्रेलों से अब धूम उठे

मन्‍्थर गति से अम्बर धरते, होते जाते थे शून्य - लीन

जग - नव्वरता इंगित करते ॥१२२॥

त॑म का लखकर आगमन दीप--

भोले प्रकाश अब साथ रहे सुन्दरियों के कर दीपित हो

सोन्द्य निरख निर्बाध रहे ॥१२३॥

घण्टो की ध्वनि टकरा बढती पादप - शिखाग्र से क्षितिज-छोर खग - सभा विसरजित शिखरों से तज सान्ध्यगीत का मधुर रोर ॥१२४॥

गलबाही डाले निशिपति भी

निशि रास-हेतु अब निरख रहा होने वाली नभ की लीला

तारक-दल भी ज्यों परख रद्रा ।।?२५।।

रे

२४

परिचय-सर्ग

सन्ध्या-वन्दन अवसर पर केर

जन वीरसेन के साथ लगे। भोजन-विश्राम समय पर कर

प्रातः मुदिता के साथ जगे ॥१२६॥

प्राची प्रातः के साज सजी

छबि-रीति नवल भर मृदित लसी ऊषा की भर मुस्कान मृदुल

जागृत जन-भावों में सरसी ॥१२७॥

व्यवहार निभा मिल भाव-सहित

भोले जन अपनी राह चले। भावों की छाप छोड़ मन पर

वे पथिक गये पा भाव भले ॥१२८॥

स्वप्न - सर्य

रजनी में नृप नल ने देखा भावों का सुन्दर सपना था आशा भर एक सुन्दरी का-- शंगार वहाँ पर अपना था॥१॥

मणि - दीप - सजे शोभा-गृह में-- वह परम सुन्दरी चलती -सी। क्षण - क्षण नवीनता के पथ सें आकर नयनों में ढलती - सी ॥२॥।

नव विकसित तन सब अंग सुधर

परिधान रंग. हल्का धानी। कोमल प्रकाश के झिलमिल में--

वह॒ वर्ण गुलाबी का पानी ॥३॥

लगते मृदु वसन खीचते - से--

नव भरे अंग निज ओर सिहर नीलम-रंग कलित कंच॒की मे--

यौवन की कलियाँ खिली उभर।॥४॥

धुधली - सी रेखा अन्तर की-- नयनो के ऊपर जान पड़ी मानस में श्रषमर -लकीरो - सी

२६

स्वप्न-सर्गे

अधरों के पथ से झाँक रही

मुदू - मधुर कपोलों की लाली आशा में भर ज्यों खोज रही--

मादक प्रिय चुम्बन की प्याली ॥६॥।

मुख मण्डल इयाम केश - नीचे

मृदु हास लिये यों बन पाया, अम्बर घन - नीचे सस्मित ज्यों

राकेश गुलाबी हो आया ॥७॥

कुछ सकुच नयन, उनमीलितस्से,

दो मधुप त्याग ज्यों चंचलता शशिगत सरोज मे विलसित हों

बेसुध पीकर मधु - मादकता ॥5॥

अधखली सजीली बाहों में--

मधुसर की लहरित झलक रही गति में उमड़ी नव राग लिये

आलिंगन की ज्यों ललक रही ॥९॥

नीचे-ऊपर समुचित विकास--

से तन में लगती क्षीण लंक प्रिय - बाहु - पाश की नाप समझ

विकसित हुई ज्यों हो सशंक ॥१०। लज्जा की भर मुस्कान मधुर

नल के समीप वह खड़ी हुई, नत-सिर मुख दक्षिण भुजा - ओर

मोहक उलझन में पड़ी हुई॥११॥

हुँत-कलाधर

कुछ रुक पीछे वह मूड़ आयी

लेने को सुमनों का दोना, आले पर जो रख आयी थी

पढ़कर ज्यों मन - मोहक टोना ॥१२॥

देखा नल ने मुड़कर चलते,

वह काम - कला रस की बाला ज्यों अंग - अंग' से छलक रहा

यौवन की मदिरा का प्याला ॥१३॥

उरु-यूग लगते थे वसन - बीच पग - चालन मे मन्थर गति से दो लहरें काम - सरोवर मे-- करती क्रीड़ा उठ चल रति सें॥१४॥

नागिन - सी चोटी बल खाती

नव विकसित भरे नितम्बों पर मधु - भरे कलश यूग हल सकें

लेती संभाल निज अंगो पर॥१५॥

जघनोरु भरित कल कसमस में--

ज्यों काम लहरियाँ खेल रही, वक्षस्थल से कटि की लघृता--

लख सहज मिलाती मेल रही ॥१६॥।

नव राग - भाव से दो पग चल कुछ सोच-समझ कर रुक जाती फिर लाज - भरी आशा लेकर आगे चलती, कुछ झूक जाती ॥१७॥।

२७

श्द

स्वप्न-सग

पहुँची जब आले के समीप

तब हिचक वहाँ कुछ मन्द हुई क्षण भर वह व्रीड़ा की क्रीड़ा--

अन्तर - निकुज में बन्द हुई ॥१८॥

सुमनों का दोना कर लेकर--

फेरी उसने चितवन बाँकी। होकर निहाल नल ने पायी

सुन्दरता की अनुपम झाॉँकी ॥१९॥

आती - सी जब वह जान पड़ी नल के अन्तर का तार हिला, ज्यों मधुर राग की धारा में-- उर प्रेम - गीत का सार मिला ॥२०॥

घीरे -धीरे बढ आने में--

आकर्षण था मोहक गति का, ज्यों मृत्तिमान मधु से मिलने

आती कोमल पुष्पित लतिका ॥२१॥

लज्जा - सुन्दरता की कीड़ा--

चलने फिर लगी .वहाँ मिलकर ब्रीड़ा-युत मृदु मुस्कान लिये

वह प्रेम - भाव में रही सिहर ॥२२॥

मोहकता का जादू पढ़ती ज्यों देव - लोक की परी चली उसकी भोली नत चितवन से--

ज्यों सिद्धिलता की कली खिली ॥२३॥

हंस-कलाधर

आकर समीप कुछ रुकी वहाँ कर में शुचि लिये सुमन-माला। घन - अन्तराल में शशि - समीप ज्यों खड़ी हुई विद्य्‌ त-बाला ॥२४॥

माला शुचि नल के गले डाल

कुछ क्षण नत-मस्तक खड़ी हुई ज्यों शशि-समीय घन - श्री-बाला

प्रेम-सुधा - हित अड़ी हुई ॥२५॥।

पहले जेसा सुन पाया था

मृदू मधुर रूप दमयन्ती का, सचम्‌च नल ने वेसा देखा

ज्यों काम-रचित तन मस्ती का ॥२६॥

अपनी सुन्दरता भी नल को

सपने में मोहक लगी आज अन्तर - गति की सुन्दरता वह

मोहक भावो में रही राज ॥२७॥

अपने भावों कौ रचना ही

सपने के जग में रही झाँक, मानव - मन की सुन्दरता को--

जग मे सकता है कौन ऑकक ? ।॥।२८॥

नव काम - कला से विरचित तन नल को आमभासित था होता।

वह रूप - रूप में अवगाहन पर स्वप्न - भाव का था गोता ॥२६॥

२६

३०

स्बप्न-सर्गं

दमयन्ती का ही मिलन जान

नल - उर में जागी प्रेम-कला। अभिलाष-राग के संगम पर

आशा का सुन्दर दीप जला ॥३०॥।

चरणों पर सुमन चढ़ाने को नत हुई सहमती - सी बाला। तब नींद खुली, सब रंग भंग आशा का लुढक पड़ा प्याला॥३१॥

“अपने चरणों पर जो आयी

वह सुन्दरता मुड़ गयी किधर ?” आहत-उर नल क्षण चौंक उठा

लेकर उसास ताका ऊपर ॥३२॥।

आया बाहर उसने देखा, राकेश विहंतता अम्बर में। कुछ समय देखता रहा उसे फिर बोल उठा आकुल स्वर में ॥३३॥

“शशि, तारक-सज्जित अम्बर में-

वितरित करते हो रूप-सुधा, पर मेरी झोली में आया

वह क्षण भर में क्यो हुआ मुधा ? ॥३४॥

नीरव अम्बर के किस पथ से--

वह आयी थी मेरे समीप, फिर किस पथ से वह गयी कहाँ,

यह मुझे बता दे, गगन - दीप ! ॥३५॥

हंस-कलाधर

गहरे अम्बर में आसन तब

तू देख रहा है नभ अनन्त। बह प्यारी छवि उड़ गयी किधर

रे, मुझे बता दे आदि - अन्त ॥३६॥

जगती का ध्यान रजनी को

क्या जाने कौन अधीर कहाँ? निज सुख - विलास में भूली वह

फिर लख सकी प्र-पीर जहाँ ॥३७॥।

दशि ! रजनी पहुँची तव समीप

लेकर निज यौवन का प्याला अधरालिगन कर पीने को

जग पर तम का परदा डाला ॥३८।

आशामय अडज्चल नीलाम्बर

तारक - भुषित सब अंग सुभग साती रजनी के साथ विहंस

बेसुध क्रीड़ा करते हो जग ॥३९॥

माना निश्ञचि रुप-गविता है मृदू इन्दीवर - सी गातवती पर वह तो थी राजीव - रंग विद्युत - बाला - सी रूपवती ४०॥

इसलिये जलन निशि के मन में

मुझको देती कुछ पता नही। यदि पूछ पड़ा शशि, उससे तो

क्या बतला देगी धता नहीं ? ४१।

३१

३२

स्वप्न-सग्ग

शशि, तेरी मोहक हंसी आज

इस समय मुझे जंच रही नहीं तेरी शोभा की कीत्ति बड़ी,

उसमें करुणा बच रही नहीं। ४२॥

जग - अंधकार में भुल गया

यदि नर जीवन की अभय राह बतलाने में मानवता है

उसके जीवन से कौन दाह ? ॥४३॥

क्या पथ अब मेरे जीवन का, कुछ बात समझ में आन रही। अम्बर अनन्त भी मौन हुआ

आशा कोई पथ पा रही ॥४४॥

कुछ पक्षी रात्रि - बिहारी अब

करते बिहार है यत्र - तत्र | उल्लू को कच - कच ब्री लगी सिर हिला डाटते उन्हें पत्र।।४५॥

गल-बॉँही डाले तरू - समीप

लतिकायें भी अब सुप्त पड़ी अज्ञात विकसिती” कलियाँ भी तम की माया में ग्रुप्त पड़ी ॥४६॥।

कुहरे की चादर डाल प्रक्ृति

पहरे पर कर उलूक सोयी। वह धूर्त्त व्यर्थ कुच - कुच करता

हंस-कलाधर ३३

निशिचर - पंछी चादर में घुस

मनमानी करते लूट - पाट सपने की निधि भी ले भागे

मम खुला देख अन्तर - कपाट ॥४८॥

सपने के वे मणिदीप सभय

भागे ज्यों तम के पार हुए जिनसे सुरूप. वह निखर पड़ा

किन नयनों के आधार हुए ? ॥४६॥

हे, विश्व - देव, अन्‍्तर्यामी

तेरी माया चलती जग में क्यों रूप मोहमय दिखलाया

मैं भूल गया उस जगरमग में ॥५०॥।

नल श्ञान्त हुआ उर - कसक लिये

भावों की मोहक उलझन से अच्छा लगा, पायां उदास--

अपने को अपने जीवन से ॥५१॥

अम्बर - वाणी सुत्र पड़ी उसे,

“रे नल होता क्यो यों उदास ? पायेगा चाहा रूप - प्रेम

बुझ जायेगी तव हृदय - प्यास ॥५२॥

संस्कार - रचित अपने मन का--- देखा तूने सुन्दर सपना फल लगा नियति की डाली में,

नटवर अपनी जग - लीला से-- सुख -दु के दृश्य दिखा देता हर रूप उसी के नत्त से-- अवसर पर आकर बन रहता ॥|श४॥

तेरे जीवन में सुखद रूप आयेगा अति मोहक बनकर | विषयों में भूल खो देना

जीवन की पावन प्रेम - डगर ॥४५५॥

नर रूप- ताल उर बाँध रहा ममता की अपनी बाहों से, धर रूप - भाव रुकता कहीं विषयों की मादक चाहो से ॥५६॥

चाहों का पूर्ण समपंण जब प्रिय पात्र हेतु मन से होता, उसका ही सचमच हो पाता

शुति प्रेम - सरोवर में गोता ॥५७॥

वासना - भरे मन से पहले तन - भोग भले ही बने राह, पर पावन प्रेम - सहजता से

मिट जाती उसकी छिपी चाह ॥४५८॥

जय

हँस-कलाधर

वप्रिय से अपने कुछ पाने की--

इच्छा कही कुछ रह जाती, सब अकथनीय वह प्रेम - ज्योति

अन्तर में सहज उतर प्राती॥५९५॥

यह प्रश्न नहीं, उर की आशा प्रिय - पीत्र किसे निज चुन पाती, हर लहर स्वयं थिर होने पर प्रिय उदधि सहज ही हो जाती ॥६०३॥

कर्मों की लीला अबसर पर लेकर फल - भोग उतर आती, मोहक अहृश्ट की छाया में

जन का सत्कार स्वयं करती ॥६१॥

तेरी प्रिय चाह सफल होगी

मत चिन्ता का ले भूल नाम उद्योग - भाग्य दोनो मिलकर

जीवन में करते पूर्ण काम ॥६२॥

यो कह नभ - वाणी शान्‍्त हुई, नल विस्मय में यों बोल उठा हे, देव ! कौन तू कानों में-- वाणी का अमृत घोल उठा ॥६३॥

३५

आशीव॑चन पहले पाया

अधपित कर सका भाव-सुमन साभार तुम्हारे चरणों पर--

मैं करता हूँ शतवार नमन ! ॥६४॥”

विश्वास लिए वापस आया

पाया ज्यों सफल स्वप्न खोया। आशा अपनी फलवती जान

नल भाव - मग्न होकर सोया ॥६५॥

थ् ९८ १६१/ ०८ (३2: (६ “६

हे शा मं

उपबन - सर्ग

पावन प्रभात का समय रहा

ऊषा पूरब में झाँक रही। यौवत की लाली में अनुपम

निज तन की शोभा आऑँक रही ॥१॥

आकर सुदूर से मलयानिल

शींतल सुगन्ध ले मन्द-मन्द, सबको जीवन - संबल देता

होकर भी स्वाभाविक स्व-छन्द ॥२॥।

व्यायाम - लाभ - हित राजा नल

उपवन में अपने टहल रहा, विकसित सुमनों के मेला में

निज स्वप्न सोच कर विकल रहा ॥।३॥

देखा तब कोमल कलियों का

किसलय में छिपकर हिल जाना, मदमाती सजी तितलियों का--

मधुमय सुमनों से मिल जाना ॥४॥।

बेसुध गुन - गुना करने वाले मधु - पागल भ्रमरों को देखा; जो मोहक कलियों के विकास-- में दूँ७ रहे जीवन - रेखा ॥५॥

श्प

उपवन-सग

पत्ते कुछ श्रीफज ढकते थे

नीचे आतें कुछ खस - खस कर देखा नल ने--कर परस झोर

वह पवन बढ़ा आगे हँसकर ॥६॥

देखा, कुछ कदली - स्तम्भों में --

दो सुधर स्तम्भ थे सटे हुए परिधान हरित - से पत्र उन्हें

हिल - हिल ढंकने पर जूठे हुए ॥७॥

पुष्पित निकुज के पास वही

वह फ्दक कपोती विहर रही। पाकर कपोत का प्रिय चुम्बन

भावों में भूली सिहर रही ॥४५॥

कुछ आगे बढ़ने पर देखा

अति पुष्पित तरुवर कोविदार, जिसकी मन - मोहक डाली पर

वह मोर विलस करता विहार ॥९॥

थिर हो मयूरिनी चोंच उठा

आहट लेती मयूर-मन की, वह भी अपने मृदु पंख फुरा

नव रीति सिखाता चुम्बन की ॥१०॥

दोनो सिहरन भर बोल मधुर

वाणी का संयम कर लेते, निज नपी -तुली मृद बोली से

उपवन में भी रस भर देते॥११॥

फिर मृदुल भाव से चोच मिला

वह ॒मुग्ध शिखी माया रचता। क्षण मौन भाव के इचज़्ित से--

प्रस्ताव गुप्त ज्यों था रखता ॥8२॥

देखा नल सुघर कलापी का परिरम्भ-सहित मधुमय विहार, फ्ले तरू कोविदार पर ज्यों मधुता-वसन्‍्त - खगरूप प्यार ॥१३॥

नल के उर कोमल सरस भाव

धीरे-धीरे अब जाग उठे, ज्यों हृदय - तार के बजते ही

मोहक अनेक नव राग उठे ॥१४॥

मुड़ दक्षिण दिशा - ओर देखा सेमल तरु पुष्पित लाल - लाल ऊषा से होड़ मिलाने को ज्यो सज्जित उसकी डाल-डाल ॥१५॥

मुहंबन्द कली सेमल की लख

तोते भावों से भर जाते कुछ मधुर ठिठोली करने को

उड़-उड़ कर इधर-उधर जाते। १६॥

कुछ देख-ताक विषयी तोते

कलियों तक उड़ चपपट जाते, सुनकर कागों की कॉव - काँव

लज्जित होकर कुछ हट जाते ॥१७॥ जो चोंच मारते कलियों पर

कई ए7।

उनका श्रम होता अर्थे-हीन : कर से सुन्दरता छते जो वैसे ही होते श्री - विहीन ।१०॥

मृदु भाव जगे उर अवचनीय

वाणी की गति भी बन्द हुई, नयनों में छाथी मादकता

पेरों की गति भी मन्द हुई॥१९॥

पहुँचा नल सहजन-तरु - समीप

देखा फूला जो खेत रंग, जिसके नीचे भृग - भृगी युगल

कुछ अकन उठे कर नींद भंग ॥२०॥

नल लता-ओट से छिफ देखा

मृगग ले अंगड़ाई कड़ा हुआ, खुर से पलकें निज खुजला कर

निज आर्खे स्वस्थ कर खड़ा हुआ ॥२१॥

दुम हिला मृगी अंगड़ाई ले--

मृग - तन पर पलक मल लेती। फिर सरस भाव से ताक सिहर

ग्देन पर गर्दन घर देती॥ररा

मृग - नयनों को उपमान जान

कुछ समय रहा उनको लखता। आखों का पानी इनको दे

सुन्दरी गयी, ऐसा लगता ॥२३॥

हँस-कलाधर रु

नल प्रकट हुआ, तब चौंक चपल

कर कान खड़ा लख नर आगे, मखमली मृदुल घासों पर से

मुग भर छलॉग डर कर भागे ॥२४॥

संग दूर चौकडी भरते ही--

जाते सब्रेग हरियाली पर, ज्यों क्षितिज- ओर ऊषा-वन में

जाते हो चरने लाली पर ॥॥२५॥

समुग - ऊपर नभ से खग अनेक

उड चले साथ उर भर उमंग माला -सी रच उड़ते नभ हें

रवि - अभिनन्दन-हित सुमन रंग ॥२६॥

प्राची की ओर नभग जाते

अति विनय - भाव से हपित-मन ऊषा-तमीप तह - डाली से---

पाने को पावन प्रिफदर्णन ॥।२७॥

नल ने चढ टीले से देखा,

प्राची की अनुपम लाली थी, अब वृक्ष - राजियो से ऊपर

बढती ऊषा मतवाली थी ॥२८॥

तरु-रा जि-रागमय अज्चल से--

तब शानन्‍्त बाल रवि उदित हुआ सात्विक सुन्दरता देख सहज

नल का अन्तर अति मुदित हुआ ॥२६॥

पा

उस ज्योति-हप नारायण को--

नल माथ झूंका कर नमस्कार, शुभ अकथनीय शोभा-श्री वह

रुक लगा निरखने बार-बार ॥३०।॥

स्वर्णाण. पंखयुत उडती-्सी

पूरब बगुलो की पॉति चली, रवि के स्वागत में रची हुई

चम्पक माला की भाँति भली ॥३१॥

पुष्पित मधुमय तर - शिखरों पर

लेने पहुँचँ खग मधुर धूम, मादक कलरव॑ में करते थे

ज्यों दिनमणि-वन्दन विविध रूप ॥३२।॥

मंजरित आम्र-तरु - डोली से--

मतवाली कोयल बोल पड़ी, पंचम स्वर से दोलित होकर

मानस की लहरी डोल पड़ी ॥३३॥

कुन्दन-रंग-रंजित प्राची में--

तरु - अन्तराल' से पार हुई उस पार विचरती भृग-माला--

तक स्वर-लहरी तत्काल गई ॥३४॥।

मूंग मधुर राग के अनुरागी कर श्रवण सजग ताके ऊपर क्षण भर अपने को भूल गये

सुन राग-प्रसारित सुन्दर स्वर ॥३५॥

हस-कलाधर

झूरमूट पर बगुलों का वह दल

निज पंख खोल क्षण व्यस्त हुआ 4 लहराती-सी स्वर - लहरी सुत

उर-व्यथा भूलकर मस्त हुआ ॥३ ६॥॥

विकसित सुमनों की जगमग मैं--

सज्जित भू पर किरणें पड़तीं। नल सोचा--स्वणिम आभा में--

इस थल बाला कंसी लगती ? ॥३७॥

क्या श्यामा उसको बुला रही--

अपने मोहक पचम स्वर से ? कोमल किरणों की डोर पकड़

क्या आकर उतरेगी फिर से ? ॥३८॥

तितलो- से बहुरगी पर ले किरणों पर चढ़ यदि जाती, क्या गयन नोंघ कर आने का-- आशय इह्यामा से कह पाती ? ॥३६॥

संवाद-विषयय का चिन्तन कर

राजा नल का मन सिहर पड़ा। स्लण भाव-श्वास के स्वागत में--

ज्यों वक्षस्थल कुछ उभर पड़ा ॥४०॥

चल पड़ा वहाँ से आगे को विश्वास मात्र आधार लिये। कुछ बोझिल-से पग पड़ते को

यौवन का भारी भार लिये ।॥७४१॥

डरे

उपवन-सर्ग

उपवन का दिव्य सरोवर भी

आगे दिखलायी देता था, अपनी नैसगिक शोभा से--

मन आकर्षित कर लेता था ॥४२॥

नव -बेलि - अवलियाँ. सुमनमयी दो पुष्कर - तट तक जाती थी। अति पावन सुपथ - किनारो से-- ज्यों स्वर्ग - राह बतलाती थी ॥४२३२॥

सूरपति - सा चलता नल शोभमित;

स्वागत में ले ज्यों सुमन - माल अप्सरियाँ शोभित पाँति सजा

परिधान पहन हरिताभ - लाल ॥४४॥

बूलबूल - दल था क्रीड़ा करता भय - रहित बेलियों पर चढ़कर नाना परियों को शोभा ज्यो--

इंगित करता उड़ इधर - उधर ।॥।४५॥

नूप तट - निकुंज के पास पहुँच

लख शोभा आत्म - विभोर हुआ शुत्ति इ्याम नीर, विकसित पंकज,

मादक जल-खग - कलरोर हुआ ॥४६॥

गुन -गुत करते अलि मधुग्राही

विकसित सुमनों तक जाते। कुछ बन्द रातभर जीवित बच

उड़ भग फिर नव जीवन पाते ।।|४७॥|

हम-कलाधर

नव सज्जित सुधर तितलियों की--

सुमनों पर छटा निराली थी कोमल पाँखो की छाया में--

खिलती पराग की लाली थी ॥४८॥।

चकई - दल नाना युग्मों में-- निशि - व्यथा भूल मिल विहर रहा पर - विलसित जल-उर-कम्पन पर निज प्रेम - कला में निखर रहा ।॥।४६॥

कुछ यूग्म देख प्रतिबिम्ब चौक

जल - कम्पन से उड़ चल देते। जाकर तट पर फिर शान्त बेंठ

प्रातः की मधुर धूप लेते ॥५०॥

तट पर वह चकई एक रही

पर फूुरा अद्धेतन - नग्न हुई, चकवे के सिर पर पंख डाल

मादक भावों में मग्न हुई ॥५१।

रस से भर जाती चड्चू मिला,

फिर मृदु पखों की वह सिहरन, स्वगिक सुषमा के सर - तट ज्यों

रति - काम सहज खगरूप मिलन ॥५२।

बह चली हवा मतवाली कुछ

सरसी - उर कम्पन हो आया। कोमल - कम्पित लहरों - समान

नल का कोमल उर लहराया ॥५३॥

डर,

४६

उपवन-सर्ग

तितली के पर झकझोर लिपट

भ्रमरो से राग मधुर लेकर, कलियों का चुम्बन ले समीर

राजा से मिल बढ़ता सत्वर ॥।५४।॥

ध्यानी बगुले का ध्यान भंग

होते नृूप ने जल में देखा। मृदु सुमन -शरों से बचने का

किसमें है कोन कहाँ लेखा ? ॥५५॥

क्षण रस - लीला से सारस ने

मादक ध्वनि में क्या बोल दिया ? चौकी कुररी कुछ दूर भगी

क्षण नृपति-ध्यान निज ओर किया ॥५६॥

प्राती - नभ मे वह दीख पड़ी

क्या अंशु चड़ी आती बाला ? सखियो के संग बाला रही

आती वह सजी हुंंस - माला ॥५७॥

उस पार गगन पे ह्वामराल

आते उड़ स्वषप्निल माया से, जागरण - लोक अब छान रहे

होकर विरक्‍्त भ्रम - छाया से ॥५५॥

शुचि सुधर सुनहले पखों को--

वे एक साथ थे हिला रहे; ज्यों सरस जलाशय-क्रीडा-हित

नभ को सुषमा को बुला रहे ॥५९॥

हस-कलाधर

जलगत क्रीडा - हित हंस आज

सर सरस जान उस ओर मुड़ विषयी खग डर फर - फर भागे

मिल कई झृण्ड नभ - ओर उड़े ॥६०॥

निरबल। खग त्याग सरोवर सब

उड़ भाग चले नभ त्याग मही, अवगुण जेस भगने लगते

उर दिव्य गुणों के आते ही ।६१॥

आये तड़ाग - तट हंस उतर

चमकीले अपने पंख साध। कोमल किरणें खगरूप सजी

ज्यों उतर रही हो पंक्ति बाँध ॥६२॥

नल अपने मन में सोच रहा

कितने इनके ये सुन्दर पर शोभा जेसे मराल - दल में--

पंखों के स्वर में रही विचर ॥६३॥

फिर विकच कंजयुत पानी में--

वे क्रीड़़ारा हो उतर पड़ो। शम्पा - सुमनो के घन - वन ज्यों

शशि के शिशु क्रीडित विखर पड़े ॥६४

कुछ आगे चल उसने देखा

पंखों का सुन्दर स्वर्ण - रंग। जगमग - जगमग उनकी शोभा

लखकर मन में रहा गया दग॥।६५॥

४७छ

उपवन-सर्ग

वह श्रान्‍्त पैंरयिक - सा हंस एक

रह गया धूप लेता तट पर। फैलाकर पर फडकार मौन

अँगडाई लेता सिहर - सिहर ॥६६।॥।

मजूल मोहक पर हिला-डुला

वह चब्चु-लकम्य अंग सहलाता, फिर मोड पैर पर सिरपर धर

विधाम - हेतु मन बहलाता ॥६७॥।

अपनी मस्ती में पीछे से-- आते मानव को लख सका नल ने धीरे से पकड़ लिया उड़ने का श्रम निष्फल उसका ॥६८॥।

कुछ क्षण सयत्व छटपटा और

निज उञ्चु चला ध्वनि बोल चिकर फिर दीन - भाव से हो निराश

गति - हीन हुआ वह चिन्तापर ॥६६॥।

आहत-सा स्वर सुनकर साथी

तज नीर-सतह कर ध्वनि फर-फर निज बोली में फटकार चले

ज्यों राजा को कहते तस्कर |।७०॥

जेंसे जगमग श्री उड़ भागी

सर से अनेक खग-रुप बना। प्रतिबिम्ब रुप आसन शतदल,

ज्यों उचित उन्हे नीचे धेंसना ॥७१।॥

उपवन-सर्गे है है

सभ - पथ से चक्कर बार - बार वे लगे काटने मंडराकर। फिर सर - समीप तरुवर - ऊपर बेठ गये सब मूड़-पूड़ कर ॥७२॥

थादप - शिखाग्र पर हंस - पाँति

सकरुण आँखों से निरख रही। हा! मित्र विवेकी विछड़ रहा,

वह सभा सोचती बिलख रही ॥७३॥

देखा राजा ने हंस सेमल--

मानव बोली में बोल रहा। वाणी विवेक से भरी हुई

आँखों का भाव अलोल रहा ॥७४॥

“देखा तडाग - तट पर तुझको

उम्ड वसन्‍्त के वेभव में, कुसुमित लतिका की छाया में

मधुमय खग - दल के कलरब में ॥७४॥

स्यामा - स्वर जब कलरव बटोर

कर चला पार तर - सिर - रेखा ऊपर सारस - दल में विचलन--

लख भाव - मग्नतुझको देखा ।।७६।

जाना, है कोई महापुरुष

प्रेमी सात्विक सुन्दरता करा, छविभयी प्रकृति की लीला में--

यह ग्राहक दिव्य सरसता का ॥७७॥

0

हस-कलाधर

मन्दिर के गुरु घंटों की ध्वनि--

टकरा कर विटप - राजियो से--- अम्बर - पथ. से ऊपर चलकर

टकरायी हस - साथियों से ॥छ८।॥

मादक विचलन से पंख हिला

साथी मेरे रहे इधर, उस समय छदो के दोलन में--

तू मिला रहा भावों का स्वर ।७९॥

फिर वीणा-ध्वनि से लिपट पास--

तेरे वह शंख - नाद पहुँचा क्षण आँख बन्द कर ध्यान किया

तब तुझे ईश का भाव जंँँचा ॥८०॥

समझा मैने यह भक्त सुजन

कठ्चन से इससे राग नहीं। ऐसे नर से भय खाने की--

तब कहाँ हृदय में बात रही ? ॥5१।' देखा मैने बाजाहत हो--

जब गिरा परेवा था शभुपर टहनी पर रुदन परेई का--

सुन, देख हुआ तू करुणापर ॥5८२॥

सन्ध्य को अपने नीड़-पास

किस भाँति अकेली जायेगी ? चारा - हित बच्चे झीोकेंगे

तो व्यथा मात्र दशयेगी॥छडे।।

उपवन-सर्ग ४६

शायद तूने यह बात सोच

खग - देह हाथ से सहलायी. उसकी रक्षा की पूर्ण युक्ति

उपवन - माली को बतलायी ॥5४॥

समझा मैंने, यह देव - पुरुष

कोई उपवन में है आया. जिसकी करुणा की चितवन से--

उपवन यह कुसुमित हो पाया ॥5५॥|

उलटी कठमुगदर - जोडी - सो

जाँघो की सुन्दर सुद्दरर गठन चौडा मोढा, छाती विशाल

मुशकों में जोयेपर्ण. एटडन ॥55६॥

कटि उर आपयत मृगराज सह॒ण

गति उसको भी लज्जित करती मुख पर वसन्‍्त की श्री छाबी

हर अंग में ज्यों शोभा भरतो ॥८53!'

ऐसा तव अनुपम रूप देख

समझा यहा कोई जार नहष्टी, नल जान उतर आये हृम सास

क्या हम नहीं था ठार कही ? ॥द्ध८

रे नूप, तेरा वह कपट आर

यह व्याध - भाव में लापएन व! कसी यह कपट - भरी लीला ?

सचमृच मैं तुझे परख ने सके क5

नशे

हंस-कलाघधर

सुत्त एक मात्र निज जननी का,

उसकी आँखों का मैं तारा क्या पता उसे मैं फेँसा यहाँ

अआखेटक राजा नल द्वारा ॥६०॥

बत्सलता के प्रिय भावों से--

सन्ध्या को पथ जब देखेगी, आती सुदूर से हंस - पाँति

कितनी आशा से परखेगी ? ॥।६१ |

मित्रो का दल जब पहुँचेगा केसे उसको घीरज होगा ? कट्‌ू उलझन में क्षण कथन हाय ! दूख का अन्तिम स्वर भर देगा ॥६२॥॥

गिरती आँसू की बूँदों के--

दर्शन - हित बूँदों का मेला-- जब होगा, साथी पायेंगे

वह दुनिवार बेदन - वेला ॥६३॥

भोले बच्चों को नीड़ छोड़

हा! प्रिया दौड़ती आयेगी। सबकी आँखें तब सजल देख

हँसी मे मुझे पायेगी ॥६४॥

हा ! उसके उर की उलझन में--

जिज्ञासा का कटु स्वर होगा। माता का करुण विलाप प्रहइन--

का उत्तर उसे स्वयं देगा ॥६५॥

उपवन-सर्ग

वह हृदय थामकर बोलेगी

“हा ! प्रियतम, क्यों, किस ओर चला ? असमय की ऐसी वेला में--

क्यों तू मेरा संग छीड़ चला” ॥६६॥।

साथी समझा घर जायेंगे

निशि में उदास वह वन होगा फिर भेट गले में गला डाल

दोनो का साथ रुदन होगा ॥६७॥

वेदना - भरी उस कुहकन से--

तरू - पत्ती में होगा कम्पन चन्द्रिका - छिटी रजनी में रव

होगा ऋक्रदनमय सनन-सनन' ॥॥६५॥।

पत्तों के अन्तराल से जब

शशि-किरणें उन तक पहुँचेगी, तब एक दूसरे के मुहँ पर

दुख - भाव देख क्‍या सोचेंगी ? ॥॥६६९६॥

किरणों से लिपट अश्रु-ब्‌ दे

ढुलकेंगी उनकी आँखों से। चौंधी में एक दूसरे के--

आंसू पोछेंगी पाँखों से॥१००॥

रोती - रोती जब भू पर गिर मम प्रिया कहेगी 'हाय ! कन्त !! तब शरगत भोली सती-सदुश हा ! उप्चका होगा तलफ अन्त १०१॥

#

हंस-कलाधर

माता भी संभल पायेगी

लख पुत्र-बधू की गत लीला। गिरकर देखेगी आँखों से--

नराश्यपूर्ण. नीला - पीला ॥१०२॥

सर्वस्व॒ गवॉकर. जीने का--

अनुभव वह क्षण भर कर लेगी, फिर जरजर तन अवनी पर तज

सुर-पुर का पथ वह धर लेगी ॥१०३॥

रजनी में किसी भाँति रहकर

प्रात! जब शावक जागेंगे, पाकर कुलाय मे हमें नहों

आशा से बाहर श्वकगे ॥१०४॥

मुह खोले अपनी चोंच उठा च-चू” कर हमें पायंगे। हा ! भोले दिनभर क्षुधित पड़ असहाय. तलफ मर जायेगे ॥१०५॥

फल-मूल आदि मुनि-सम भोजन

आना - जाना पथ अम्बर से। अपकार कही तन से हुआ,

थोड़ी ही बोली कल स्वर से ॥१०६॥

वन-उपवन शानत सरोवर मैं--

हम जहाँ पहुँचते साथ सकल, भावुक जन भाव-मग्न॒ होते

लोलूप हो जाते देख विकल ||१०७।।

उपवन-सर्ग

नूप,, तेरे कोषाग़ार हेतु

इन पंखो मे. कितना सोना ? जितना रस स्वाणिम भावों में

उतना कही पाकर होना ॥१०८॥।

मै ने तो अपनी बात कही

तू कर जो चाहे मन तेरा” इतना कह. सजकजनेत्र पक्षी

नत-चड्म्चु उधर से महेँ फेरा ॥१०९॥

सुन बात भूप की आँखों में-- झलके जो आंसू कोने से, अब टपक पड़, मोती लडियॉ-- करती मिलाप ज्यो सोने से ॥|११०॥

सुरपति होता भयभीत सदा

लख तेज-भरी जिन आँखों को, उनसे गिर करुणा की बूँदे

शीतल करती खग-पाँखो को ॥१११॥

“पक्षी, तू सफल पारखी है

पर सरल - हृदय अति ही भोजा सोन्दर्य मात्र ही लखने को--

पकड़ा तुझको, नूप नल बोला ॥११२॥

“आ रही उड़ी जब हस-पॉति

नभ-सुषमा पास बुलाती - सी, रवि - किरणों से कर लहाडेह

मादकता में बल खाती - सी ॥११३॥

शैई

हस-कलाधर

वीणा-स्वर-सयुत घटा - ध्वनि

हसो से जाकर टकरायी। मन्दिर की टनन - टनन ऊपर

ध्वनि हनन-हनन कर छितरायी ॥११४।॥

आहट ले वन्दन - वाद्य - साथ

पखो का चलता मुदु दोलन, उनके उन मोड़ों में बेसुध

किरणो का होता था नत्तंव ॥११५॥

उस समय परो की शोभा-श्री

नीले अम्बर मे खिलती - सी, उमड़ पावस के घन मे ज्यों--

बिजली की कलियाँ हिलती-सी ॥|११६॥

उस स्वाणिम श्री से ही मानो उपवन की कलियाँ विहेस रही किरण पराग का रूप बदल-- अलि-चुम्बन-रस में विलस रही ॥११७॥

कल मादक ऐसे पंखों को--

मैं देख सक्‌ू, यह हुई चाह। करगत करने के लिये तुझे

पकड़ी मैं ने यह कपट - राह ११८॥

देखा, पर तब बेसे ही हैं

बालारुण - कर से रचे हुए, दशशिगत इठलाती शोभा ज्यों

लेकर अवनी पर बचे हुए ॥११९॥

उपवन-सर्ग

इसलिये तुझे धर लिया, विहग ! उर अन्य कोई भाव रहा। लो, छोड़ दिया, जा सकते हो इच्छानुसार मन करे जहाँ'॥॥१२०।॥॥

तन शिथिल, भाव-सुख-साश्ष-नयन

खग॒ बेंठा जाकर डाली पर ऑसू से भीगे पंख फुरा

फड़कार रहा वह सिहर-सिह ॥१२ १॥

कर से पर का जो अंश दबा

निज चड्चु चला समसार किया। नृप-ओर वदत कर फिर सभाव

मानवता का गुरु - भार लिया ॥१२२॥

साथी खग चक्कर काट चकित उस पादफ पर आसीन हुए। उस दया -मूत्ति नर - पुगव कै-- शुति दर्श - भाव में लीन हुए ॥१२३॥

आनन्द - भरी आँखों से फिर--

सबकी जल -बूद ढुरक पड़ी कुछ निराधार, कुछ पत्तों से--

टकरा अवनी पर खरक पड़ों ॥१२४,।

शशि-ओर सुधन में घन - शावक्र

कोमुदीकलित ज्यों सरस रहे निशि-पति-प्रेमी प्यारे चक्रोर--

को दिव्य सुधा - रस बरस रहे ॥१२५॥

्छ

प्र्८

हंस-कलाधर

राजा किचित हट जा बेठा

मुदू माधविका की कुज- छाँह गुजित मिलिन्द-रव खग - कूजित

आता सुमंद मधु -गंध - वाह ॥।१२६। फुलचुहियाँ फूदक-फ्दरक विकसित--

फूलों से आकर लिपट रही मधु - पगी तितलियों को भ्रमवश

चल सुमन जान ढिग रपट रहीं ॥|१२७॥।

फिर हंस भूष के निकट पहुंच,

कर बोल उठा मुद्रा गँभीर, “उपकार - भाव तन-योग्यः समझ

आया समीप है, दया - वीर | १२८॥

वन दिवस फूल से फूल मिला समता की तृषा शान्त होगी।

मुदु हास लिये निशि - वेला में गशि-समता-भार कौन लेगी ? ॥१२६।॥

विकसित वसन्‍्त की श्री में भी वह कणिकार मन मार रहा वबामांगी के पग नूपुर का-- रुनझुन-ध्वनि-समय विचार रहा ॥१३०॥

कुछ समय बाद खिलने वाली

वह अमलतास की नत डाली, शंगार लिये सजने वाली

मृदू बाहु - टेक - हित मतवाली ॥१३१॥।

उप वन-सर्गं

सोन्द्य - भार लेकर बाला

उपवन में घूम थकित होगी उस डाली पर भ्रुजमूल ठेक

तरु - शोभा देख चकित होगी ॥१३२।॥।

जब कुसुमित अमलतास - नीचे -- होगी तेरे संग रूपवती, रति उसे देख लज्जित होगी जेसे छने से लाजवती ॥१३३॥।

फूलों में भी सिहरन होगी नूपुर के मोहक वादन सें।

मादक विकास उनका होगा मधु-भाव-भरी-सी कम्पन से ॥१३४७॥

बेसुध मधूक तरु कूच खड़े निज लाज - वसन खोने वाले

रसवन्ती की रस - क्रीड़ा से-- रस लेकर ज्यों चूने वाले ॥१३५॥

उसके उपवन में आते ही

सुषमा उमड़ंगी विकसित हो बहुरंगोीं सुमन -सरोवर ज्यों

शोभा बिखेर दे लहरित हो ॥१३६॥ मुद्ु हास-पूर्ण चल चितवन से

खजञ्जन सलाज भगने वाले

नाधपिका सुधर लख लज्जित शुक्र आपस - में ही लड़ने वाले ॥१३७॥

“8

६०

हस-कलाधघर

सहकार डालियाँ बाला से--

ले विनय - भाव झूकने वाली। रस - भरी प्रेम-युत बोली भी--

छिपकर कोयल सुनने वाली ॥१३५॥

उर-अज्चल की मृदू खिसकन लख

किसलय में कलियाँ छिप जाती नयनों का वह उनन्‍मीलन लख

मधुकरी सकुचती शर्माती ॥१३९॥

सब अंग मनोहर अपने में

यौवन का मदिर उभार लिये, धरती पर जेंसे आयी वह

स्वगिक सुषमा का सार लिये ॥१४०॥

तन में अनंग की अँगड़ाई

आकर जंसे कुछ कह जाती, भावो की पाकर सुघराई

मोहकता का नव स्वर भरती ॥१४१॥

ऐसी वह बाला दमयन्‍्ती

भूपाल भीम को एक सुता, जिसके प्रताप यश से डर कर

भागी विदर्भ की नर - पशुता ॥१४२॥

नूप भीम प्रजा - पालक दयालु

अति धीर साहसी कमं-वीर। जन - रक्षा - रव जीवन उसका

शुचि शान्ति-समथेक धर्मं-वोर ॥१४३॥।

उपवन-सर्ग

ऐसे राजा की वह कन्या

शुचि ब्यवहारों में पली हुई तन - शोभा मन की ही अजुकृति

ज्यों शंगारों से इली हुई।॥१४४॥।

जैसे निशि में शशि होने पर

चन्द्रका विलस करती न्संन वेसे ही उससे राजमहल--

में होगा कान्ति - कला - बर्तन ॥१४५॥

अँग-चालन-छवि नव ज्योति लिये वातायन से कर चकानोघ निशि - बेला में ऐसी होगी होती जंसे घन -बीच कौघ ॥१४६।।

मणि-रत्न - खचित दोवारों में--

उसकी छवि प्रतिबिम्बित शोगी शत बालाये तब सेवा में--

मिल एक साथ सज्जित होंगी ॥१४३॥

सहसा तू समझ ने पायेगा

किस रमणी का सेवा-भाोगी, नूपुर - रव ही बतलाने में--

होगा अवसर पर सहयोगी ॥१४८॥।

सब अंग - मनोहर दमयन्ती--

के गुण सुख के आधार बने सहचरी रूप में पा उसको

साकार बने सुख के सपने ॥१४६॥

द्रे

हुस-कला धर

उसकी सुन्दरता की छाया--

में सुन्दरतम की राह मिले, भावी पथ के अवसर पर भी

उसके जीवन से छॉह मिले ॥॥१५०॥

सुन्दरता से सहृदयता का--

जिसके जीवन में सफल मेल, वासना साधना बन जाती

जीवन बन जाता सहज खेल | १५१॥

इसलिये हुई यह अभिलाषा,

उससे हो तेरा गठ-बन्धन वह बन्धन जो बन्धन छोड़

हो सुन्दरता - पथ सार - मिलन १५१ तेरी सम्मति यदि पा जाऊेँ

चल पड़ सदल मै आज अभी, उतरूें उपवन में जहाँ नित्य

आती सखियों - संग. वेदर्भी ॥|११३॥

नृूप समझ गया, अम्बर - वाणी--

पुरी करने यह आया खग। आशा को पावन धारा में--

गोता ले मन बह चला उमग १५४॥।

मन समझ, संभल नल बोल उठा खग, तेरी अभिलाषा अमोल। बातें हैं तेरी सुधा - भरी रख दिया मित्र, निज हृदय खोल १५५॥।

कि ३६] कि

उपवन-सर्ग

कौतृहूलवश जब चित्रकार

मम मोद - हेतु चित्रित करता सउ्स सहज सुन्दरी की शोभा--

से सचमुच वह विस्मित करता ॥१५६॥

चित्रित करता नर एक साथ

रच बास भाग में रूपवती तो विहेंस चित्र मम रच देता

नीचे लिखता 'नल-दमयन्‍ती' | १५७॥।

गुण - सुन्दरता में अनुपम वह

वन्दीजन गाकर बतलाते, सेवा - हित मेरे पिता - पास

प्राय, विदर्भमे से जो आते ॥१५८।॥

छुविगान - कला में गायकजन

रमणीय रूप. चित्रित करते; धरती पर संभव रूप वह

दमयन्ती में इंगित करते ॥१५६९॥

सुन्दरता ही यदि झरूप धरे

मोहकता की मुद्र॒ माया से कथतासुसार उनके वह भी

अति लघ॒ उसकी उस काया से ॥१६०॥

दर्पण - मंडित ले चित्र एक

माता -ढिग आयी थी दूत्ती। दे गयी, उसे देखा मैं ने, सचमुच वह सुषमा की युवती १६१॥

६४

हँस-क्रनाधर

कल ही की तो यह बात रही

आये कुछ देश - श्रमणकारी : उनकी चर्चा से जान पडी

वैदर्भी की तननशथ्री न्यारी॥१६२॥

मेरी इच्छा के पहले ही सहमत है मेरे सब परिजन हे, देव - विहग ! अम्बरगामी, कर सकते हो तुम अभी गमन ॥१६३॥

इच्छानुसार॒ वन - उपवन में

फल मूल आदि भोजन कर लो अम्बर - पथ. शुभ सज्जित करते

आगे समुचित निज पथ धर लो ॥१६४।॥ मानूगा तेरी बात सदा

तू मेरे जीवन का दशक

ऐसा ज्ञानी साथी पाकर जीवन - पथ. होगा आकर्षक ॥१६५॥

हंस-गयन सर्ग

शजा के चारो ओर समृद

मंडराकर चक्कर बार-बार-- खग॑ रहे लगा, ज्यों जगमग-जग

आरती. दिव्य, दोयोपचार ॥१॥

राजा सप्रेम था निरख रहा

हैसों को अनुपम वन्दन-विधि | ऋलरबवंपत कुछ पर-व्वनि हर-हर

लख मिली उसे ज्यों नन्‍्दन-निधि ॥२॥

फिर एक ओर से सिमट सभी उड़ चले गगन-पथ छिंतरा कर, नीले अम्बर में पीत रंग तारक-बूटी-सी फहर-फहर ।॥। ३॥।

छितरा-छितरा फिर सिमट-सिमट

कलध्यनि में करते मधुर रोर, नभ की आननन्‍्द-लहरियों में--

ज्यों लहरित मरती में विभोर ॥४॥

नूप खड्झा देखता रहा उन्हें

वपचाप मोह उद्गार लिये, अपलक आँखों से लगातार

आशा का उर आधार किये ॥९५॥

श्द्‌

हस-कलाधर

घर समाचार-हित उनमें से--

उत्तर - नभ उड़ दो हंस चले ज्यों सघे काम-धनु-सुमन-वाण

दो निबुक चले नभ-बीच भले ॥६ |

मृडकर विदर्भ को शेष चले ज्यों काम-शरासन से सध कर वह कौन कामिनी इस जग मे घायल करे जिसका अन्तर ॥७॥

उड़ चले दूर नभ पंख हिला

कुछ-कुछ आभारसित हो पाते, ज्यों गगन-राह से गुरुपद पर

शुभ भाव-सुमन चढ़ने जाते ॥८॥

राजा की आँखों से ओझल

हो गया तुरत ही दल-मराल, अन्तर पर अदभुत आशामय

जादू के मोहक भाव डाल ।९॥

द्वः

नृूप. आथा उपवन-ह्वार और

चल दिया तुरत हो रथारूढ़। देवा जन-हित निज राज-काज

पर हृदय समस्या रही गढ़ ॥१०॥

सब काम यथाविधि हुए किन्तु

समन विकल कहीं लग सका नहीं उर प्रेम-पिपासा जगी सहज,

पर शान्ति-भाव भग चला कहीं ॥११।

हँस-गमन सगे

नभ से मराल-दल चला दिव्य

पंथ-श्री. लगती आनन्दमयी दमयन्ती से संवाद-कला--

की मधुर कल्पना जगी नयी ॥१२॥

देखा दल ने मधूक-तरुपर चह-चह' करते खेग रस-विभोर नभ पर ध्वनि सुन फ्रकार उड़ मतवाली मधु की डाल झोर ॥१३॥

संचय करती सुन्दरियों पर

मादक मधूक टप-टप गिरते, रस का चुम्बक ज्यों उनमे पा

डाली तज उनसे जा मिलते ॥१४॥

झयामा की मादक कक निकल--

जो पहुँच विपिन के छोर रही, स्वर की मद धारा में सबको--

जो एक साथ ही बोर रही ॥१५॥

आगे चलती पर-ध्वनियों के--

पीछे वह ध्वनि फिर जा सकी 'हर-हर मराल-पर-ध्वनि से डर

कोयल डाली पर दबक रुकी ॥१६॥

अनुकरण-लीन बालक भोले कोयल का स्वर फिर पा सके॥ मिलती आहट से भाव तोड़

कप जी

नभ-ओर ताक मच में चौके ॥१७॥।

६७9

द्द

हंस-कलाधर

स्बणिम हसों का वह ताँता अम्बर को अति शोभित करता सुषमा का जादू डाल चपल अपनी गति से आगे बढ़ता ॥१५॥ आखेटक जो मृग-दल-पीछे करते पीछा ले धनुष-बाण, सब लगे देखने नभ खग-दल मूंग भगे दूर, पा गये बत्राण॥१९॥

सर में कीड़ारत वालाये

प्र-ध्वनि सुन॒ ताकी गगन-ओर दर्शन-बाधक निज बिखरे कच

पीछे झट करती थी बटोर ॥२०॥

जल-भीगी आखों से फिर भी

सुषमा खग-दल की लक्ष सकी तंट-ओर चली ले श्िलिष्ट वसन

अधनंगी लज्जा-भार झुको ॥२१॥ कर शुष्क वसन ले आँखें मल

ताकोी अम्बर में जब विदह्धल, तब तक सुन्दर दल हंसो का--

हो गया हगों से भी ओझल ॥२२॥ बेठे मेंडों पर कृषक रहे--

लहराती लगी बालियाँ लख, सस्ती के गायन बन्द किये

नभ दल-मराल-सौन्दयं निरख ॥२३॥

हंस-गमन सर्ग

उनके गानो की टीप मधुर

जो पहुँच ताल के छोर रही, ऊपर भी मस्ती में उमड़ी

वह पहुच गगन की ओर रही ॥२४॥

सहसा वह दीप सहमती-्सी

कुन्दनमय पंखो से लिपटी। क्षण कृषक जनों की आँखों मे--

उड़ती नभ-थोभा नहीं अँटो ॥२४५॥

गानों की मादक ठटीप और लेकर संग में जन-कोलाहल, हो गये हुंस सब क्षण में ही-- तृष्ण दे उनसे भी ओझल ॥२६॥

भोले किसान कुछ हार-बीच

थे भुन रहे जूटकर होराह, घन सम उमड़े-से धृम्र-बीच--

से चले हस घर गगन-राह ॥२७॥ जगमग हंसों की छटा दिव्प

तब दीख पड़ी नभ में अनूप | ज्यों अम्बुधि-मन्थन वाष्प-वीच--

से प्रकटित श्री बहु नभूग-रूप ॥२५॥ धुएं सुद्र ऊपर जाकर

हो जाते अम्वर में विलीन: जग की नश्वरता सूचित कर

मिटते नभ में हो रूप-हीन ॥२९॥

६६

0

हस-कला|धर

श्रीयुत हुंसों का दल सुन्दर चल पड़ा सहज गति में चन्चल, पूचितः कर क्षणभंगुर वेभव

क्षण-बाद हुआ वह भी ओझल ॥|३० |

अगसार सजीले उपवन में--

मन म्‌ृदित युवतियों का था दन | पुष्पित निकूृजः में क्रीडारत

कल-कुसुम-कुन्तला सुख-विद्वल ॥!३ १॥ कुछ ले, विकसित पाटल प्रसन

केशों को अपने सजा रहीं नव ज्ञात-यौवना उनमें कुछ

लख इधर-उधर अति लजा रहीं। १२।

हर-हर' अम्बर में पर-ध्वनि सुन

निकलीं वें सब ऊपर ताकी। ऐसी गति में उड़ चले हस,

पा सकी एक ही बस झाँकी। ३३॥

तज कूज अकेली आहत-उर

प्रोषित-पतिका उस काल चली, मिज विखरे कच इलथ वसनो को-

क्षण भर रुक तनिक संभाल चती ॥३४॥ धर वह खग-दर्शन फा सकी

बाहर चुप खडी निराश हुई, ख़ग-तआी-वर्ण सखियों से सुन

मिज भाग्य विचार उदास हुई॥३५॥

हस-गमल सर्ग

ताकी जब मुख निज ऊपर कर

इ्यामा अबला कर आश भेंग, छाया नयनो में इयाम गगन

पर कल्पित खग-दल स्वर्ण रंग ॥३६॥

तर-पॉति-सबन छाया में जो-- जा रहे पिथिक धर सरल राह, जा खुले ठाव झट देख सके फिर भी मन में रह गयी चाह ॥३७॥

झूरमुट पर बेठे वक ध्पानी

लव हस-राह नभ उड़ भागे। तरुनीचे मृंग जो ऊंष रहे

कर श्रवण सजग उठकर जागे॥ 5॥

इस भांति चले सब देव-हंस

पथ में निज कॉतृहल भरते, भावुक जन बारक निरख उन्हें

फिर दर्शन का प्रयास करते ॥३६॥

आगे वन का वह हृश्य जहाँ

नाना खग-मभृुग थे टहल रहे, निश्ेर-समीप से जल पीकर

अपने दल में कुछ विहर रहे ॥४०॥

अम्बर पर रव सुन नाहर भी--

कुछ दूर तमक कर गरज पड़ा, मुत्र ऊपर कर दल-हस निरख्‌

वह हुआ सजग कर करज कड़ा ॥४१॥

७९

(७२

हस-कलाधर

भागे छलाँग भर हरिण उधर

जा रही जिधर नभ' हस-पाँति | ऊपर मराल, मुृग-दल नीचे

घावित सव्वेग प्रतिविम्ब-भॉौति ॥७४२॥

वन-छोर पहुँच सरपत-समीप' मुग-दल अदृश्य हो गया चपल' | उस पार सघन तरु-राजि नॉँघ नेत्रो से हुए नभग ओझंल ॥४३॥

दिन का वह पहर तीसरा था,

जब आया पवव॑त कऋक्षबाण | डालों के पादप"शिखरो से

फर-फर खग करते उड़ प्रयाण' ॥४४।॥ ढुनमूंन चलते गिरि-ढालो से--

वे भेड-बकरियों के थे दल, क्षण ऊपर रव तब अकन चकित

भोले अति जीव हुए चडुूचल ॥४५॥

गिरि-वन की उस हरियाली के--

ऊपर से क्षण भर खग-उड्डन, ज्यों नत्त न-वश वन-कणिकार--

के सुमन उड़ चले आसमान ॥५६॥

मथुमास-मिल्रितः गिरि-वैभव में--

छाया नव भाव मधुरिगा का। चुपचाप खड़ा वह ऑक रहा

विश्तार सहज निज गरिमा का ॥४७॥

हँस-गमन सर्गे ७३

बेसुध नत्त नरत मतवाले--

कुसुमित तरु-नीचे रहे मोर। आीं दिरख मदित अति मोरनियाँ,

बे चौंक पड़ी सुब वभग्र-रोर ।&5॥

#+5

पुष्पित डालो को चबिलसित कर

देखा तो नभ में हंस कहाँ? जबिषयों में रास रमाने पर फिर कहाँ दरस का भाग्य रहा ? ॥४९॥

बत्तलाकार रत्र पंक्ति हंस

भूधर - ऊपर से हो चलते, कर-रजित शथ्ूगों के समीप

ज्यों गले बीच माला बनते ॥५०॥

नमंदा नंदी का पुलिन भाग

प्रमृदित प्रतिविम्ब निहार रहा, मधु-सज्जित विटप-वेलियो से--

प्या था नव खझ्ूगार नहा ॥५१॥

सरिता में पक्षी कर नहान

ले रहे पंप तरूडालो पर चरवाहे रेबड साथ लिये

गायन करते थे ढालों पर ॥५२॥

बगुला-दल तक आनन्दित था कर रहा श्रवण उन गानों का | हो गये विहग सब अस्त-व्यस्त क्षण पता नही उन तानों का ॥५३॥

ज्रड

हेस-कलाधर

रुक कर चरवाहे निरख रहे

हसों-युत अस्बर को ओभा॥ ज्यों महा नीलमणिन्परदे पर

खग-रूप चली. विद्य त-शोभा ।॥५४॥

दर्शन कर सके वहाँ अनुपम

भोले चरवाहे. निर्मल-मन | कृत्त व्य-निष्ठ. सत्प्रेमी ._ को

सन्‍तों के जेसे प्रिय दर्शन ५५॥

सरिता-तट पर जल पीकर फिर

दल-विचरण में जो रहे मस्त, ध्वनि से आतंकित मृंग भोले

भग चले भभर अब अस्त-व्यस्त ॥५६

खगः मज्जन-पान-निरत जो थे

फ्र-फ्र उड़ धरते आसमान वह प्यास बुझा जो बोला, अब--

सरपत ढिग तोतर धावमान ॥५७॥

मिल खेल रहे थे लुका-छिपी

बूलबुल-दल कुछ गझ्लोर तरू पर, लावा-दल-जेसे वे भी मिल--

उड़ भागे, धरे पुलिन-अम्बर ॥५५८॥

जोड़ों मे चकवे जल-विहार

कर नाप रहे रस-ओर-छोर, चोके वे भी, तज नीर-सतह

उड़ चले चकित-मन पुलिन-ओर ॥५९॥

हँस-गमन से छ्प्र

जल-पान परेवा जो करके

कर रहा परेई से सलाह यह भी चौंका, तज भूमि-सतह

क्षण समझ आयी गगन-राह ॥६०॥॥

पशु-नर-माया से दूर विहग

जल पर लहरों-सेंग लहराते। जलशायी के शुभ दर्शन कर

आये हों, ऐसा दर्शाते ॥६१॥।

ऐसे वे भावक जल-पक्षी

उड़ चले, संग प्रतिबिम्ब-पाथ, जा दूर स्रवन्ती-धुंध-बीच

आँखों से ओझल एक साथ ॥६२॥

नभगत रव सुनकर चला भाग

मछरंग घातरत सज शिकार | कररी-देला कुरर कुर कव्ता

विचलित पेदल पकड़ा कगार ॥६३॥ कर स्नान काम थे जूठे हुए

रेती पर अपने मेला में। कुछ ध्यान मश्न थे झुरमुट पर

दिन की उस हलती वेला में ॥६४॥ नत बाँस-शिखा पर झूल रहे

टहनी पर कुछ पा रहे ठाँव रेती-अपर से मंडरा कर

कर रहे भ्रमित कुछ काँव-काँव' ॥६५॥

हेंस-कलाधर

पुरा मेला वह चौके पड़ा

आरव पाकर तब अम्बर पर कुहराम मचाकर रोर-सहित

बायस-इल विचलित इधर-उधर ॥६९॥

हंसों का दल सिर-ऊपर लख

कृपटी बायस उड चले भभ्रः सदगुरु के सार-पदों से ज्यों

उर के कुभाव भगते सत्वर ॥६७।४

साधक त्यागी अभ्यास-लीन कुटिया-बाहर अब रहे टहल, देखी खग-श्री, पर मोह-रहित सात्विक निसर्ग-शोभा-विह्लल ॥॥६५॥

घाती तस्कर सुवर्ण-लोभी--

लख कर ललचायी आँखों से-- पा सके मात्र अन्तर-पीड़ा”

नतभगत उन सुन्दर पाँखों से ॥६६॥ रस-सिद्ध उदार प्रक्ृति-प्रमी

थे टहल रहे निज दल में उन, भूले प्रपंच सौन्दर्य निरख

हो भावमग्न ज्यों तज गति-मन ||७०॥

लोभी पर-श्रम-फल के वनचर

मधुछ्ते पर करके प्रहार, उभड़ी उन कद्ध मक्खियों के--

कम्बल ओढ़े सह रहे वार ॥७१॥

हंस-गमन सर्ग

ऐसे वे प्राणी क्या जानें

कसी हंसों की सुन्दरता, पर-पीडक लोभी की आँखों--

को शुचि सुषमा का कहाँ पता ? ॥७२॥

सूखे तरूु पर वह काट रहा--

डाली कर ले टॉगी किरात ध्वनि पंखों से जा टकराती

कर बार-बार गुरु गगन बात ॥।७३॥

देखा उस अश्रम-प्रेमी ने रुक

हसों की छटा निराली थी। कर्मानन्दी के ऊपर ज्यों--

खग-रूप तुष्टि मतवाली थी ॥७४॥

कायर आखेटक दवक भगे

सुन सिह-गरज भर वलायास। जाकर सुद्र मृग भ्रमित मार

दिखलाते खल-बल का प्रयास |॥७५॥

घाती वे लखकर गगनन्‍-दृश्य

हो गये तुरत प।नी-पानी अपने जीवन पा पर-पीडक

हंसों के जीवन रस-दानी ॥७६॥

हंसी की झॉाँकी से प्राणी

पाते सुख-दुख मोहित होते, उर के गुण - संस्कार-बल से--

जिनके ज॑से जीवन - गोते ॥७७॥

393

पद

हंस-कलाधर

आगे वह नदी विदर्भा थी शुचि शान्तिपूर्ण उसका प्रवाह, श्री पुर तक जाती सरिता-सी धर पावन जीवन-दिव्य राह ।॥७८॥

पथ-श्रम खोने का कर विचार

तरु पर विहग-दल उतर ग्रया आकर विदर्भ की सीमा में--

पाया ज्यों जीवन-लोक नया ॥७६॥!

सरिता के यूगल कगारों पर

तर शान्‍्त खड़ ज्यों ध्यान-मग्न कुछ सुमन-पललवों से शोभित

कुछ वबेरागी से अरद्धंनग्न ॥5०॥)

नाना पक्षी कलरव करते

अति रग-विरंग. छंदो वाले, मुदु बोली से मन हर लेते

तेसगिक गान-पदों वाले ॥52॥ आते व्यापारी प्राल लगा

अति दूर्देश से लिये नाव उनकी वंशी की तानों से--

खग-दल को भी मिल रहे भाव | ८5२॥।

संगीतपूर्ण नौका - विहार,

वह युवा-युक्‍तियों का था दल तरणी के हिलने से कम्पित

प्रतिबिम्ब-हप कोमल चंचल ॥5३॥।॥

हंस-गमन सर्मे

आलिगन का मृद्ुभाव सहज--

ऊपर मनगत जो रह जाता प्रतिबिम्ब-रूप जल-हलकन से--

जल में वह सचमृच बन पाता ॥८४॥

जल भरने का वह समय जान

आकर समीप के गावों से, भोली ललनायें जल भरती

वेला के भोले भावों से ॥5५॥

गागर की कोमल हलकन से

चलती लहरें. इठलातीन्सी, दूरागत वंशी-ध्वनि सुनकर

जल-मस्ती ज्यों बल खाती-सी ॥5८५६॥

देखा हंसों ने दृद्य दिव्य

श्रम खोकर फिर जलपान किया, होकर थिर नभ में श्री भरते

कुण्डिनपुर को प्रस्थान किया ॥|८७॥

देखा वह राज्य मनोरम था

सदभाव-भरे सब कार्य-लीन सोन्दय-प्रेममथ.. मिले. हृश्य

जन-जन प्रसनन-मन व्यथा-हीन ।।८८।।

वन-उपवन के थे भले हृश्य

खग समृद फूदक कलरब करते सरमसीरुह-सजे सरोवर थे

कलह जहाँ निज स्वर भरते ॥८६९॥

५3 &

प््फ

हंस-कलाधर

सब चकित देख इनकी शोभा, स्वणिम हसों का जोड़ कहाँ ? तन-मन पर-हित रखने वाले

पावन हसो से होड़ कहाँ ? ॥|६०॥।

॥00० पशििलकिआ

खेतों मे लगे किसान रहे

मन में प्रसन्‍न, पर देह लस्त, सन्ध्या-रवि-किरणों पर चढ ज्यों

उड़ते मराल, लख हुए मस्त ॥६१॥

के कि

देवी सन्ध्या के कर चढ़ ज्यों कोमल पंखो को हिला रहे, इ्यामल-पिगल श्री में तिरते दिखलाते पर की कला रहें ॥६२॥।

जन-मन में कोतृहल भरते

उड़ चले निरन्तर हंस गगन। सवंत्र सुनहरी जगमग की--

माया कही उनको बन्धचन ॥₹३॥।

वरदा की वह पावन धारा

आगे दिखलायी देती थी, जिसके तट पर कुण्डिन पुर की--

शोभा मन को हर लेती थी।।६४॥ नोौकायें निज भोली गति से--

करती पथिको को आस्-यपार | तरु-वीरुध शान्त निरखते थे

रस-लीन शान्‍्त रस के कगार ।!६४५॥

हैँ स-गमन से

यावन लहरीली धारा थी

विलसित तमाल, वानीर तीर, कोकिल - स्वर-घारा से भावित

जिनपर क्रीड़त खगय मत्त कौर ।।६६॥

दल उतर गया तट-तरुवर पर ज्यों घन पर हंस-रूप शब्वंपा॥$ था उपवन शोभित करने को सुमनों से लसित कनक चम्पा ॥६७॥

पादप से खंग उस नगर-कोट--

की शोभा संकुशल निरख सके | राजा का महल कनकनसज्जित

मणि-खचित रम्य अति परख सके ॥६ ८॥

कुन्दन के कलित कगूरों पर--

सन्ध्या की मिलकर किरण-कला ऐसी लगती ज्यों नाच रही

घन त्याग सजी जझ्गम्ग चपला ॥६७९॥

ऐपेसी आभा के ऊहपर शुभ--

लहर ते केतु. स्वाभिमानी, सौन्दर्यमवी वैभव वाली

नगरी का दर्शाते पानी ॥१००॥ रचना विचित्र अति भाँति-भाँति,

लख दुर्ग-राजि जी में आया, पादप-शोभित शुचि राज-मार्ग--

से सचमृच स्वगें उतर पाया ॥१०१५॥

द्व्‌

हस-कऋलाधर

सन्ध्या-श्री-यूक्त झरोखो से--

सुन्दरियाँ लखती बगल झाँक, आरव आहट कुछ समन्न-वृझ्

रह-रह कर म्‌ ह-पट रही ढॉक ॥१०२॥

चपला-अभ्रम से क्षण भ्रमित और--

फिर क्षण में रमणी-रूप जान, परियो का नगर उतर आया

हँतों को ऐसा हुआ भान ॥१०र॥

छता पर क्रोडारत बालाये--

नव योवन का मुद्रु भार लिये, करती थी हास-विनोद मृदित

तन पर समुचित श्षुगार किये १०४८॥ वह प्रमदा उनके बीच खड़ी

संचालन करती क्रीड़ा का। सुन्दरता के भुद्ु भावों में--

फिर भी संयम था ब्रीड़ा का ॥१०५॥ डोरी पतंग की रही खीच

भुजमूल उठा कोमल कर से, योवत की मदिरा रही खीच

घीरे-धीरे ज्यों अम्बर से॥१०६॥

कुच के प्यालों में भरती-सी

कर-डोर धरे उर तान खडी भर चुकी नितम्बों के घट मे--

मु पहले से ही, जान पड़ी ॥१०७॥

हंस-गमन सर्गे घ्डे

भादक चितवन से सुलझ रहो

किरणों की सरस पहेलाबह्सा सुकुमार करों से स्पर्श-लाभ--

कर कनक-रग में खेली-सी ॥|१०८५॥।

घहू तो दमयन्ती रही नहीं

पर उसकी ही वह आली थी वालाओं के सेंग खेल रही मीहक तन य्रोवन वाली थी ॥१०६॥

उपवन-वेला अंब समर्न हृदय

दल उतर गया उन ललियों का। दमयमन्ती के सेंग जाने का+-

लख समय-विहार आलियों का १०॥

बालक दल में निज खेल रहे

क्रीडा-थंल पर. थी चहल-पहल कफ्रीडोचित बसन पहन कीड़ित

तन स्वस्थ, समोद यूुवकर-म॑डल ॥१११।। तीतर-बटेर के युद्ध कही

जन॑-मंने आनन्दित कर देते। भेपो के इन्द - भिड़न्त देख

जन वाह-वाह' ध्वनि भर लेते ॥११२॥ होती घोीड़ों की दौड़ कही

था कही जमा कुर्ती-दंगल नाना अभिनय, संगीत कला

नाना वादन, उत्सव मंगल ॥११३॥

हस-कलाधर

नाना प्रकार के कलाकार

कर देते चकित फ्रद्शन से। जन-जन में मोद उभड़ता था

कुण्डिनपुर के आकष्ंण से॥११४॥

आपण-रचना अति आकर्षक

चौराहों के समुचित क्रम में। संकेत - चित्र - रचना ण्सी

पड़ सके नहीं क्रता श्रम में ॥११५॥

बजरंगी झण्डा लहराता

सेनिक दल के उद्गारों से। रह-रह कर गगन गूंज उठता

“जय जय” स्वदेश के नारों से ॥११६॥

राजा का पुण्य प्रताप देख

उतरी-सी दिव्य पुरी अलका। रमणीय अलौकिक रचना से--

उद्भव होता कौतृहल का।।११७॥

मन में आकर बसने वाली

उस दिव्य नगर की छठा रही। मृदुता-सुन्दरतता निज समेट

कर रही प्रदर्शन वहाँ मही ॥११५॥

वह दीख पड़ी अब बालाओं--

के साथ राजती दमयन्ती पथ-श्री में भी रस भरती-सी

चल पड़ी सुभग-तन-कुलवन्ती ॥११६॥

हंस-गमन सर्म

सन्ध्या की मृदु अरुणाई में अम्बर-तन-योवन फहरित-सा गति-साथ मधुरिमा बल खाती, मन-राग अलक्षित लहरित-सा ॥१२०।।

कोमलतम उर के भावों से--

ज्यों कला-करों की रची हुई दमयन्ती श्री बगरातों भी-

दुगुनी पाती-सी बची हुई ॥१२१॥

मुस्कान-विकीरित भावों से--

सुमनों को नव रसता मिलती यौवन के मधुमय भाव देख

निज समय भूल कलियाँ खिलतीं ॥१२२॥।

किरणों पर चढ़ ज्यों उतरी हो

चल काम-देश से बालायें। सुमनों से पथ कीड़ा रचतों

केशों में गृथी मालाये ॥१२३॥ सनन्‍्ब्या--श्री में मन्थर गति से--

प्रमुदित प्रमदाओं का विहार, मस्कानों से रवि-किरण-कला

रुककर करती अपना सँभार ॥१२४॥ सन्ध्या के शोभा-सागर मे--

आली सुकुमार लहरियों-सी - घन-इन्द्रधनुष में रंजित शुचि--

वसनों से शोभित परियों-सी ॥१२५॥

प्र

हंस-कलाधर

चलती, सुगन्ध सेवन करतीं,

मादक कोयल के मधूर गान, सुनती जाती अलि-वीणा-ध्वनि

स्व॒र-मृर्ध शिखी की मधुर तान ॥१२६)

पहुँची जब उपवन बीच सभी

तव हस उड़ शुभ समय जान पादप पर उतरे धीरे-से

हो सका उनको तनिक भान ॥१२७॥

दमयन्ती-हंस-संबाद सर्य

देखा मराल-दल ने तरु से मधुमास छठा थी उपवन में। गूजन मृदु चंचरीक करते

बिक

सखियों के स्वागत-गायन में | १॥

पट फहरित रंग-विरगे लख-- तितली-दल भरता चजञ्चलता, मानो विकसित बहुरंग सुमन उड-उड़ पड़ते तज प्रेम-लता ।।२॥।

नव विकसित तन पर वसन-रंग--

की समता पंख कर पाते, तब मीठी बोली बोल मोर

डालों पर सकुच सिहर जाते॥।३॥

कम्पित-सा परस समीर हुआ,

मुस्कान-सहित वे खिलती-सी उर पर अम्बर की खिसकन लख

पल्‍लव-ढिग कलियाँ हिलती-सी ॥४॥

कर चपल तनिक परिधान पवन गुदगुदी उठाता कलियो में।

मधु को माया में बेसुध उर उद्गार उमड़ता अलियो में ॥५॥

ण्ण

हँंस-कलाधर

मादक विनोद की मद बोली

रस-भरी सब तक जा पाती, मानो वह केन्द्रीसुत हुईं

इ्यामा के स्वर में जाती ॥६॥

मृद हास विकसते सुमनों को--

मधुसार दिखाता जीवन का। अंग-चालन में गति-सँग मादक

श्रृंगार उमड़ता यौवत का ॥७॥॥

कर में चोटी हो अधघरों तक

स्पर्शासनवश यदि पाती, अलिमालाओं से पंकज-श्री--

मिलने का हाव सिखा जाती ॥5॥

वह चाल मधुर मतवाली लख

यो भाव सहज मन जग जाता, गज-मंद ज्यों लज्जित होकर हो

कनपटो-राह धर भग जाता॥6€॥

आगे वह दिव्य सरोवर था

शोमित सुमनो की माया में। तट पर बालाये खड़ी हुई

कुसुमित तझ॒वर की छाया में ॥१०॥॥

सुर - बालायें ज्यों कल्पवक्ष--

के नीचे पहुँची लसित रूप, वय-सुलभ चपलता कल विनोद,

आमोद-कला अदभुत अनूप ॥१ १॥

दमयन्ती-हँस-से वाद सगे पे

भूख निरख मनोहर कंज सकुच

दिन्त-अन्त समय हो मन्द रहे। नयनों को रचना निरख अमर

लज्जित उनमें ही बन्द रहे १२॥

कोमल लहरे बल खाती थी

अनुकृति में कल कोतृहल की, होती विलीन जा पुलिन - पास

समता में जब प्राती हलकी ॥१३॥

नलयनों में मोहक बॉकपना

उतराकर मीन निरख पाते प्र मेल मिलाना सहज नहीं

लज्जावश जल - अन्दर जाते १४॥

सर-जल पर लहरित कल मराल

लज्जित तज निज बोली सुख्दर | लघ॒ जान मधुरिमा पदन्‍गति की

उड़कर पहुँचे तरु-उच्च शिखर ॥॥१५॥ ऐसी वह बाला दमयन्तो

सखियों-सेंग. शोभा बगराती, सरसी-तट पर कुछ समय रुकी

उपवन-श्री में मन बहलाती ॥१६

वह समय जानकर देव-हुंव

आये नीचे उड़ तज तम्बर; आया अनेक बन हंस - रूप

जेसे स्वणिम जीवन-- अवसर |. 2७।॥।

के

हँस-कलाधर

चौकी सखियाँ कौतृहल से,

“क्या सन्ज्या ही साकार हुई पुंखों की पिगल रचना में

जिज्ञासा को आधार हुई ? १५॥

आकर भुपर फिर छितराकर

चल पड हंस-पग विविध ओर अति निकट प्रदर्शन से अपने

भर दी मत मे मोहक मरोर ॥१६९॥७

हंसों के पीछे अलग-अलग,

सखियाँ सब होकर धावमान चल पड़ी समद कोतवृहल से,

शचि स्वर्ण छदों के विहगय जान ॥।२०॥

बाणी-बाहन गूभ घरती ज्यों

रति कामरूपसी विविध रूप, सम्बन्धी विहग रमा के भो

लगते ज्यों कुन्दममय अनूप ॥२१॥

या समझ गयी हों, चपला ही “वनश्याम-पाइव॑ तज भागी हो, मधुऋतु में निर्भभ विहग- रूप जगमग उपवन में जागी हो ॥२२॥ दमयनन्‍्ती के आगे होकर पग--धावित हंस विशेष चला। बह दृश्य देखकर उपवन में-- पिक के मुख फिर नव स्वर निकला ।२३॥

दमयन्ती-हंस-से वाद से रे

स्वर की मादकता बार-बार

सुन्दर लक्षण बतलाती थी। तन-वाम-अंग. की मृदु फड़कच

अति योग्य समर्थन पाती थी ॥र२४॥

रुक गया कुज को आड़ पहुँच

खण करता शिथिल प्रदर्थेन-श्वा लपकी जब ग्रहण-हेतु बाला

तब हुआ सुमन-मधू-वर्षण-सा ।२५॥

दमयनती के कोमल कर खग

होकर ग्रहीत यों जाबव पडा सणछवि-म्रणालयुत पंकज पर--

चाणी का बाहन आन पडा ॥०६॥,

बोला खग मानव बोली मे

“बाले, तेया शुभ मंगल हो, अनुपम योवत्र सुन्दरता के--

अनुरूप सहायक का बल हो ॥४३।

लेर समान ही सहृदय नर--

को तेरे उर का प्यार भिले। सोन्दय प्रेम के पावन पथ ---

से जीवन का शुभ सार जिले ॥००॥। तुअकोी अनन्य वह प्रेम भिले

जिसमे आशा की रेखा हो, जो कभी मिटने-वाली हो

चाहे जो जीवन-लेखा हो ॥« ८)

ल्‍दई

हस-कलाधर

श्रद्धामय तेरे अन्तर को--

विद्वासपूर्ण आधार मिले, जिसमे शिवता का भाव रहे

ऐसे पति का ख्यगार मिले ।॥।३०॥

शंका तुझको होती होगी

असफल कहीं यह यौवन हो, अभिलषित राग की राह भूल

निस्सार अपना जीवन हो॥३१॥

तन-मन की समता मिल सकी

नो क्‍या फिर यौवन ढोने से, ऐसी चिन्ता उठती होगी

रह-रह अन्तर के कोने से ॥३२॥

तेरी यह चिन्ता हरने को

अति दूर देश से आया हूँ। पाकर तू जिसे निहाल रहे

सन्देश उसी का लाया हूं॥३३॥

नोकी दमयनती सुनकर यह

कोमल तन उसका सिहर उठा। आनन्‍्दपर्ण उर - कम्पन पा

धीरे से अञज्चल फहर उठा ॥३४॥ उमड़ यौवबन-घधन मे आशा

चपला-डोरी-सी चमक उठी। प्रिय बन्धन का संक्रेत लिये

मानस में आकर दमक उठी ॥३४५॥

दमयस्ती-हंस-सवाद सर्गे

कुछ लाज भरी नत चितवन से

देखा दमयनती ने मराल। कितना सुन्दर खग, मुदुभाषी

देता जादू के भाव डाल॥र६॥।

उपकार-भरी बोली इसको,

प्र-हित शुचि श्रम करने वाला आकषंण है ज्यो मूर्तिमान,

सद्गुरुसम भ्रम हरने वाला ॥३७॥|

आया पछी यह जान-बूझ

मेरे हाथों कर शिथिल देह। मन ' में दमयन्ती सोच रही,

जानू, कसा सन्देश-रनेह ॥३5॥

बोली बाला, “शतवार धन्य खग, अपना दे पावन परिचय तेरे प्रयास के पथ पर हो-- क्या चल देगा मेरा निश्चय ? ॥३६९॥

सब भांति सुधर-तन, मृदुभाषी

उपकार भाव का विहग-गत ' उपवन में तू प्रकट हुआ

निखरा तव श्री पाकर वरसास्त ४०॥

तेरा मंगलमय मिलन देख मतवाली कोयल बोल रह मंगल दशनि मृग-माला देखो वह सम्मुख डोल रही ॥४१॥

६४

हुस-कलाधर विकसित सुमनो का यह मेला सूचित करता, मंगल होगा। फलयुत नत डाली बतलाती-- तेरा यह मिलन सफल होगा ॥४२॥

भोली कलिकारयें तत्पर हैं

खिल भरने को कोरक कोना, भौरों के गुन-गुन गायन मैं--

क्या परामर्ण, बतला देना ॥४३॥

प्रतिनिधि तू सभी मंगलों का, तू मृत्तिमान स्वणिम अवसर सदगुरु की तेरी महिमा है आशा-विश्वास पूर्ण तव॒स्व॒र। ४४॥।

अपने मन की अब बात सुना

निर्भभ होकर है, विहग-देव ! किसका ले प्रिय सन्देश चला

अम्बर-गामी, कह सकल भेव ॥४९५॥/

फलों की रागमयी शोभा

लसती उसके मुखमंडल पर। बोली में कोमलता विचार

अलिदल भी हुआ शान्त सत्वर ॥४६।।

सुनने को उत्सुक दमयन्ती,

पावन प्रिय वह सन्देश कौन, इयामा-ध्वनि-गूजित उपवन भी--

क्षण श्रवण-हेतु ज्यों हुआ मौन ॥४७॥)

दमयस्ती-हम-सवाद सर्य

मोहक नृपुररव शान्त हुआ

यह जान पत्र-दल भी अलाल नीरवता की छुवि-छाया में--

वह देव-हंस फिर पढ़ा बोल ॥४:॥!

छवि-श्री-सम्पन्न कला - पूरित

वह निषध देश की है धरती, ऊषा-सन्ध्या सजकर जिसमें

नेंसगिक सन्दरता भरती ॥४५॥

श्गार वहाँ. साकार ब्रकद़

कल्पित जो कवबिजन-भावा मं। करने को दिव्य नगर-दर्शन

उतरा दिव उसके गावा में ॥५०]॥॥

रवि ज्ञान-कला, शशि प्रेम-कला --

उस धरती पर बगश जाता। भरकर शुचि करम्म-कला अपनी

नित अग्निदेव भी कल वाला ॥५*॥ उसका पालक न॒प बवीस्सेन

निज नाम धन्य करने थाजा, पत्नी जिसकी शुभ झरूपबली

जो रूपवती पप्रिकपरम-कला || ७7५ जिनके सुपुत्र अब राजा नल

बल रूप सहज यांवन था): जनुपस सुन्दर तन प्रेम-रूव,

सठुमास सहश जीवन वाव।!४.॥

हस-कला धर

विकसित अगों की सुन्दरता

उमक्‍ड़ी-ली जीवन-ढार लिये ऐसा साथी वह खोज रह

जो मिले प्रेम का सार लिये ॥५७४॥

जिसकी चर्चा युवती-समाज--

में चलकर काम जगा देती। सपनों में भी वह रूप धार

मनमोहक पाठ पढ़ा लेती ॥५४५।'

मानवता पढती शान्ति-पाठ

जिसके चरित्र की छाया मे। जनता की सेवा योग बनी

जिसके जीवन की माया में ॥५६॥

उस राजा नल के शासन में--

धरती पर गान्ति कला भरती। जैसे नभ में राकेशजनित

चन्द्रिका विलस नत्त करती ॥।५७॥

साहस बल जन-प्रिय जीवन के--

अति आकर्षक वर यूग कगार, नरपाल प्रवाहित करता नित

जिसमें करुणा की दिव्य धार ॥५५॥ टंकार धनुष की जिसके सुन

घन गगन भीत कम्पित होता, निज प्रिया चौंकती चपला पर

तब दया-हेतु इगित करता ॥५९॥

दमयन्ती-हंस-संवाद सर्गे 8७

जिसके यौवन से भावित हो

प्रातः उपवन कलियाँ खिलती दिव से धर रूप तितलियों का--

परियाँ नयन् सफल करती ॥६०॥

जिनके शरीर का रूप लिये

सौन्दयं स्वयं साकार हुआ, जैसे. भूले भटके वसन्‍्त--

को वही सहज आधार हुआ। ६१॥

शामा जो उसमे रस भर दे

निज प्रेम-पूर्णं मादक स्थर से, ऐसी है कौन, प्रश्न उठता

नदित जो करे सलये सिर से॥६२॥

यह प्रश्न मात्र सुलझाने को तेरे समीप से आपा

तेरा निरवय बस पाने को-- सल्देश उसी का लाया

8

आप ही अनाभ्नफऊ,

9 नर

४29) लड्ी कि आ।

हिमकाम

दूती से पाया है पहले

उसने तेरा नव चित्र सुघर, सन की तव शुचि कोमलता सुन छवि अंकित वह॒ राजा के उर ॥६४॥

वाले, मै गगन-विहारी खब

होता विहार ऊपर अपना भूल को राह बताने को--

होता नीचे आना>-जाना ॥६४५॥

के

हंस-कलाधर

शंका कही मेरे ऊपर तेरे अन्तर में घर कर ले, में सत्य शापथयुत कहता हूं यह निदचय अपने उर घर ले ॥६६।।

यदि हुआ प्रियवर नल तेरा

तब यौवन - श्री निज ध्यर्थं जान, विधि-कला सोच चिन्तित होगी

अपना विरचित असफल विधान ॥॥६७॥।

सुन्दरता में शिवता रखकर

वह सत्य-मार्ग चलने वाला, नल छोड़ और नरपाल कौन

उर जीवन-रस भरने वाला ? ॥६५॥

जेसी हो तेरी चाह स्वय

वेसी मुझसे बतला देना। मेरा उपदेश मनन कर तब

जैसी इच्छा वेसी करना” ॥६९॥

यह कहकर पछी शान्त हुआ

सन्‍नाटे में उस उपवन के, जैसे जिज्ञासु बने सब चृप,

क्या थे विचार बाला-मन के ॥॥७०॥

विध्वास लिये उर दमयनन्‍्ती

भावों में सकुची सिहर पड़ी। मन का पाकर निज दाँव सफल

भोली सस्नित क्षण रही खड़ी ॥७१।

दमयन्ती-हंस-सं वाद सर्म

उसके पाचन मन-मन्दिर में--

वाणी ज॑से चुपचाप हली आगा की प्रेम-प्रेरणा से

मृदु भाव लिये बाहर विकली ॥७२॥

चोली चाला सकुचाती-सी “खग, कथन तुम्हारे योग्य रहा तेरे जैसे पथ-दर्शक गुरु-- से भ्रम की होती आभथ कहाँ ? ॥७३॥

खगदेव, तुम्हारे यत्नों का--

स्वागत होगा मम्र अन्तर से। सन्देश सहज सम्बल होगा

सुन पाया जो तेरे स्वर से ॥७४॥

नुप. ने जो भाव बसाया है

उर के आशगममय आसन पर, स्वयमेव सहज ज्योतित होगा

कर अमर स्नेह-दीपक लेकर ॥७५॥

8]

इूती लायी वह चित्र यहाँ

तृषप का, तब देखा मैने भी मेरी माँ ने घर लिया निरख

सखियों ने देखा उसे मभी ॥७६॥

बाणी कही कुछ कह पायी,

दझोभा को रचना उस तमब की अन्दर आकर फिर मिट सकी,

ऐसी रेखा अपने मन की ॥७७!॥

९०७

हँस-कलाधर

आशा की भोली दूती ने

अपने मन का उपकार किया। मोहक प्रवाह में बह चले,

रुकने को रूपाधार दिया |॥७५॥|

निश्चय अपने मन-मन्दिर में-- श्रद्धा के विरचित आसन पर--- पूजा होगी उस राजा को

ज्गमग विश्वास-दीप लेकर ॥७९॥।

उन चरणों पर अपित होगे

जितने है अपने भाव-सुमन स्वेस्व॒ समर्पित उनको कर

निर्भभ होगा अपना जीवन ||८०॥।

पथ-दर्शक गुरु, हें, विहंग देव !

इसमें तनिक सन्‍्देह कहीं उपदेश तुम्हारा मिटने पर

रुकने वाली यह देह नहीं ॥5१॥

अपराध क्षमा करना इतना है विहग-राज, इस भोली का। मैं मूल्य चुका कभी सकती तेरी अमृल्य इस बोली का ?” ॥5२।।

कर दिया मुक्त दमयन्ती ने

अपनी कोमल तनन्‍मयता से। आजञ्या-तरणी का नाविक जो

सुधिपाल बना जो ममता से ।5३॥

दमयन्ती-हंस-संवाद सर्गं

अपनी सेवा-विह्लुलता में--

खग भाव-मग्न कुछ सोच रहा भावो की कंसी कोमलता,

सुन्दरता का तन सार, अहा ! ॥5४॥

यौवन की क्रीडा में ब्रीडा--

का कंसा सुन्दर भाव मिला। कोमलता स्मिति में खिलती-सी

मन में शुति प्रेम-विचार पला ॥5८४५॥

उर-शालीनता सहज. एसी

तन के साँचि में ढली हुई सव छविमानों की श्री ले ज्यों

अपने योवन में खिली हुई ॥८९॥

सब अग मनोहर अपने मे--

सकेत कही कुछ करते-से आँखों की भूख मिटाने को

कुछ मौन रूप दम भरते-से ॥|८७॥

बोला बिहग, “शतवार धन्य

पथ दूर पहुँचना है बाले ! उड़ नगर-द्र इस राव आज

पथ-वन में हम रुकने वाले” ॥८८॥

उस समय हॉपती सखियाँ भी

स्वेदिल तन का व्यापार लिये असफल प्रयास कर पहुँची

कंपित उरोज-गुरुभार लिये ॥८५॥

हंस-कलाधर

संकेत. किया दमयन्ती ने

“यह हंस-रूप शुभ गुरू मेरा जिसके कारण इस उपवन में--

स्वणिम पर-हंसों का फेरा”।.8०!

चौकी बालायें नमन-सहित

बोला खग, “सबको धन्यवाद आशानुसार सन्‍्तोष हुआ

जो मिला मुझे यह साधुवाद” ॥६१॥

परिहासा प्रमुदित मन वाली--

आली बोली अवसर पाकर “यौवन-गुरुता मम जीजी की

गुरुवर, कर दे प्रियवर-पथ॒ पर” ॥६२॥

झेपी दमयन्ती मोद-सहित नतमूख विहंसी ज्यो वासन्‍्ती, था यौवन-घन-चपला विहँसी अधघरान्तराल, रस-ज्योतिवती ॥६३॥

आलीगण की मुस्कान मधुर मुख-पंकज-दल से थों निकली, नव राग-विभा सस्मित हो ज्यों

खिलती कलियों में लगी भली। ९४।॥

बोलो परिहासा, “विहग देव !

किस दिव्य देश से आये हो? मेरी आली के लिये देव,

सन्देश कौन-सा लाये हो ?”€५॥

दमयन्ती-हंस-संवाद सगे

दमयन्ती ने संकेत किया

“सखियाँ सब मेरी अन्‍न्तरंग, कौतृहल इनका जान्‍्त करें

मेरा ही इनको समझ अंग ॥६६।॥

दमयप्ती का रुख लख उसने

कोशल से शुभ संकेत किया उस निषध-राज्य का शुभ परिचय

राजा के प्रेम-समेत दिया ॥२७॥

क्षण भर वे समझ निहाल हुई

राजा की प्रेम-भरी गति पर। ममतावश विह्वल सोच पड़ीं

जब आली की मानस-रति पर ॥६५॥

अपने प्रयास पर सोच तनिक

दोड़ी उनपर मोहक रेखा, हंसों का पीछा करने में--

सखियों ने जब असफल देखा ॥९६॥

निज-निज पथ-धावित हुंसों से

आशा विचार सब पड़ीं सिहर। उनके उर कसक मरोर उठी

खेग चले गये पीड़ा देकर ॥१००॥।

“दमयन्ती का पा यत्न पूर्ण

खग भाग्यरूप सन्देश दिया हतयत्ना हम सब बीच रुकीं,

उर व्यर्थ खगो से द्वष लिया” ॥१०१॥

१०३

१९१४

हेस-कलाधर

फिर भी आली का फल विचार

सखियाँ सब प्रमुदित मृुगनयनी-- राजा नल का सम्बन्ध समझ

भूली मोहक पीड़ा अपनी ॥१०२॥

गुरु हंसराज ने सखियों पर

मुदु वाणी का जादू डाला। तेव राजकुमारी ने दे दी

उसको उतार मोती-मभाला ॥१०३॥

परिहासी अनच्तरग आली

“बोली” यह माला सहिदानी, क्वारण नूप इसको हृदय करे

जीजी का बन अन्तर-ठ्यानी ॥१०४॥

अभिलाषा शुभ पूरी होगी

उनकी खगराज, स्वयवर में। आना यहाँ वे धुल सकें,

सुधि देगी यह माला उर में ॥१०५॥

दर्मथन्ती चुप उस समय हुई

स्वीकार-भावतता मन लेकर | “आली ने मन' की बात कही,

क्या होगा कुछ उत्तर देकर” ॥१०६।॥ कुछ झेंप बाहरी झलकी, पर

मुस्कान मधुर मुख पर छायी, पंकज-श्री पर मृदु हास लिये

ज्यों प्रात उषा-लाली आयी ॥१०७॥

दमयन्ती-हँंस-संवाद से १०५ देखा उसने तब सखियों को--

सकृची श्रमरी-सी आँखों से; क्षण भर ढेकते का यास किया

चरूनी की ज्लीनी पाखों से ।॥१०८५॥।

प्रदा का था वह भाव नहां सरसख मतवबाली थी,

योवन--श्री जिसमे झकि पड़ी

/ 8 */

चज्जा वह एक बिराली थी ॥१०१॥

स्वीकार हृदय का होता है

जिसकी शीतल मृदू छाया में, जाली मुख की झोभा प्राती

आशा की अपनी माया में॥११०॥

0३०

गदगद भावों से भावित हो

पूंखो का कुछ आसन डोला। स्वीकार मौन मच पा विहग

आअवसर विचार कर फिर बोला।। १॥

“सहिदानी तो नृप के कर जा अपित होगी सबसे पहले ॥। इस समय यहाँ बदैदर्भी को कुछ कहना हो अंब से कहले ॥११२॥

१2

हंस-कलाधर “खग, कहने को मैं योग्य कहाँ बोली दमयन्ती धीरे-से नय-धारा में स्वीकृति-नौका

विलसी मृदु ध्वनि-लहरो पर से ॥११३॥

रुक राजकुमारी फिर बोली,

“समुचित सुपास इस उपवन में निशि में खग-देव यही रह लें

बल

यह बात रुची मेरे मन में ॥११४॥

बोला खग, “वाले, सोच कर

निर्भभ पथ मेरा है अम्बर। वन-पथ में आज विदर्भा-तट

होगा निवास निशि तरुवर पर ॥:११५॥

कल-कल-ध्वनि-भावित पुलिनों पर

पुलकित तरु फल-फूलों वाले, टूरागत-विहग-वास बनते

नित नेंश गगन की छाया ले ॥११९॥

चन्द्रिका खेलती लहरों से सुन कानो से कोमल निस्‍्वन गुदगुदी उठा बगराती श्री

तरु-पत्रों में भी भर सिहरन ॥११७॥

दमयेन्‍्ती-हंस-सँ वादे सर्ग चल कर हम वहीं वास लेंगे

रजनी कौ संहंज निखार वहाँ सत्संग देव-पक्षी करंते

पाने को जीवनन्सार जहाँ ॥११५॥

बालाओ, सब मिंल घर जाओ

रजंनी का अंब आगमन जान॑, शोभा कर-कलिंता चलीं गयी

अम्बरूगोदी से किये मान ॥११९॥

तथन्तों का जादू बन्द हुआ

किरणों कौ मोहक लाली से, सध्ध्य की शोभा देख उड़

देखो, विहंग तरुू-डाली से ॥१२०॥

देखो, वें गगन*विहारी द्विज

मस्ती का मंँइराना तजंकर, वन-सरिता के उस छोर संभी

जा पहुँचे जहाँ पुलिन*अम्बर ॥१२१॥

प्राची से तम का आना लंख

सन्ध्या मंत्र में भयभीत हुईं बह शीलवती तंज॑ क्षितिज-छोर

लाली समेदश कर चली गंई ॥१२२॥

१0७

हँस-कलाधर दिन का कर अन्तिम प्रेप-मिलन चकवे को कर निज इसी पार, चकवी स्वभावनवश जा पहुँची पीड़ा दे-लेकर उस कमार ॥१२३॥

भोली शभ्रमरी जो राग-पगी

मन भूल गयी तम का आना फेस गयो विवश हो जलज-क्रोड़

अब भूल चुकी 'गुन-गुन' गाना ॥१२४॥

बन-पशु-लीला से भीत, वृषभ-- की ध्वनि से तोषित सुरभी-दल-- ले गॉवि-्पासा गोपाल चले बावित सेंग ढुनमून वत्स चपल ॥१२५॥

मिशि-लीला-दर्शी तारे भी धीरे-धीरे अब झाँक . रहे

शशि-गोदी से चन्द्रका निकल

कब नाचेगी,--क्षण ऑक रहे ॥१२६॥

जल-क्रीड़ा कर निज गागर भर ललनायें कर अति सर उदास, अब समय जान सब जा पहुँची

बालाओ, देखो गॉँव-पास ॥१२७॥

दमयन्ती-हस-संवाद सर्ग १०0९ जल पीकर, सुनकर भूंक हरिण

देखो कगार से दूर भगे, अब दूरी पर धुधले लगते

झुरम्‌ट-झाड़ों के पास लगे॥१२५॥

रुकने का अब है समय नही

आशीष मिले सबको मेरी। चलता हूँ मैं, तुम भी जाओ

निशि-माया अब देगी फेरी” ॥१२९।

चल दिया हंस फिर ऊपर उड़

बालायें नीचे नमित-भाव। श्रद्धा की जीवन-क्रीड़ा में--

ज्यो छोड़ चला विश्वास-दाँव ॥१३०॥

ऊपर हुंसों का फिर संगम सखियों ने अम्बर में देखा। मोहक मरोर की माया में--

तब मचल पड़ी अन्तर-रेखा ॥१३१।

इस भाँति समा के साथ हुआ

नभ-पथ से हंसों का प्रयाण, आहत सुन्दरियों को कर ज्यों

लोपित अनंग के सुमन-वाण ॥१३२॥

११० हँस-कलाधर बमयन्ती सखियों को संग लें उर-कसक लिये धर चली राह करने को निज' साकार भाव मन के परदे पर जगी चाह ॥१३३॥

नस नपनर9>+++>+++«+>«+«+99> «मा

नल-विन्तन सर्य

(१)

दिन भर नल ड्बा चिन्तन में, निशि-वेला में सो सका। तम की माया में आशा का, जलता रहा दीप उसका ।। भावों के मोहक पतंग सब, उस लो में पड़ मर सके। संजीवन-सी एक सूचना, पाने को थे तलफ रुके॥

(२)

कहूे-कहु कर नगर-कोट से, अरुण-चूड़ अब बाँग दिया क्रीड़्ारत लज्जित शशि परिचम, झूरमुट में मु ढाँक लिया ।। “ठाकुर जी, ठाकुर जी सुनकर, भक्त भुजंगा की बानी तारे ठग छिप रहे भाव लख, अम्बर में होकर पानी |

(३)

धीरे-धीरे रही झाँक अब, प्राची-पथ से उजियाली | पीछे ऊषा आने वाली, दर्शाने मुख की लाली॥ आज अभी जग कोयल तह पर, मंगलमय स्वर में बोली आशा की कोमल डाली पर, भाव-सुमन ज्यों पा डोली ||

(४)

वन्दीजन गा रहे प्रभाती, समझ जागरण की वेला। नीद कहाँ नृप-नयन-द्वार पर, पलक-कपाट-मृक्त डेला पर तारों ने केवल पग कर, अन्तर-चिन्तन में देखा एक चित्र सज्जित पाने को, जोड़ रहे जीवन-रेखा ।॥।

१२ हुस-कलाधर

(५) जाना नप ने धीरे-धीरे, नीडो में खग जाग रहे। रजनी के मोहक प्रयाण पर, कहाँ-कहाँ कर काग रहे “'उठो गुट्रगू” मीठी ध्वनि से, जाग परेई भी बोली। उसके प्यारे ने भावित हो, प्रेम-सहित आँखें खोली

(६) नित्य-क्रिया से मुक्त भूप ने, देखा जब बाहर होकर सम्मुख था वह शकुन विहरता, खगी-संग तरु-चोटी पर प्रिया-पंख-छाया में होकर, उषा-ओर नत-माथ हुआ। दिव्य लालिमा-हित शुभ वन्दन, शकुन भूप का साथ हुआ (७) वह मधुमय मध्‌क-तरु आगे, आज, और ही गमक रहा देखा नग्न डालियो से मधु, मदिर भाव से ठपक रहा।' बार-बार कलरव कर पक्षी, रस-लोभी हो निकट रहे। खस पड़ते, पर कुछ रस-पूरित, फल अकुर से लिपट रहे

(८) राजा फिर पहुंचा उपवन में, लक्षण हृदय विचार रहा। वासन्ती की छटा छबीली, युमनों का व्यापार, अहा॥। मधुग्राही श्रमरो का आना, आज ओर ही लगता था। तितली की सतरगी साडी, देख भाव नव जगता था ॥।

(९) प्राची की वह माँग विभूषित, सिन्द्री वह लाली थी। विहग-पंक्ति मोतो-पाला-सी, देती छटा निराली थी॥ नीचे वह सुहाग-विन्दी-सा, रवि का मंडल झलक चला। मंगल मंत्र-हूप कोयल का, फिर मुदु पंचम स्वर निकला

नल-चिन्तत सर्भ ११३ (१०) चुष्पित पादप के शिखांग्र से, चलता कलरव खगग-वन्दन मिलकर देवी का करते ज्यों, प्रेम-भाव से अभिननन्‍दन ।। सबकी मन्नत समय समंझ कर, मानो नृपनहित होती थी प्रकृति सहज संकेतों से निज, आशा को पथ देती थी ॥। (११) माौधविक्रा के उसी कुज में, राजा जाकर बेठ गया। भन॑ की अति खीचातानी में, ज्वर-विकार-सा ऐंठ गया ॥। अगर आया उत्तर मब का, लाज॑ गवाँ मरजा होगा लेकर ऐसी प्रेन-विवद्यता, किस जगे मे रहना होगा ? (१२) अन्तर से निश्चय॑-रेयायें, चलकर चित्र बनाती थो। भीतर बसी अद्दष्ट-तुलिका आभासित्र कर जाती थी॥; बाहर ममता चित्र खोजती, इधर-उधर डगराती-सी सहयोगी साधव पर होकर, कल्पित रंग भर पाती-सी ॥।

(१२) हैसों के आगंमन-भाव से, अन्य भाव हो लुप्त रंहे। आशा की मूंदु शब्या पर हो, विवा-स्वप्न दे सुप्त रहे देखा नृप॑ ने किरणें आयी, अंरुण-राग-प्ती बगंराती। चित्रित करता था मन उनपर--चढ़ी हंसब्माला आती (१४) प्रैम-कथा कहने को नभ॑ में, तत्पर होते यदि स्वर से। पर-दोलन से हमें बुलाते, तो उड़ता अच्तर-पंर से यदि मराल किरणो से आते, मंति पा सहज कामिनी की ! जीवन अपना धन्य समझता, सुधि पा हस-गामितनी की

११४ हंस-कलाघर

(१५) अभिमत समाचार सुनने पर, कोकिल-स्वर पूजित होगा। दक्षिण की इस मृग-माला में, नयनों का इंगित होगा भाव परेई का मिल जाता, कोमल कंपित पांखों में चाष प्रकट मंगल दे जाता, रूप-क्षधा की आँखों में॥ (१६) दिव्य रूपधारी प्यारा खग, क्‍या बाला से मिल सका ? या उसके मन रूप बसा है, अन्य किसी प्रेमी जन का ? या अम्बर में और राह धर, अन्य देश खग भटक चले ? गगन! बता उनपर क्या बीती, किधर कहाँ किस पथ निकले ?

(१७) दूरागत-तृणग्राही हारिल, तरू पर विलसित होते चंगुल-मक्त हंस प्यारे तुम, उलझ कहाँ हो क्या करते ? उड़ने ही वाले धीरज को, कौन रोक देगा संबल क्‌ज-द्वार पर नल प्रलाप कर, नभ-पथ-दर्शी बना विकल ?

(१८) “बाल दिवाकर की कल छवि ने, जिन पंखों को रंग दिया, भाव-तूलिका अपने कर ले, ज्यों शुभ रूप अनंग दिया क्यो मराल वे चढ़ किरणों पर, अब तक यहाँ पहुँचे ? हा ! पड़कर किस मोह-जाल में, कहाँ भटकटे जा पहुँचे ?

(१६) अम्बर-पथ से कितने पक्षी, आते-जाते दीख रहे। प्यारे हंस कहाँ जा भूले, समाचार यह कौन कहे ! किससे पूछ अपने मन की, कौन व्यथा हरने वाला ! कोन पहेली मेरे मन की, आकर हल करने वाला”॥

नल-चिन्तन सरमें

(२०) प्ंम-कल्पित चिन्तन में भूला, अपने तन की सुधि प्यारी अद्ध नीद-व, आँख वन्द फिर, धूमिल चिन्तायें सारी लरक पड़ा तन कुज-सहारे, स्वाभिमान का ध्यान कहाँ ? चिन्तन-भरी प्रतीक्षा सोयी, मानस का आगार जहाँ

(२१) मन की लिये सुनहली आशा, जगमगजग खग-दल आया | राजा को आभास कहाँ था, किस थल कहाँ कौन भाया ? हँसराज ने देखा नप को, जाग उठी सकरुण माया। नर की कैसी गति हो जाती, छूने पर तृष्णा-छाया ?

(२२) क्षण कुछ भूला मोह-जाल नृप, निद्रा के कल अज्चल में कितना मोहक रूप सामने, पर मन नहीं लोक-थल में करारुढ़ सन्देश लिये प्रिय, आता-सा खग-रुप कहाँ ? से भूल कर मन जा पहुँचा, रूप-मुक्ति का द्वार जहाँ

(8) मंजरियों से मिल आती जो, कोकिल-ध्वनि उर झान्त हुई संगल सूचक चित्रावलियाँ, अब अच्तर में श्रान्त हुई क्या जाने नल, अम्बर-बन से कनक-सुमन खग-दल आया। आरव-हीन उतर धीरे से, काम-धनुष लज्जित पाया॥। (२४) गुन-गुन कर गुगगान मधुप जो, सरसी से आनेवाला श्रवण-समीप पहुँच राजा के, उसमें मादक स्वर डाला |। कहता-ता शुभ समाचार नव, मंधुमय नीरज-बदनी का उठ रे तृप, लख पंकज-बेला, भाव कहाँ अब रजनी का

९१६ हंस-कलाधर (२५) शरणदायिनी नीद निराशा, खोकर ही अब भंग हुई। आशा प्रिव्र विश्वास गले लग, यहाँ और ही रंग हुई देख हृश्य सम्मुख का नल अब, जीवन से निज धन्य हुआ हंसराज को गले लगाकर, अन्तर-भाव-अनन्य हुआ (२६) स्वस्थ हुए दोनों स्वभावबश, भुप-हंस की बात चली रागमारुण मानस में प्रात. अभिलाषा की कली खिली “राजन, मंगल से बढ़ मंगल, का हमको कल दृश्य मिला दोनो छोरो से समान ही, मानस का प्रिय प्रेम चला (२७) वीणा सुमनों की उपवन मे, सजी करा के तारों से सधे हुए स्वर सहज निकलते, मधुर मधुप गुजारों से॥ नत्तेंन-सजी तितलियो का मृद्, इपरामा का मोहक गायन, नृपवर! सुनने का यह अवसर, क्यो उदास अब तेरा मन ?॥

(२८) जिसकी छवि मबुमय वसन्‍त को, लज्जित कर देने वाली। उसके ही नाते से पाती, मधुऋतु ज्यों मादक लाली॥ सुमन विकस लज्जित हो जाते, निरख सहज वह सुन्दरता। छविमानों में निज छवि से वह, भरती जंसे मोहकता॥

(२६) विकसित सुमन समझ अलिमाला, वदन-समीप पहुंच जाती। पास पहुँच उस केश-राशि के, अपने को लज्जित पाती॥ हटते अलि, पीछे मुड़ सुनती, उनका स्वर जादू वाला। पाने को सन्देश तुम्हारा, उत्सुक होती वह बाला॥

नल-चिन्तन सर्ग ११७

(३०) तेरी ही मुस्कान सहज वह, ऊषा में प्रतिदिन पाती ' उपवन में उदीचि-नभ-पथ धर, आगत खग-दल से कहती “क्या है कुछ सन्देश बता दो, गगन-विहारी प्रियतम का ऐसी उसकी विह्लता में, चित्र निख्वरता उपवन का॥ (३१) सरवर की कोमल लहरों में पाती प्रेनमयी कम्पन। मीन-कला में नयन-कला नव, पाकर हो जाती उन्मन॥ लखती, भ्रमरी जब पा जाती, कंज-क्रोड़ में मृदु छाया। लखती, किशलय की ग्रोदी में, हिलती कलिका की माया (३२) अन्तरंग उसकी आली से, समझा जब उसका जीवन, जाना, वह निशिदिन करती है, अन्तर से तेरा चिन्तन मुझसे पा सन्देश तुम्हारा, उसको ऐसा भास हुआ परम तपस्या - सिद्धि - हेतु ज्यों सदगुरु का आयास हुआ॥ (२२) दमयन्ती आचरणवती अति, सहज पुनीत हृदय जिसका। उलका एसा प्रेम जहाँ हो, फिर सन्देह बना किसका ? जिस पवित्रता में कटुता का, स्वप्न-बीच भी स्थान नही उसका प्रम अनन्य जहाँ हो, परम सिद्धि का भाव बही (२४) भाव-अनन्य-जलज विकसित नव, मानस के शुचि कोने में ट्रिय लखता अभिलाष-समीरण, सहज रागमय होने में है, मधुग्राही ! प्रेम-गन्ध पा, मत का कर उपचार सहज उस तक होने की तत्परता, में जीवन का सार समझ

१६१८ हस-कलाधर

(२३५) रूप-कला रच स्वयं विमोहित, जिसे हुई, वह दमयम्ती, रति जिससे सब भाँति विलज्जित, ऐसी है वह रूपवती प्रिया - भाव - हित सुमन चलाया, काम बेदना में डाला। तुम दोनों का मिलन करा अब, सुर-गौरव पाने वाला॥ (३६) प्रेम - मिलन - सन्देह - सहज ज्वर, दोनों पर ही वार किया। कुशल वैद्य संरेश उचित ही, दोनों का उपचार किया॥ अब अन्तर की भूख जगी तो, काम-पीर का वेग बढा। रागमयी अभिलाषाओं पर, नव जीवन का रंग चढ़ा

(२७) दमयन्ती का हृदय-कनक जिस, ज्वाला से तप निखर सका। वह विरहाग्नि सहज अन्तर की, अयुपम रूप बना उप्का॥ माला दिव्य रचित श्रद्धा की, तेरे उर पड़ने बाली। तेज धन्य होगा नुप, तेरा, पा विश्वासमयी लालौ॥

(३८) चक्र प्रेम - पुरुषार्थ - रचित शुचि, भाव-सुरथ में चल पाते। त्थाग-सहन - हय॑ सिद्धि-लोक तक, निर्भयता से ले जाते॥ राज-मार्ग की चित्रावलियाँ, जिसे लगीं प्रिय लीला की। मिलती प्रिय की उसे अलौकिक, मंगलमयी सहज झाँकी।, (२) पथ के नव मादक वसन्‍्त में, रूप सजे मधुमय वन के। आशा से कोयल बोलेगी, भाव खिलेंगे तब मन के॥ सुमन विकस तेरे स्वागत में, पहले से तत्पर होगें। भावुक खग स्वागत-गीतों से, पथ का श्रम सब हर लेंगे॥

नल-चिन्तन सगे की

(४०) नख-शिख व्याह-साज-सज्जित हो, मादकता छलकाती-सी गति सँवारती, दृष्टिपात से, काम-सुमन बरसाती-सी पहुँचेगी वह परम सुन्दरी, ले यौवन का भार खुढर। आलीगण के अग्रभाग में, निज कर जयमाला लेकर॥ (४१) उर-अंकित तब रूप मनोरम, वहाँ निरखना चाहेंगी, मन के निज कोमल साँचे में, किसे सहज भर पायेगी ? बार-बार होकर तन-श्रमिता, श्रम-सीकर तन लायेगी। जब मिलोगे, दशा बता दो, उसके मन की क्‍या होगी ? (४२) राजकुमार जहाँ तारक-सम, आकर स्वयं उदित होंगे, जगमग सजी स्वयवर-भू पर, आकर निज आसन लेंगे। वहाँ चकोरी दमयन्ती को, शशि बन झूप-शान्ति देने जाना होगा आमन्त्रण प्र, प्रेम-प्रयात सफल करने”॥

(४२) बोला नूप, “खग, जो परार्थ में, पाता परमारथ झाँकी, पर-हित पर पुरुषार्थ-क्रिया जब, चरम यास पाती उप्तकी उसके इंगित पर प्राणों की, मोहमयी जड़ता चल दे आकर्षण पाकर प्राणों में, गति की तनन्‍मयता भर दे।॥

(४४) गुरु में कर विश्वास अटल जो, चले मन में आशा धर। प्रेम - नगर वह क्या देखेगा, भूलेगा अज्ञात डगर॥ चले सभी आशा के बल पर, गुरु-सम्मति ले प्रेम-नगर। मेरे जसे मानव में क्या, चले जो भावों से भर॥

रह

१२० हस-कलाओवर

(४५) गुरु के भावों की शिवता में, मिल जाती जो प्रेप-कला | बह तो भूली राह बताती, उसे क्‍यों उर धरूँ भला |! सद्शुरु-संकेतित पथ चलता, शका तज अपने मन की। झांकी उसको निश्चय मिलती, सत्य-प्रेम जीवन-घम की” ॥| (४६, धर जाने का समय समझ कर, खग बोला कोमल' स्वर में “रेखा प्रातः क्षितिज-धम्न की, लीन हो चली अम्बर मे कर्म - निरत सूरज चढ़ आया, ऊपर नभ मिर्भयता से | राजन, अब घर जा कर देखी, राज-काज तन्मयता से |! (४७) कलरव त्याग फूनगियों से सव, छाया में हो विहग' रहे छाया की गोदी में पत्रक, व्यजन डला उर उमग रहे॥। पृगी तितलियाँ नत्त में कुछ, लगतीं आतप-व्यथिता-सी | देखो, तट चकवी चकबा लें, वेतस - नीचे पहुँच लसी

(४८) कुसुम - क्रोड में श्रमर विलासी, राग-पान बेसुध करते। कलिकाओं के नव यौवन मे, सहज डबते जो तिरते॥ देखो, आतप-पीड़ा पाकर, “जुन गुन” कर कुछ उचट रहे। छाया-हित अब मुंदुल-दलों से, मिल-मिलकर क्षण लिपठ रहे (४९) नूप वर, अब मैं भी जाता हूँ, तुम भी जाओ राज-महल"” नमन-भाव दोनों केलेकर, हुए समय कुछ भाव-विकल || छड़ा हंस उत्तर-तभ यो कह, “आऊँगा फिर समय-समय" रहा निरख नल निरनिभेष' ज्यों, नयनों मे भर आश-निचय

नल-धघिस्तन संग १२१

(१०) उड़ा हंस पिगल पतंग-सम,. संदल भाव-गुण से सधकर ।; एकतान बृपष मोह-भाव से, रहा निरखता नभ ऊपर हुए विहय नयनों से ओझल, सार बिये ज्यों नभ वत का रूप देखा, हुआ विवश नल, भाव जया मोहंद मंत्र का (५१) अवसर स्वाणिम स्वर्ण-विहग ज्यों, उुंड आया आशाधर से आशा देकर चला गया वह, दूर गंगन आजा-पर से॥ सोच पाया, गति क्‍या होगी, भावी आशा के पथ पर प्रिय उपदेश सहज संबल लें, चला भूप उर, धीरज धर (१२) उपवन-द्वार पहुँच राजा ने, देखा अश्व हींस भरते। उ्याकुल निपट सारथी मद में! सोच रहा, नृप क्‍या करते रथारुढ़ हो चला भूप कर भान्त सारथी घोड़ो को। बाहर गान्‍त, हृदय पर लखता, मदन-विभावित मोड़ो को

(५३) रवि-शशणि जीवन-ग्रह-वेला में, तम हरते तन से बांकी। जगत पूजता भावल्‍लीन हो, पा अनुपम सेवा-झॉंकी |! पीर-ग्रसित वेसे ही राजा, प्रजा-भाव को तज सका। जनता प्रभु से नित्य मसाती, हो कल्याण सदा नप का॥

(४४)

प्राची की गोदी से चलकर, सन्ध्या की गोदी छिपता। दिनमणि तारों की श्रम देकर, अपने मौन डगर धरता।॥। निशि में नल शब्या पर लेटे, किससे पछे फ्थ अपना। भीतर मन की चित्रपटी में, चलता था कल्पित सपना

हंस-कलाधर

(४५) मन की कल्पित रूप-साघना, साध्य भाव-हित चलती थी | इच्छाभर वह साज सजाकर, उर-साँके में हलती थी।॥॥ पर बाहर पाकर कही उस, रूपवती की कल रेखा। पड़ जाता सदेन्हर-जाल में, लख मोहक चिन्तन - लेखा ||

९३

दमयन्त्ी-विन्तन-सर्ग

(१) उधर दशा क्या दमयब्ती की, स्वर्य दशा चिंन्ता रत ज्यों घीरज भ्रमर-लकी र-नीर सम, बन मिटता मानसमग्रत रैयों |॥ प्रेम-णषीर का नव संवेदन, चपल लहरियों-सा बनता उस जीवन का वेग कहाँ, क्या, प्रेम-पुलिन से जो मिलता

(२) संवेदद की भोली माया, भली लगी थी सीने सै। आयी पीड़ा उसे जगामे, जीवन के किसे कोने से ! शिशुता का शुति जलधि नॉघ कर, काम-कला किरणों वाली आयी च्‌पके से समीष उर, लेकर भावमयी लाली

(२) जगमग दीफपित-सी उर-बेला, किन्तु कंसक देने वाली। परवशता की राह दिखाकर, स्वयं हुई-सी मतवाली कहते जाओ लाख किन्तु वह, कहीं कुछ सुनने वाली उसको धुन केबल पाने को, अपने प्रियत्तम की लाली (४) लज्जा के आवरण-बीच बहु, झाँक रही थी कोमलता। रूप-कला की चकाचौंध में, भ्रमित पड़ी-सी मोहकता किन नयनों में वह स्थिर होगी, लेकर प्रेम-भरी धथ्याली। जिसके रस में मिली हुई थी, मादक प्रियतम की लाली

हुस-कलाधर

(५) मुदुता लाजभरी कह पाती, अपने मत की बात कहाँ ? पर चलने की हृढ़ता रखती, प्रिय-जीवन की राह जहाँ ॥। संकल्पों के नव झ्ोंकों मे, पड़ी हुई भोली - भाली अपने मन की प्रेम-डगर में, खोज रही मुह की लाली (६) प्रिय संकल्पो की धारा में, अम्बर विविध रूप धरता रागारुण सन्ध्या के आगे, अपना मोहक तन करता ग्याम रूप धर निधि से मिलता, लख बेसुधता की प्याली प्रात सजग नव रूप दिखाता, पाकर ऊषा की लाली

(७) सन्ध्या अपना राग दिखाती, दूर क्षितिज की बाहों में। जग को केवल तम दे जाती, सहज प्रेम की राहों में।।

स्नेह-दीप ले बाला खोजे, आशा मे वह उजियाली। क्यों उसे सन्ध्या दे जाती, अंक-भरी निज-सी लाली

(८) रजनी आकर कुछ कह जाती, उसे अकेली पा करके चिन्तन में नव व्यथा जगाती, मौन कथन समझा करके अब अकेली रहने वाली, उठी पीर उर मतवाली। दोपक जलकर क्या सुख देगा, जहाँ प्रियतम की लाली (६) आभूषण-तारक तन पाकर, अंकमयी बन कर वामा, मुदुल हासयुत शशि को पाकर, विलसित प्रेमभरी श्यामा श्यामा-शशि का हास-मिलन वह, दमयन्ती को रुच सका। कुछ कह पाती यदि मिल जाता, आकर ढिंग उससे उसका

* चिय > रे

दमयन्ती-चिन्तन-सर्ग

(१०) शशि-दर्शन की असफलता में जलता दीपक पास मिले थकित चकोरी लौ में देखे, जसे निज आशा मन ले॥ बेसी भोली दमयन्ती थी, लौ-पूरित अन्तर वाली। दिपती उरकी लौ-रेखा में, परख रही प्रिय की लाली [११] सौरभ लेकर पवन पहुँचता, लाज जगा देता मन में। अपनी कोमल शीतलता से, कम्पन भर देता तन में | द्र-देश से वह आकर भी, कुछ सन्देश कह पाता। किसकी गन्ध लिये मधुमाती, बार-बार आता-जाता | गुन-गुन' कर सन्देश श्रवण तक, भ्रमर कही से ले आता। प्रेम-लोक की भाषा में वह, सचमुच ही कुछ कह जाता दमयन्ती भी समझ रही थी, समय-भाव की वह बानी। प्रेम-पाठ की वह मृदु भाषा, अब रही उर अनजानी।

[१३] श्रवण-समीप भ्रमर जब आता, ध्यान लगाकर सुनती थी। मुख-समीप जब आकर होता, भाव-पगी कुछ कहती थी॥ कहने-सुनने की मुदु भाषा, अंकित होती अन्तर में मन ही मन वह अथ्थे लगाती, बाहर कह दे किस स्वर में ॥। [१४] तारे नभ के रोज निरखते, पर कही कुछ कह पाते। श्यामा के शुंगार-हेतु ही, वे निष्ठर आते -जाते॥ किस पावन आलोक-लोक से, ज्योति चुरायी मतवाली। उसमें ही शायद बसती हो, प्राण - दायिनी प्रिय-लाली |!

१२५

शक

१२६९ हस-कलाघर

[१५] किस कोने से लज्जा आकर, गुरुता का मृंदु भार दिया ? यौवन का मोहक कगार पा, शिशुता को अब पार किया ॥। काम-लोक के किस उपवन में, रही लाज वह मतवाली | छिपती कलिकाओं-सी विकसी, भासी ले मधुमय लाली |।

[१६] क्या नभ-तारे जान सकेंगे, प्रेमखचित रेखा क्‍या है? मन की आशाओं में भोली, बाला ने देखा क्‍या है? किससे पूछे कहाँ ले चले, अपने सुमनों की डाली, जहाँ समर्पण सहज कर सके, भठकी-सी भोली-भाली !

[१७] शशि प्रतिबिम्बित था सरती में, शतरूपो में विहेस रहा। लहरों की माती बाहों में, बेसुध-सा वह विलस रहा।। प्रेम-भरे अठचल में कामुक, छिप-छिप कर फिर झॉँक रहा सुन्दरता में मादकता को, किन आँखों से आँक रहा १॥ [१८] क्रीड़त-सा लगता लहरों में, पर वह शणि नभ में हँसता। परम सत्य अपनी माया मे, भासित जेसे जग रचता॥ क्या ऐसी ही ज्ञान-साथना, रुक कर कुछ समझायेगी ? प्रिय की बाहे जो मिलेंगी, कौन व्यथा हर पायेगी ? (१€| रे शशि! तव मुस्कान निरख मृदु, उदधि उमड़कर कप जाता ? क्यों लिपट उमिल बाहों में, घीरे से झेंप जाता ? क्यों रह अम्बर में सुदूर तू, व्यथा व्यथित उर को देता ? लहरों के कोमल प्रयास का, क्‍यों उभार सफल करता ?

दमयन्ती-चिन्तन-सर्ग [२० | क्या रत्नाकर बाँह उठाकर, कभी तुझे भी धर लेगा ? यदि मिला जीवन भर शशि! तो, तेरा हँसना कया होगा ? प्रेम-भरी बाँहें मिलीं तो, क्या होगी तव मुस्क्याली ? मात्र विरहिणी बालाओं की, आँखों में भर उजियाली ? [२१] चाहे जितना दूर बसो पर कहाँ प्रेम का भान हुआ। आलिगनगत आत्म-विसजंन, का तुझे कुछ ज्ञान हुआ रे शशि, केवल तरसाना ही, तू जीवन में सीख सका। अपनी मृदु मुस्कान दिखाकर, भला किया तू ने किसका ? [२२] तू रजनीगत विरह-व्यथा में, आग लगा देने वाला। उस ज्वाला का भाव जाना, केवल मद में मतवाला | हर सका उर की पीड़ा तो, क्‍या मोहक जादू डाला। शशि, तव मोह-कला बाहर की, अन्तर का अतिशय काला [२३] प्रियतम का शशिहास निरख कर, कब द्यामा लज्जित होगी ? दूर श्यामता निज करने को, दिव-सर विनिमज्जित होगी कजरारी आँखों में लेगी, भाग श्यामता शरण तभी क्या ऊषा को बहन बनाकर, रुक लेगी उसके ढिग भी ? [२४] रजनी भरती राग-रंग प्रिय, प्रेम-मिलन व्यापारों में, विरह-दशा में आग उगलती, लौ के कट उदयारों में इच्छा की नव प्रेम-पकड़ में, बनती चिन्तन की डाली सुमन-रंग की आशाओं में, कटक प्रतीक्षा मतवाली ॥।

१२८ हुस-कलाधर

[२५॥। नीद समय पर आकर मन की, व्यथा भूला देते वाली, सुधि-विहीनता की मदिरा दे, गोदी में लेने वाली, पर वह भी अब साथ छोड़कर, कहाँ गयी भोली-भाली, उसकी सुधि पर जाग रही अब, भावी ब्रियतम को पाली [२६] वार-बार बाला पुकारती, निद्रे, संगिनि, आजारे, चित्त धरोहर मेरा रखकर, बेसुध मुझे सुला जारे, जब जागू, तब फिर दे देना, प्यारी-प्यारी सुधि मेरी। जिसमें आशा बनी रागिनी, देती-सी रहती फेरी॥। [२७] निद्रे, या मेरी सुखि पहुँचा, भाव-लोक के उस बन में पंचम ध्वनि पिक की सुन गुनक्र, जहाँ सोच रत प्रिय मनमें ।॥ श्रवण-समीप पहुँच अलि उसके, 'गुन-गुन' कर कुछ कहता हो भाषा उसकी समझ सके, इसलिये भाव कुछ भरता हो [२८] 'कहें-कहँ कर तरसाती हो, मदन-वाण की ओट लिये शुभ सन्देश कुछ कहती हो, फिर भी हो प्रिय कान किये मधुमाया की लहर उठाती, आती ध्वनि इयामा की हो। सुपमा का कल्पित स्वरूप हो, प्रकट उसकी झॉँकी हो [२६ | बार-बार आँखें जाती हो, मजरियों की डाली पर। पवन झूम पत-धूघषट कर दे, श्यामा मधु-मतवाली पर॥ मदन-भाव मन में भरती हो, रूप रंग की वह काली। फिर भी नयनों में रखती हो, प्रिय वसनन्‍्त की मधु-लाली |!

कर प्धप्स्म्क

इ्मयम्ती>चि8्तन-स्ग १२९

[२०] ध्यामा के मादक उत्सब में, मेरी सुधि ले चल आली। मधुलीला प्रिय निरख रहा हो, ठेक लगा कर नत डाली | मृग-णावक भोली आँखो सै, होड लगा कीड़ा-रत हो | ढिंग रम्भा उरु-गठन देखकर, पत्र झुका सम्मुख नत हो [३१] ढिंग फूनगी पर लटक-लटक शुक, प्रिया-सहित हो ज्रीड़ा में निरख सुभग तन सुघर नासिका, शुक-जोड़ी हो ब्रीड़ा में ॥। कूसुमित बल्‍लरियाँ मधुमाती, रत हो तरु-आलिगन में परियोंसम तितली-दल जिनपर, निरख सोच-रत प्रिय मन में ।। [३२] उत्तरीय की मुदु फहरन में, नव यौवन लहंराता ही। पवन गुदगुंदी उर भरने को, प्रिय-ढिग आता + जाता हो॥ है, सखि! वहीं भुलावा देकर, प्यारी सुधि को लें जाना। उसी पवन की शीतलता से, उसको विनिमज्जित करना

[२३३] कणिका र-तर*ु-तलें कलापी, प्रिय ध्वनि स्वर में भरता हो केग-जाल में फिर घन-श्री लख मोहक नत्तेंन करता हो, प्रिय पाये फिर भी उदास तरु, खिल हुआ जो मंतवाला सुन्दरियों के भृदु नत्तंन से, जो श्री भर हँसने बाला॥ [२४] मेरी सुधि तू रूपवती कर, बहाँ नचा देना आली। स्वणिम सुमत-विकास-रग में, गोद बची कुछ हरियाली नीचे भावी प्रियतम मेरा, निरख रहा हो धर डाली। नत्त का जब भाव समझ ले, रह जाये मुख की लाली

१३७ हस-कलाधर [२५॥ सुस्वर गायन से समीप के, तरू नमेरु प्रमुदित मन हों कोमल पदाघात से आली, तरु अशोक भी अनूपम हो ॥॥ मोहक हास्यजनित भावों से, चम्पक तन सिहरन भरले स्पर्श-लाभ कर वह प्रिययु मिल, निज इच्छा पूरी कर ले ॥॥ (३६ भावभयी मदिरा अधरो पर, लखकर बकुल विकसता हो नयनो का व्यापार तिलक लख, पाता नयी सरसता हो आलिगन की मृदू माया से, कुरवक-डाली हिलती हो मोहक मुदु मुस्कान देखकर, चम्पक-ऋलियाँ खिलती हो ॥॥ [२७] मृख से लेकर बास समीरण, मिल ले मधु मजरियो से पर फंला तितली-दल नाचे, होड़ लगा ले परियो से निष्टर भ्रमरों का गुण-गायन, मादकता दविग्रुणित कर दे। बोली भरी ठिठोली की पा, कनक विकास नवल भर दे ॥। [रे] सुप्त पडा तन, मन सपने में, सुधि मम सहज बुला लेना। सखि निद्र ! माया अपार तब, तेरे कर सपना-सोना॥ दिवस-अत का भेद मिटाकर, लीला सरस दिखा देना। स्वप्निल सुधर रूप-माया रच प्रिय से उसे मिला लेना” [३९] समय-जनित मन-उहापोह मे, आशा साथ हुई आली कभी बदलकर रूपरग वह, बनती चिन्ता मतवाली॥ मनन-रूप लीला रच बनती, कभी मनीषा मन वाली | वहा शिथिल नयनों में बनती, भावी प्रियतम की लाली ।।

दमयन्‍्ती-चिन्तन -सर्भ

(४०] श्रद्धा की गोदी में बेठी, बाँह उठा प्रिय से कहती। कभी शिथिल चिन्ता कर होती, प्रिय से द्र पड़ी रहती बुद्धि कही कुछ पार पाती, चिन्तन की पा उजियाली | तव ऑसू बन बहने लगती, प्रेममयी प्रिय की लाली॥ [४१] सुत्रि भोली गतरूष बनाती, प्रिय चरणों तक होने को कही कनक-जीवन-वेला क्षण, सहन करती खोने को मन की मोहक नयी कहंपना, बार-बार समंझातो-सी | चामनन्‍्ती के रूप रंग में, वही छटा दिखलाती--सी (४२) यों मन के मीहक प्रलाप में, रात-दिवस आता-जाता ! फिर भी अन्तर के पट-ऊपर, रूप रंग नव॑ भर पाता कल्पित भावों के चित्रण की, चलती-सी उरभमिल धारा। सोच यही, कब आकर लेगा, अवगाहन अपना घष्यारा (४३) हृदय-शिखी जब परख सका वह, प्रेम रूप जीवन॑-घैन को स्वयं भूल वह नत्तित होता, ध्याव कहाँ तन, मन, वच का ॥। इसी भूल के अन्तराल प्रिय, चपला-सा मुस्का लेता। उर-बन्धन की वह चंपकीली, डोरी सहज॑ दिखा देता (४४) जिसका पा आभास मनोरम, मन की अपनी माया में, श्रद्धा पा विश्वास विटप-तल, बैठी जाकर छाया में॥ वह तो रही कल्पना भावी, पर मन में ज्यों संत्य बनी। भीतर-भीतर बाँध चुक्री-ती, बन्चन की डोरी अपनी॥

१३१

१३२ हस-कलाधर

(४२) नव यौवन की रस-बारा में, प्रेम-वेदवा आती जब लक्षित सुन्दरता-हित चलती, बीच कही रुक पाती कब ?॥ आशा का प्रिय पुलिन मनोहर, जब तक सहज मिल पाता कल्पित लहरों में लहराता, तव तक मन चलता जाता (४६) वाहर जगमग अब वसन्‍्त श्री, कहाँ उसे सुख दे पाती ? ' अपने वेभव की सुन्दरता, ले बहार आती-जाती। प्र भीतर की प्यास उनीदी, सजग रूप जब दिखलाती, लक्षित जीवन मिले बिना फिर, गान्ति कहाँ से पाती ? (४७) मृदुल आलियो का आलिगन, क्रीड़ा-समय विकल करता | परिहासा परिह्ठास उड़ाती, मुस्काने का क्षण मिलता पर वह तो मुस्कान बाहरी, भीतर पीर सुलगती-सी | आजा उर में लेटी जसे, करवट रही बदलती--सी

(४८) प्रेम-परीक्षा के हित थाली, सरक्त कहानी कह जाती। राजकुमार अनेक वरण-हित, नाम, देश, गुण बतलाती भावी रचित स्वयवर में जो, थे कुमार आने वाले। नाम अनेक कही कानों को, तनिक सुख देने वाले (४६) अन्तरंग आली की बोली, उस प्रसग की जेंच सकी। कथन बहुत कर कह सकी वहू, बात सरस उसके मन की वह असचता ला सकी तब, राजकुमारी के मुख पर। भाव जगाती भिन्न भाव से, कल्पित कथन-सहित सुन्दर ॥।

दमयण्ती-चिन्तन सर्ग

(५०) तब प्रसंग प्रारम्भ किया फिर, निषध-राज की धीरे-से | मजग चेतना फिर से झाँकी, आँखों के उस कोने से॥ सहज चन्द्रिका अन्तराल से, घन के जैसे झाँक सकी। बेसुध पड़ी चकोरी-सी वह, भावी दर्शन आँक सकी॥

(५१) महज दया की भावभरी जिस, नर की सुधर कहानी हो, क्षण-क्षण नवता भरने वाली, श्री की जहाँ निगानी हो, पौरुष ले पुरुषार्थ अखण्डित, जिसका सदा सहायक हो,। उस राजा की कथा अलौकिक साहस जिसका पायक हो ॥| (४२) मधुऋतु से भी होड़ लगाता, जिसका जीवन चलता हो। सुमन-विहारी से जिसका मन, सरस कहानी सुवता हो,॥ उसके नव जीवन-वसनन्‍्त की, श्री किसको धरने वाली ? पता नहीं उस रसिक अभ्रमर को, कौन कली मिलने वाली ॥। (५३) सुधराई जिसके अंगों को, निज कर सहज संवार रही, करुणा जिसके उर-भावों से, स्वार्थ-रहित कर प्यार रही, जिसका पा विश्वास सफल तव, श्रद्धा का अज्चल होगा। वह नर है, सखि! तुझे बता दूँ, केवल राजा नल होगा॥ (५४) बंम-भोग से आत्म-योग तक, जीवन का व्यापार रहा रागमयी लीला रचने को, सुन्दर यह संसार रहा पहज समर्पण से लीला में, जिस पर प्रेम सफल होगा, वह नर, है सखि ! तुझे बता दूँ, केवल राजा नल होगा।।

१३४ हस-कलाधर

(५५) तव यौवन-सौन्दर्य-जलधि में, मादक लहर भातीं-सी। प्रति तरंग दशशि-रूप-हेतु ज्यों सुन्दर करोड़ सजाती-सी॥ उस मुस्काते रजनी-पति से, सजा सहज अम्बर होगा, वह शशि, है, सखि ! तुझे बता दूँ, केवल राजा नल होगा ॥। (१६) चपला-सी तन-ज्योति निराली, पर अकेली सज पायी। श्यामल घन से विछुड भूल कर, कंसे वह भू पर आयी ? तुझसे भर निज अंक विहेसकर, अम्बर बीच सफल होगा वह घन, हे सखि! तुझे बता दूँ, केवल राजा नल होगा।॥!

(५७) पुष्पित कोमल लतिका-सी तव, सजी देह - श्री यौवन मे पर तरु से मिलकर अरुझाना, भूल गयी क्‍यों जीवन में ? लिपट विटप से सुमन रंग ले, रहने में ही बल होगा। वह तरु, है सखि ! तुझे बता दूँ, केवल राजा नल होगा॥ (५८) आजशाओं की कोमल कलियाँ, जिस बहार में खिल जाती भावों के जागे अलिदल को, मन की मधुता मिल पाती चाहमयी उन मंजरियों में, बोधक कोकिल - स्वर होगा वह वसन्‍्त, सखि, तुझे बता दूँ, केवल राजा नल होगा (५६) सहज परख रखने वाली जो, बालायें सुन्दरता की, सपने में जिसको पाने से, रहती नहीं कभी बाकी, जिसको पाकर प्रेम-कला से, पूरित तब अन्तर होगा। वह नर हे सखि, तुझे बतादँ, केवल राजा नल होगा ॥!

दमयन्ती-चिन्तन सर्गे

(६०) आकर्षण की नित नव माया, जिसकी शोभा रच पाती, बालाओं के स्वष्निल उर पर, मृदु क्रीड़ा में बल खाती भर मादक विकास की लीला, रति-रस-जादू की रचना-- करने वाला निश्चय होगा, राजा नल तेरा अपना

(६१) स्वाती-घन-जीवन-आशा से, प्यासा चातक रटता-सा। अम्बर लख पुकार उठता वह, उस पर मरता मिट्ता-सा ॥| ऐसी तेरी चाह बने तो, जीवन पा जाये रसना। हे सखि, वह घन निश्चय होगा, राजा नल तेरा अपना ॥।

(६२) ऊषा निज श्वगार सजाकर, सस्मित प्राची में आती। अम्बर की मन-प्रोहक गोदी, प्रेम-भरी वह नित पाती ॥। वेसे ही रस-राग-अंक का, तू जो देख रही सपना। उसका पूरक निश्चय होगा, राजा नल तेरा अपना।॥

(६२) कलित रागिनी-सा तव जीवन, राग परख मिलना होगा। स्वर-लहरी से नर-जीवन का, गीत सरस करना होगा ।। भाव-लीनता में अन्तर का, बूझ पड जायद सपना। वह बोधक सुराग सखि! होगा, राजा नल तेरा अपना

(६४) तेरे जीवन की लहरीली, रंग-विरगी नयी-नपी गोभा-सरिता बहती रहती, समय-शिला भू--डालमयी, अपने समतल अन्तर-भू पर, धार सके जो वह बहना, वंसी समतलता का होगा, राजा नल तेरा अपना

१३५

१३६ हुस-कलाक्षर

(६५) हे, सखि ! चयन तुझे करना है, माला तेरे कर होगीं। दृष्ट स्वयंवर में पायेगी, निष्ठा यदि अविचल होगी।॥” इस प्रकार समझाकर आली, साथ लिये घर-ओर चली ज्यो वसन्‍त की विकसित कलियाँ, गति पाकर पथ लगी भली ||

स्वयंवर-सान सर्ग

निश्चित कर समय स्वयंवर का

करते विचार नृप बार-बार। बेटी के भावी जीवन पर

कुछ सोच-निरत लख निज दुलार ॥१॥

पुत्री का समझ विवेक भाव

होते कुछ स्वस्थ विदर्भ--राज निर्णय शुभ समझ स्वयंवर का

पुलकित होते लख समयथ-साज ॥२॥

फोयल निज गान सुनाती थी

कहती जैसे मंगल होगा। मजरी-कोड में लालित स्वर

निज प्रिय-सुराग-विद्वल होगा ॥३॥

सव साज सजे शुभ नगर-बीच,

सज्जित निसमें-श्री यौवन में! शोभा बहार दिखलाती थी

रसता से पूरित जीवन में ॥४॥

पा एक रंग की श्री चपला

मुस्क्या कर स्वयं लजा जाती बहुरंगी जगमग, नगर-कला--

फिर देख सामने क्यो आती ?॥४५॥

हस-कलाधर

अम्बर-श्री सहज श्याभता में-- शशि-रास-कला चित्रित करती पर अब वह कुण्डिनपुर की-- रचना में नव शोभा भरती।॥६॥

मंचों की रचना ऐसी थी

गजदंतमयी, चित्रण वाली, जिसपर सुवास की निजता ने

अपनी मोहक छाया डाली ॥७!)

मणि-खचित स्तंभ की रचना में-

सुमनों की छटा निराली थीं, जिन पर उड़ दूरी से आकर

अ्रमरों ने शोभा पा ली थी ॥८5४

बहुरजित पगी तितलियो से--

मादकता आकर भरती-नसी, सुमनों की मधुता पाने को

मानव-्मन से भी कहती-सी ।॥६॥

गधों की रम्य व्यवस्था में--

अलिदल भूला चकराता था। गुजित प्रतिध्वनि की माया में--

अपने को विचलित पाता था ॥१०॥

खग-रचना ऐसी यथा - ठौर

स्वाभाविक मुद्रा पाती थी उड़ पक्षी करते सलाह

वह समों और बन जाती थी ॥११।॥

ध्वयंवर-साज सर्म

पत्तों की सुन्दर रचना में+- छिप कोयल कूक सुर पाती छवि के परदे में लुक-छिष ज्यीं स्वर-मोहन-वारण चला जाती ॥१२॥

सज्जित अति कलित व्यवस्था में--

थी लता-सुमन की सुधघर पाँति। विरचित सुढार - श्ू गारमयी

अपने विकास में भाँति-भाँति ॥१३॥७

रा

फूलों की मृदु मुस्कान सहज,

हरियाली - बीच. झाँकती थी। किसलय के कोमल कम्पन से--

भावी छबि - छटा ऑकंती थी ॥१४।।

पिक के स्वर में मुखरित होकर

स्वीकृति पा सरल सारिका की, मंडप-श्री अपने वेभव में--

अब रहती कहाँ तनिक बाकी ॥१५॥

सधुमय॒ निसर्ग को बाहों में--

मानव की कोमल कला खिली जसे विहार-वन गलबाँहीं--

दे, शोभा पा श्वगार चली ॥१६॥

माधुये)ं स्वयं ही जाता

सब छोरों से आशाओं के। कोतूहूल का कारण बनता

कृण्डिपपुर की ललनाओं के ॥१७॥

१३९६

१४०

हुस-ऋलाध

सखियाँ दमयन्ती को सँग ले

प्यासे भावों में रस भरती। सन्ध्या में तज उपवन - विहार

मंडप-श्री में बिहार करती ॥१८॥

पग-पग रचना शोभा-वद्धे क--- वालाओं ने जमकर देखा।

दमयन्ती के मन-भावो कॉ-- कर दे कवि कौन कहाँ लेखा / ।१९॥।

वह समाँ निराली होती थी बालायें हलती मंडप मे। मधु-छुटठा उमडती-सी लगती उनके क्रीडामय मृद॒गपष में ॥२०।॥।

पक्षी उड-उड शोभा पाते

नव पलल्‍लवमयी टहनियों से, उमड़ मन के नव भावों में--

कुछ कह जाते मृदु ध्वनियों से ॥२ १॥ हो जाता था रोमाञच सहज

उदगारों से अपनेपन के। क्षण अवगाहित होती बाला

भावों के सागर में मन के ।२२॥

सखियो-संग- मादक विचरण में---

आगे पग घरती जाती थी। ममता की आँखों से शोभा

बाहर इच्छाभर पाती थी ॥२३॥

सस्‍्वयंवर-साज से

मंचों क्री रचना अद्भूत थी

छवि के विकास में द्वन्दमयी, जिसको लख मोहक रेखाये--

बनती थी मन में नयी-चयी ॥२४॥

मंडप-वेदी पर जाकर तब

बंदर्भी भाव नवल पाती भावी प्रसंग की बात सोच

अपने में आप सहम जाती ॥२५॥

पथ को रचना कुछ एसो थी

जिसमें कही अवरोध बने, आपस की द्वन्‍न्द - भावना से--

उत्सव-पथ पर विरोध ठने ॥२६॥

भीतर प्रवेश के द्वार स्वय--

इंगित से पथ बतलाते थे आसन किसको है कहाँ योग्य

विधिवत यह भाव जताते थे ॥२७॥

रक्षक - सनिक-दल-राह अलग--

द्वारों से सूचित होती थी प्र्याशी नृप, दर्शक -दल की

वह पृथक व्यवस्था लगती थी ॥२८५॥

पथ अन्दर से वत्त्‌लाकार,

आसन सबको दिखलायी दे, यंत्रों की एसी कला रही

ध्वनि सबको सहज सुनायी दे॥२६॥

१४९

१४२

हँस-कलाधर

बाला सबको दिखलायी दें

जयमाला लेकर चलने पर, शोभा - विहार, शगार - कला

का मूल्य आँक लें सब जी भर #३०।॥ झोभा के मंडप में आकर--

सुन्दरता क्‍या है कहलाती, सन्ध्या निज पिगल किरणों से--

वह भाव दिव्य बतलाती ॥३ १॥

बालाओं का किल्लोल' - भाव

सन्ध्या में नित अभ्यास बना ! नाना विधि खग-दल-कल रव में---

होती भावों की नव रचना ॥३२॥

समध्या विहार की बेला में-- उन दिव्य लताओं से छनकर,

सस्मित दमयन्ती के मुख पर कर-श्री बिखिरती भाव पघिहर ॥३ ३॥

बहुविकसित छटा प्रसूनों की--

पत्तों की नव हरियाली में। खगदल - कलरव, बाला - विहार

सनन्‍ध्या को छुनती लाली में ॥३१४॥

मंडप-श्री में बालाओं कौ--

मुस्कान मुंदुल छवि पाती थी। ऊषागत पंकज - कलिका - सी

खिल फूली नहीं समाती थी ॥३५॥

स्वयंवर-साज सर्ग

रस-कथन साथ पग-चालन में--

जादू का भाव प्रकट करता। नपुर-ध्वनि से रस - राग लिये

कूंगन - स्व॒र - साथ लिपट रहता ॥३६॥

सुन्दर अति सहज सजावट जो

मन के साँचे में मिल जाती मधु - सार - प्रख रखने वाली

बालाओं के सेंग खिल पाती ॥३७॥

शोभा की दिव्य कल्पता जो--

नयनों में विकसित हो बसती सखियों में उसकी झाँकी ले

सन्ध्या भोली स्वराह धरती ॥|३८५॥

सन्ध्या में यों बालाओं का

आना - जाना, विहार चलता। भावी तत्परता की लीला--

मे मन का नव विचार मिलता ॥३६९॥

कर राज - कुमारो की गणना

फिर सोचे गये विचारों से-- आमंत्रण - पत्र लगे जाने

अति धूम - धाम के भावों से ॥४०॥

अति दूर देश तक पत्र लिखित

पहुँचाये. गये धावनों से सुन्दर प्रशस्ति, सम्मान कला--

के साथ सजे आवरणों से॥४ १।'

रै४४

हंस-कलाधर

गंगा - यमुना के देशों से--

फिर सिद्धु - देश तक समाचार दक्षिण में फ्हँचा यथा ठौर

शुचि कावेरी के आर -पार ॥४२॥

फिर आर्यावतं - देश - बाहर

घरती तल पर कोने - कोने, उस रूपवती के पाणि - ग्रहण---

की चर्चा लगी मधुर होने ॥४३॥।॥!

सन्ध्या लखकर मंडप - विहार

पश्चिम - लोको तक कर प्रचार, छिपती किरणों की चितवन से

दिखला देती नित रूप - सार ॥४४।॥

अपनी शोभा जिसको देकर--- भोली सन्ध्या छिप जाती थी, उस बाला का मंगल - प्रचार निशि - बेला में कर पाती थी ॥४०९॥

सन्ध्या - ऊपा दोनो बहनें-- निभि-दिवस-लोक में कर प्रचार, मंगल सिनन्‍्दूरी विभा दिखा तब जाती थी नित ल्लितिज-पार ॥४६।॥

परिमल लेकर चलता समीर

करता प्रचार था सहज घृम। बाला के दिव्य स्वयंवर की--

क्षिति से अम्बर तक मची घम ॥४७॥

स्वयंघर-साज सर्ग (४२

निशि विरल घटा निज साथ लिये सभ समय भूल चषला आती

त्टूर- विभा दिखलाती कल घन - केश - राशि में बगराती ॥४५॥

चला. जेसे दमयन्ती - संग

कल खरूप-राशि में होली हो इसलिये प्रेम के बन्धन को

तचमकीली डोरी खोली हो ।४६॥

घन-अवगुठन में लुक - छिप शशि

सस्मित अम्बर शोभित करता बाला के व्याह प्रशिक्षण मैं--

लज्जा के भाव ललित भरता ॥५०॥

दिनपति अम्बर में आता जब

लखता था साज स्वयवर का धरती पर स्वग - साधना का

जेसे कुछ लगा उसे चसका ॥५१॥

सुन्दरता उतरी रूप लिये

मुस्काती किरण-पालनों से ऐसा लगता कुण्डिनपुर को--

नन्दित कर देगी शुचि कर से ॥५२॥

सर्वत्र सुशोभित चहल - पहल

कुण्डिन पुर भव्य स्वयंवर की, जड़ता तक लख मोहित होती

फिर कौन कहे सुर, मुनि, नर की ॥५३।

| लि

हंस-क्लाधर

धरती का लेकर समाचार

नारद जा पहुँचे स्वर्ग - लोक॥ सुंग इच्छागामी पंत ऋषि

वीणा - ध्वनि सुन चलते आरोक ॥५४।॥॥

परिवत्तन की मृदु तानमथी--

स्वर - लहरी पहुँची सुर - पुर में, नन्‍्दन - विहार, अमृत लीला--

को मोहित करती निज स्व॒र में ॥५५॥॥

अलि-गुजित हवा सुबास लिये

प्र-दल मृदु मधुर मरोर रही, कुसुमित विलसित खग-डालो से

मधु-मादकता ज्यों तोल रही ॥५६॥

देखा ऋषि ने स्वगिक वसनन्‍्त,

फ्लो का सनन्‍्तत मुस्काना, बहुरंगी पखो से नत्तित--

तितली-दल का मधुरस पाना ॥५७॥

कोयल की कुक निराली थी--

उठती सुर-वन के छोर रही, बेसुध भोगी के अन्तर को--

रस की धारा में बोर रही ।॥५८५॥

गलबाँही के आलिंगन में--

मोहित जो बहते विषय-घार उनको अपनी स्वर - लहरी से--

करती धकेल क्षण मन: पार ॥५९॥

स्वयेंवर-साज सगे १४७

लाना रंगों के फूलों से--

तरु-दल की मधुर बहार भली। खगरूप. पिहकती मादकता--

सन्‍तत विलास की ओर चली ॥६०॥

कजरारी छायी - बदली में--

सन्‍तत चपला का मधुर लास | नीचे नित होड़ मिलाता -सा

चलता परियों का रस-विलास ॥।६१॥

लाना प्रकार की सुख-लीला

जो वहाँ निरन्तर चल पाती, वह लगातार सुख-भोग - भुक्ति

सुर-भोगी को भी खल जाती ॥६२॥

ऋषियों ने सोचा, सुख ही सुख-- में रहना करुण विरसता है। दुख से सुख को जब नग्पप नहीं उसमें फ़िर कहाँ सफलता है ? ॥६३४७

विषयो का सुख हो लगातार

उस पथ में जीवन - सार कहाँ ? स्वयिक मेला तो भार सहृश

इसमें प्रियत्तम का प्यार कहाँ ? ॥६४॥

गरिमामय ओज भरा आनन,

गतिभाव देख तप के बल का, दर्शन में आशा की पुकार

लख भाव जगा कौतृहल का ॥६५॥

१४डप

हुँस-कलाधर

सदभाव सहित सुरजन करतै--

मुनियों का मिल नत-सिर वन्दन दे-लेकर समुचित समाचार

अति मुदित हुए सब देव-सुजन ॥६ दा]

सुरराज मिला स्वागत - विधि से

ऋषिवर पहुँचे जब दिव्य भवन, चरणों में शीश झुकाकर निज

सदभावपूणं तब किया नमन ॥६७॥

पूछा धरती का क्षेम-कुशल

जो कमंभूमि विख्यात बनी, परिवत्त की सुख - दुख - लीला

दिखलाती जो अदभुत अपनी ॥६८॥)

शुचि प्रेम-ज्ञान की धारायें

जिस भूपर सदा निखर भाती, गति-भावमयी रस की लीला--

अन्तर में नव रस भर पाती ॥६६।॥॥

सूरज प्रकाश भर किरणों से-- जिस धरती को जीवन देता, शशि शीतल अपनी विभा लुटा भू--जीवन-भाव सफल करता ॥७०॥

किरणें अम्बर में दौड़-धूप--

जाती हैं पाने त्राण जहाँ, अपनी निधि जिसे धरोहर दे

निर्भव पाती विश्राम वहाँ ॥७१॥

स्वयं वर-साज सर्म

नाना ऋतुओं के हाथों से-- जिसका मोहक श्वूगार भला उस प्यारी भू का कुशल कहें

५5

मानवता पाती जहाँ कला ॥७२॥

ऋषियों का देश दुलारा वह, उस भारत-भू की कथा कहें,

जिसकी तप - लीला समझ - बूझ क्योंकर जीवन में व्यथा रहे ? ॥७३॥

अपना यह लोक तरस जाता

जिस तपोभूमि पर जाने को। संतत सुर-लीला भार बनी,

अब इच्छा नव गति पाने को ॥७४॥

प्रव में अपने वेभव का--

वह प्यारा देश निराला -सा, साभरण प्रकृति की गोदी में--

ले सुषमा का ज्यों सार लसा ॥७५॥

ऋषिवर, उसकी कुछ कथा दिव्य

अपने कानों तक आने दें नर-भावों के जीवन-रस में--

मन का उन्माद डुबाने दें।॥७६॥

सुरपति की सुनकर बात सरस

मुनिवर धीरे से बोल उठे। उन अमर जनों के कानों में--

भावों के अम्रत घोल उठे ॥७७॥

१४६

१५०

हँस-कलाधर

“सहकार जहाँ अपनी रसता

पहले देकर साभार हुआ। उस देह-भूमि में जीवन पा

उपकारी फलित रसाल हुआ ॥७८५॥

इ्यामा-विहार मुखरित स्वर से--

मोहक बासित मंजरियों में, भधु-विलसित लीला प्यार भरी,

वह यहाँ कहाँ फिर परियों में ॥७९॥

आकर वसन्‍्त फिर जाने में-- रस-भाव हृदय को दे जाता। वह सदा एकरस रहने से-- सुरपुर में कमी मिल-पाता ॥5०॥।

परिवत्तेन के छवि - परदे में

लीला बहार जो दिखलाती-- मन की चल लहरित धारा में,

वह यहाँ कहाँ फिर मिल पाती ?॥5१॥

ऋषियों की तपोभूमि भारत

जिसमें वह ज्ञान-किरण उतरी मानवता तजकर अंधकार

जिससे जीवन में ज्योति भरी ॥5८२॥

धरती का समाचार सुन्दर,

शुति शान्ति चतुदिक व्यापमान मंगल में मंगल उमड़ रहा

करता जीवन - हित मोद - दान ॥८३।

स्वयं वर-साज सर्ग

छवि ज्ञान तपस्या शान्ति शोौये

सबकी श्री केन्दीभूत हुई भारत में सहज विराजमान

श्रद्धा के बल अभिभूत हुई ॥८४॥

उस देश दुलारे भारत की

नेसगिक अलग कहानी - सी सुन्दरता अपनी कला लिये

ज्यों रूपवती होकर विकसी |॥८५॥

उस भू के वर भूपाल सभी

जा रहे विदर्भ-राज्य सजकर उस भीमसुता दमयन्ती के--

शुभ जान स्वयंवर का अवसर ॥|८५६॥

जिसकी सुन्दरता त्रिभुवन में-- यौवन-विकसित विख्यात आज। ऊषा-सन्ध्या के भावों में-- मिल सका जिसे मधु-ललित साज ॥८७॥

जयमाला कर लेकर होगी

वह बाला आप निराली-सी शोभा के कलित सरोवर में

तिरती नव दिव्य मराली-सी ॥८८॥

उसको पाने की चाह हो भू पर वह कौन नृपतति होगा ?

वर लाभ त्याग कर नयनों का-- वह दर्शक कौन विरति लेगा ?” ॥८९॥

१५१

१५२

हंस-कलाधर

सुनकर नारद को बात सरस

मोहित-से सुर कुछ सोच पड़े। सुन्दरता का अद्भुत चित्रण

उर अंकित कर क्षण मौन खड़े ।€०॥॥

सुरपति - मन पड़ा प्रलोभन में-- सुन अनुपम रूप कामिनी का। अब सोच - निरत, कंसे पाऊं तन - भोग सुहंस - गामिनी का ॥६ १॥

तन-भोग मात्र का स्वार्थ जिसे

पद पाकर तनिक लाज उसे, मन में बस चिन्ता एक यही

केसे भौगिक सुख - साज फेंसे ॥९२॥।

चलने को तत्पर इन्द्र हुआ

तब समझ-बूझ कर समय - साज | शंगार - कहानी सुनकर यह

मन में अति लिप्सा जगी आज ॥६३॥

तब अग्निदेव भी बोल उठा,

'में भी तत्पर हूँ चलने को, जागरण भाव का जान सक्‌

निज शक्ति-परीक्षा करने को”॥€६४॥

तत्पर फिर वरुण देव सोचा,--

घरती का वह कंसा पानी ? स्वगिक भोगों को भूल जहाँ.

सुर-राज जा रहा अभिमानी ।८५॥

स्वर्येवर-साज सर्ग १५३

बोला, “चल देखी सृजन-कला,

इच्छा यह हुई समझने की, उस पानी की कैसी शोभा,

यह शालीनता परखने को ॥६६॥

समोहन का पानी देखूँ

सौन्दर्यंमयी दमयन्ती . में, आकर्षण की वह विभा दिव्य

तन » बीच फलित कुलवन्ती में ॥६७॥

कुछ सोच-समझ कर धर्म-देव

तब बोल उठा तत्परता में, “मै भी देख शुंगार - कला

धरती की भाव-सफलता में ॥६५॥

देखें चल उस सुन्दरता में--

क्या समुचित विकसित धर्म-विभा झुचि परम प्रेम पाने वाली

क्या छिपी हुई उसमे प्रतिभा ? !६६॥

जीवन में राह - संगिनी बन

क्या दे सकती है शान्ति - सुधा, सेवामय दिव्य समर्पण मे--

जिस पथ होती पावन वसुधा ? ॥१००॥

सचमृच जग -नारी-रत्नों से--

जीवन का शुभ श्रृंगार चला प्रेमी प्चिकों को व्यथा भल

जिसमें 5िलती पथ-शान्ति-कला ॥|2०?॥

श्व८

टंस-कलाघर

सर्वस्व समपित करने कौ--

क्या जान सकी है प्रेम-राह,, जिसमें कहीं बच पाती है

लेने की अपनी तनिक चाह ?॥१०२॥

अन्दर-बाहर मुदु शान्तिमयी

मानवता मे ढली हुई अपनी-सी शोभा वाली वह

नव ललित कला में पली हुई ॥॥१०३॥

यौवन में अपने लाज भरी--

मोहकता का स्वर मरतीं-सी तन-मन-विकास की लहरों से

जीवन को लहरित करती-सी ॥१०४॥।

ऐसी यदि सचमुच दमसयन

अनुपम घरती पर आयी हो सुन्दरता मे कोमलता का

मुदु मधुर राग भर लायी हो ॥१०५॥

मे भी तब चलकर पाऊँंगा

झाँकी उस कलित स्वयंवर की, बाला की नव सौन्दये-विभा

प्रतिफलित छटा पर श्री वर की ॥१०६॥

लग गये स्वयं तत्परता में

इस भाँति देव कर बात चार, सुरराज, वरुण सेंग अग्नि, धर्म

प्रत्याशी बन ले नव विचार ॥०७॥

स्वयेबर-साज सर्ग १५४

यों बात चला कर सुरपुर में

अपने पथ पर ऋषिराज चले। भाषबों में अमर-राम कल्िपित

बीणा में निज स्वयिक स्वर ले ॥॥१०८५॥!

घरती पर चारों ओर हवा

चल रही स्वयंवर की केवल दशक बनने का भाव जगा

नारद के मन में सुखद प्रबल 4१० ६॥

जगमग कुष्डिन पुर की झोभा

अपने में आप उमड़ती - सी ऊपर से पहुँची खसुनि-वीणा

अनुपम सुराग-स्वर भरती-सी ॥११०॥

स्वागत की समाँ अलौकिक थी अति सजी स्वयबर भूमि-पास,

नाना रूपों में प्रकटित ज्यों बर साज भर रहा मधु-विलास ११ १॥

पहुँचे राजागण सजधज कर निश्चित सुवास-थल ललित जान। हर सुविधा से सत्कार स्वय॑-- जेसे वत्पर कर कीत्तिगान ॥११२॥

आये घरती पर देव उतर अपनी - सी सरस लालसा लें,

पर आपस में वे निविरोध सद्भाव - भरी ममता बाले॥११३॥

हुस-कलाधर

राजा नल से १थ-बीच मिले,

प्रश्दिल थी जिसकी सुन्दरता. सुर चौक गये लख आज यहाँ

धूमिल अपनी स्वर्गिक क्षमता ॥११४॥

ऐसा सुन्दर नर धरती पर केसे जीकन लेकर आया,

सतर-राज अपने भावों से--.. छवि का स्वर-ताल समझ पाया ५४॥॥

नीचे से ऊपर अग - अग

सुन्दरता सहज छलकती - सी मुस्कान - भरी आभा मोहक

मुख - मंडल - बीच झलकती-सी ॥११६॥

शोभा - सर - चलित तरंगो -सी

अति सुधर भुजाये हिलती थी अम्बर--श्री जेसे उतर - उतर

उनसे नन्दित हो मिलती थी ॥॥११७॥

वक्षायत साहस - शौये - भरा नाहर॒ का जी भरने वाला। छवि - साँचे में ढालित - सा तन

की

यौवन - विकास में मतवाला ॥११५८॥

पुर सोच पड़, इसके आगे--

वह कौन स्वयंवर का भागी ? क्या नल है, जिसपर दमयन्ती--

की प्रीति सहज ही है जागी ? ॥११९॥

स्वयं वर-साज सर्ग

नारद ने जिसका प्रेम - भाव

सुर - पुर में कह कर समझाया, जग-विदित प्रचारित सुन्दरता--

का कथन दिव्य था कर पाया १२०॥

सहमे से पूछ पड़ नल से

“भाई, परिचय निज बतलाना किस देश राज की श्री वाले

इस पथ क्यो आज हुआ आना? ॥१२१॥

सदभावपूर्ण अति नमित भाव--

से परिचय नल ने बतलाया। “वर का प्रत्याशी बन आया”

सुन्दर शैली में समझाया ॥१२२॥

आशा उनकी डगमगा उठी

जब उठी निराशा अन्तर से, सुर-राज लाज की हंसी लिये

लालचवश बोला ऊपर से ॥१२३॥

“हम है प्रत्याशी देव चार

यह भी मन में तब ज्ञात रहे। चारों में चाहे जो वर हो

तब देव-लोक की बात रहे ॥१२४॥

जिस वेभव की हो चाह तुझे

हम देवों से मिलने वाला, पर चयन करे हम में से ही--

मृदु प्रेम-भरी-सी वह बाला ॥१२५॥

१५७

र्श्८

हंस-कलाधर

अभिलाषा पूरी करने कौ--

नर-वर, तेरा सहयोग बने बाला वह श्यामा मिले हमें

बन चलें सरस मन के सपने ॥१२६॥

बोला नल, यह तो बात ठीक, प्र जयमाला बाला के कर, कर सकती है वह भाव सफल उसका मन जम जाये जिसपर ॥१२७॥

यह तो उसकी अभिलाषा से--

मिल देवयोग की बात रही।। होने वाला ही होता है

हम कर सकते क्या बात कही ? ॥१२८५॥

फिर भी देवों का अनुनय तो

नर- शिरोधार्य| ही हो जाता। देवों के भाव - विरुद्ध भला

नर कंसे जीवन-सुख पाता ?॥१२६॥

बाला से कंसे भेंट बने

यह तो मुझको कुछ ज्ञात नहीं केसे मैं. उसको समझाऊँंँ,

असमंजस की यह बात रही ॥१३०॥

देवों ने देखा ध्यान-बीच

उपवन - विहार दमयन्ती का, सन्ध्या ले संग आलियों का--

अति सुन्दर भाव आरती का ॥१३१॥

स्वयंवर-साज सर्गे

समझाया देवों ने. उपाय बाला के सम्मुख होने का,

निज दिव्य रूप के भावों में-- सुर - प्रेम - बीज उर बोने का १३२॥

पहुँचे अपने निश्चित थल पर भूपों का जहाँ जमाव - साज, आतिथ्य - भाव सबको समुचित देने में सफल विदर्भ-राज ॥१३३॥

देवों के साथ भूप नल का कृण्डिन पुर में आगमन जान,

पुरजन - मन - भाव - सरोवर में आशा-कलिका-हित उदित भातु ॥१३४॥

कल ही तो दिवस स्वयंवर का,

जन-जन में अति उत्साह मिला सूरज भी दिन भर भाव लिये

अस्ताचल पश्चिम -ओर चला ॥१३५४॥

वह समय समझ कर नृप नल ने

देवों का शुभ सन्देश लिया, सुर-कला जान कर अपने मन

उपवन में सहज प्रवेश किया ॥१३६॥

दमयन्ती मन्दिर के समीप बालाओं के सेंग टहल रहे पूजन दिव्य आरती की | वेला लखकर मन - चपल रही ॥१३७॥

१६०

हस-कलाधर

कुछ ही दूरी पर निषधषराज

सुर-वाक्य सोचता लख सका, वन की व्रिकसित मधु लीला में--

उस समय भाव मिला उसका ॥१३५॥। मधु - साज - सजे वन-वेभव मे--

नुपुर - ध्वनि आयी कानों तक, कोकिल स्वर की प्रतिस्वरता से--

कुछ निरख सका वह हृश्य उच्चक १३९॥।

देखा आशा के ऊपर अब

नव छवि थी उनमें रूप लिये। किरणें तन परस बविछलती छन

विकसित श्व्‌ गार अनूप किये ॥१४०॥

उन बालाओ के आगे वह

दमयन्ती का ही भाव रहा, आभरिता कुसुमकुन्तला, शुभ

पूजन-माला कर लिये, अहा ! ॥१४१॥

सुनता था कानों से अब तक

पर आँखें सोच उदास रही। अब आँखों के मृदु भावों में--

दब्दों को मिलती राह नहीं ॥१४२॥ किस भाँति कथन कर दे कोई,

सुघराई सहज छलकती - सी लुक-छिप किरणें तन - परस-लीन

तन-श्री में वन-श्री भरती-सी ॥१४३॥

स्वयवर-साजसर्ग १६१

ज्यों काम - सरोबर में विलसित लहरों से उमड़न फ्ायी हो सलट पर पराग से क्रीड़ा कर चढ़ काम-शरों पर आयी हो। १४४॥

हर अंग मधुरिमा का पानी

पाटल - चपलित झर झमक रहा परिधान कलित, तन बसन विरल

कलरंगी स्वर में चमक रहा ॥१४५॥

कोमल किरणों के भावों में--

शशि-सी मुस्कान निखर पाती, अधरों में धर बन्धूक - कला

अपने में आप विलस भाती ॥१४६॥

लालित दुलार की यह बाला

हर भाँति मधुरिमा भरी हुई छवि-रची कला-श्स की काया

समुचित साँचे में ढली हुई ॥१४७॥ सफ्ने में जिसको देखा था

वह परम रूपसी सरला थी, आँखों के खुलने पर भागी

मन-मोह-कला की बाला थी ॥१४५॥

जिसकी सुन्दरता में पड़कर मन मोह - गगन में उदड्ध पाया। यह रूप वही, इस उपवन में आँखों के सम्मुख सज आया ॥१४९॥

१६२

हस-कलाधर

अन्तर - नयनों में रूप बसा

बाहर आखों से अब देखा, धोखान रहे, चिन्ता फिर भी

मन बार-बार करता लेखा ॥|१५०॥)

पर स्वप्न नहीं, यह सत्य रूप

जीवन - विलास की लीला का परिणाम -रूप देने वाला

व्यवहारजनित जग-मेला का ॥१५१॥

अपनी सुधि के जग - मेले में

यह रूप परम सुन्दरता का, मिलने पर सचमुच दे सकता

सुख-भाव-विचार सफलता का ॥१५२॥ पर देवों का सन्देश मुझे

मिलकर उस तक पहुँचाना है उसके मन का भी प्रेम - भाव

निज समझ - बूझ में लाना है ॥१५३॥

उस मधुर रूप के भाव मग्न

छवि - रूप - भक्त यह मन मेरा, प्रारर्ध - राह घर भटक चला

डाला कहाँ सहज डेरा ॥१५४॥

यदि प्रेम सहज उसका भी हो सदभाव - सहित अपने ऊपर, तब तो उनझन की बात नहीं कोई कही बाधा का स्वर ॥१५५॥

स्वयवर-साज सर्ग १६३

यदि बात कही अन्यथा रही

तब तो तत्परता ठीक नही अन्तर के भाव - विरोधों में--

जीवन - स्वर मिलता नहीं कही ॥१५६॥

देवों की लेकर ध्यान -युक्ति

बालाओं के ढिंग जाऊगा; फिर न्याय - सहित सन्देश प्रथम

उनका ही मैं पहुंचाऊंगा | १५७।।

यह कहकर आगे भूष बढा

ले संमोहन - व्यापार घना देवो की कृति - मति का सुयोग

नल के पथ का आधार बना १५०५॥

उस समय उधर बालाओं का--

मन्दिर की ओर प्रयाण रहा पावनता से शथ्ृगार रूप---

का कसा सुन्दर मेल, अहा ! ॥१५६॥

तव तक कल कुसुमित कंज-बीच -- नल दीख पड़ा आकर्षण से छवि - सेवित यौवन - नर - तन में झिलमिल किरणों के वर्षण से ॥१६०॥

भोली बालायें चौंकी-सी

कानाफूसी कर ठमक पड़ी। सहसा कुछ समझ बन पायी

क्षण मंत्रमुग्ध - सी हुई खड़ी ॥१६१।॥

१६४

हस-क लाधर

वीरुध पत्तों की ओटों से

तब तक नल सम्मुख हो आया | छविमयी सौम्यता खेल रही

जंसे पाकर मोहक काया ॥£१६२॥॥

नल ने देखा दमयन्ती को

दमयन्ती ने देखा नरजञवर। रूपों. का अनुपम लेन - देन

नयनों का बना सहज सबल १६३॥

नयनों के पथ वे रूप पहुँच

आसीन हृदय के आसन पर। सुधि भूल गयी दोनों को क्षण

सुन पड़ा कौन-सा भीतर स्वर ? १६४॥

दोनों की रूप - कल्पनाओं--

के साँचे ज्यों भरपूर मिले। वाणी की गति भी बन्द हुई

मन के मुरझाये भाव खिले।॥१६५॥

बालाओं ने देखा अद्भुत

नर-रूप आज निज आँखों से। नयनों मे बसने योग्य, अहा !

क्या कथन बने मुख लाखों से ? ॥१६६॥।

भर शोय॑ सजीले कंधों पर

बल - सार घुमडता चलता -सा। वक्षायत विकसित बाहों में--

साहस शझ्ुगार उमड़ता - सा ॥१६७॥।

स्वयंवर-साज सर्ग

उझू भरित भाव वसनों को दे छिप कर मुदु झलक दिखाते थे, मधु काम-कला के वो में-- आगे - पीछे गति लाते थे ॥१६८॥

लावष्य भरे उस आनन में

भावो का जादू खेल रहा, मुदु मौन कला के दर्शन पर

नयनों से करता मेल रहा ॥१६६॥

बालायें मोहित भावों से-- अति नम्र प्रदर्शन कर भायीं।

गालीन सुधर मुदु खुदरा में-- नल के समीप तब हो पायीं ॥१७०॥

सखियों का पा सकेत सहज

सहमी - सी दमयन्ती बोली, ज्यों भरी मधुरिमा की पेटी

मुख-स्वरित कु जिका से खोली ॥१७१॥

संकोच पूछने में होता

है, नर- वर ! है वह कौन देश, जिससे शुभ तव आगमन हुआ

लेकर नर-पुगव का सुवेश ? ॥१७२॥

कर के.

सन्ध्या की पूजन -बेला में आने का वह निश्चय क्या है?

नर -देव ! बतायें निए्छल हो, सचमुच अपना परिचय क्या है? ॥१७३॥

१६५

हंस-कलाधर

प्रतिबन्धित शोभित उपवन में-- कंसे आगमन हुआ अपमा ? तब सौम्य रूप केसे पहुँचा ! क्या देख रही है हम सपना ?7॥१७४।॥

श्रवणों में पड़ कोमल वाणी

अन्तर में जाकर रसित हुई। आशा के मोहक परदे पर

श्र गार-कला-सी खचित हुई ॥१७५॥

नुप मुग्घ सेभल कर बोल उठा “हे देवि! यहाँ क्‍या सपना हैं? में खड़ा एक मानव भोला नल नाम निषध थल अपना है ॥१७६॥

देवों को कल करतूत लिये

प्रतिबन्धित उपवन् में आया। अपनी कही प्रभुता इसमें

हे, दंवि! सुरों की यह माया १७७।॥

पायी पत्रिका स्वयंवर की मन चाह हुई इस देश चला। बन पथिक राह-गिरि-सरित नाँघ आया सहकर पथ - जनित बला ।॥१७८॥

यथ-बीच वरुण सुर, अग्नि, धर्म तीनों को ले सुर - राज मिला। बह भी प्रत्याशी बन आया सुर-त्रय क्यों पीछे रहें, भला ! ॥१७६॥

स्वयंवर-साज सर्ग

चारों के मन में चाह बनी बाला दमयन्ती हो मेरी।

उनका अतुनय संदेश यहाँ पहुंचाने को अपनी फेरी ॥१८०॥

सुर कामरूप प्रभुता वाले

उनके ढिग कहाँ अभाव रहा ? सचमृच ही है वे चयन - योग्य

मधु - साज, अमर ख़ूंगार जहाँ | १८६१॥ चारों में चाहे जिसको भी

बाला सस्‍स्नेह चयन करे ली, सुख-साज, मधुरिमा, वेभव से--

जीवन की निज झोली भर ले १८०॥

यह कह नल ने परिचय पूछा बालाओं से घीमे रबर मे, नय का स्वरूप शुभ जान पढ़ा मृदु बोली से अच्तर-तल में ॥?१5२॥

आली परिहासा चुप रही

मुस्कान भरी ममता बाली। वाणी की छलकन मधुसस से,

दोलित ज्यों अघरों की "पाती ॥2६ ७,

“नर-वर ! जिसका जो हो आया उसका तो पहले मिलन बता पुन रहे नहीं उस कोकिल का -- पंचम स्वर है किस भाव सना ? ||१०५॥

रद्द

हंस-कलाधर

मधुपगी तितलियाँ नाच रहीं

उर भावभरी किस उत्सव में ? अ्रमरों का गुन-गुन' गान बना--

सन्देश सफल मधु वेभव में। १८६॥ कोमल हरीतिमा में विकसी

सुमनों की लाली सस्मित - सी, क्या कहती मौन भरे स्वर में

मादक उभार में विलसित-सी ? ॥१८७॥

कोमल कलिकायें पलक उठा पाकर विकास क्‍या निरख रहीं ?

किन नयनों की मादक गति में-- प्रिय-मिलत-भाव-रस परख रही? १८०८॥

उनकी जो भाषा जान सके

तो परिचय हो पावन उर का | अन्तर की सहज रागिनी से--

वह राग मिले मधुमय स्वर का ॥१5६॥

श्रीमान आपको अब तक भी

वह बात मिली सत्यता की ?” आलीगण में नव भाव लिये

मुस्कान खिल उठो ममता को ॥१६०॥

फिर बोली, “हे नर-राज ! सुनें

हम सब हैं अन्तरंगः आली। पहले परिचय जिसने पूछा

रख दें उसके मुख की लाली ॥१६९१॥

स्वयंवर-साज से १६६

मेरी बोली उसकी समझें

यह बात सरल निरछल स्वर की | नर-नाथ, यही वह दमयन्ती

रचना जिस हेतु स्वयंवर की ॥१६२॥

है, देव! यही प्यारों आली

ढिग बात सरल मन से कर लें। उसकी कोमल प्रिय वाणी का--

अन्तर - वीणा में स्वर भर ले १६३१

दमयन्ती मृदु मुस्कान लिये

भू-ओर, नमित - मुख, भूली - सी तियंक मुख कर फिर निरख पड़ी,

उपवन रवि-सान्ध्य-कला विकसी ॥। १९४॥

स्वीकार - भाव ज्यों रूप लियः

क्षण कोमल सरस प्रदशंन में, अब नयन - लाभ - सीमा - रेखा--

पर पहुँच चुका प्रिय दशंन में ॥१९५॥ वह प्रश्न - पत्र मिल गया आज

जिसका उत्तर अपने मन का, आशानुसार मिलने वाला

भरपूर अंक निज जीवन का ॥१९६॥

अन्तर की विह्नलता में रुक-- क्षण भर, राजा फिर बोल पड़ा, “हे. देवि! बात तो ठीक रही फिर भी देवों का मान बड़ा।१६७॥

(७०

हंस-कलाधर

सन्देश लिये उनका आया

उनपर ही प्रथम विचार बने, मेरा होगा सदभाव साथ,

सुर भी तो हैं मेरे अपने ॥१६८॥॥

सुर कामरूप सुन्दरता कौ--

लीला अद्भुत रचने वाले। धरती पर वह सुख-साज कहाँ

जो क्षण-क्षण सुख-छाया डाले ?” ।१६९॥

यह अवसर कुछ कह देने का---

दमयन्ती को अब जान पढड़ा। संहमी - सी धीरे - से बोली

वाणी का कर सम्मान बड़ा ॥२००॥॥

“भपाल, सुरों का अमर साज मेरे जीवन का राज नही। तव जीवन - गंगा जहाँ मिले मम कृति-यमुना का साज वही ॥२० १॥

होगा अपना वह तीर्थराज

वाणी की धारा से मिलकर सम्पूर्ण यही मम ज्ञान - कला

इससे अन्यथा है, नर-वर ! ॥२०२॥

नर-नाथ, सुरों का अमर साज

खलने वाला ही बन जाता। उससे जीवन का सहज प्रेम

अन्तर में कहाँ उत्तर पाता ? ॥२०३॥।

स्वयं वर-साज सर्ग १७१

सुख-दुख की रेखायें मिलकर जीवन के सहज समपण में-- जो परम चित्र रच देती हैं, बह कहाँ सुलभ सुर-जीवन में ॥२०४॥

कत्तंव्य यहीं का किया हुआ

सुरपुर में फल दिखला पाता। सत्कृति के फल से सुख पाकर

नर-लोक पुनः नर जाता ॥२०५॥

देवों को रहती ललक यही नर-लोक-बीच शुभ जीवन हो, पाकर स्वरूप का ज्ञान सहज अपने को पाकर पावन हो ॥२०६॥

अपने मन की तो बात यही

सुन्दर जो लगती अपने को, इन चरणों पर सब कुछ रखकर

तव हित देखें जग - सपने को ॥२०७॥

है, देव ! हिंचक बने मन में

मैं सुमन प्रेम का भेंट करू मेरे उर-भाव आप के हों

चरणों पर उन्हें समेट धरू” ॥२०५॥

वाणी के कोमल कम्पन से

अन्तर-दोलित नल मुदित हुआ मानस की सुमनिल लहरों पर

ज्यों प्रेम-बाल-रवि उदित हुआ ॥२०९॥

2२

हँस-कलाधर

छवि-मोहकता के संगम पर-- जीवन-गति-भाव मिलाता - सा अवसर लखकर फिर बोल उठा लज्जा का भाव दिखाता-सा ॥२१०॥

“हे, देवि ! मुझे क्या हिचक रही,

तेरे मन में जो भाव बना, उस पर अधिकार मात्र तेरा,

कह सके कौन उसको अपना ?॥२११॥

तेरा अनन्य वह प्रेम सहज

किस पथ होकर चलने वाला, उसको तो स्वयं जानती हो

फिर अन्य कौन लखने वाला ? ॥२१२॥

अपना हो जेसा भाव बना

कर सकती हो भोली बाले ! सन्ध्या की पूजन-बेला में

मन में तव कौन विध्न डाले ? ॥२१३॥

पहले सब मिलकर एक साथ

मन्दिर में जा पूजन कर ले। अद्धानुसार विश्वास - लाभ--

कर मद्य की झोली भर लें॥२१४।॥

मैं यहाँ बेठ कुछ क्षण बाले ! कलरव, खग - साज निरख पाऊँ, सुमनों से विलसित उपवन में-- कोकिल-स्वर-भाव परख पाऊँ।॥॥२१५॥

स्वयवर-साजसर्ग

स्वर-भावित चंचरीक ुन-गुनः

मादक स्वर में क्या कह पाता ? परियों-ली चपल तितलियों को--

मृदू राग-रंग क्या समझाता ? ॥२१६॥

बाले, सम्मुख उस डाली पर--

कर रही परेई क्या सलाह ? प्यारे निज श्ानत परेवा से--

कसी दर्शाती प्रेम - राह ?॥२१७॥

मुस्कान मुदुल कलियाँ बिखेर

खिल सुमन-भाव में क्‍या कहती ? विकसित अन्तर निज खोल सरस

देख. कया आवाहन करती ॥२१५॥

कहती हो सत्य, समझ लू गा-- मन में इस प्रक्षति - व्यवस्था से

पुजन कर लें, तब तक समझ भावी पथ स्वस्थ अवस्था से” ॥२१९॥

सखियों ने देवी - पुजन में--

सदभावपूर्ण निज ध्यान दिया, पूजन के पहले ही जिसने

उनके भावों को मान लिया ॥२२०॥

देवी के सम्मुव आज नथी

आशा की अद्भुत ज्योति मिली पावन वन्दन में आज मग्न

कुछ समय हुई नर-पाल-लली ॥॥२२१॥

२७३

१७४

हंस-कलाधर

अन्तर - रेखा. दीपित होकर

देवी से भाव मिलाती-सी जगमगा उठी अशुषम बनकर

अम्बर के स्वर में आती-सी | २२२॥

अम्बर - वाणी सुन पड़ी उन्हें

कानों को शीतल करती - सी, मशा निदरवचय पूरी होगी

यह भाव हृदय में भरती - सी। २२३॥

“बाले ! वह विजय तुम्हारी हैं,

जिस पर मन को आधार बने, अन्तर - धारा के संगम पर

भावों को नव संसार बने ॥२२४।॥।

बाधा तो मात्र परीक्षा हैं

बस, प्रेम - राह में, फल वाली। श्रद्धा की गति - पावनता ही--

पाती विश्वासमयथी लाली ॥२२५॥

यो कह नभ - वाणी शान्‍्त हुई

दमयन्ती को आसार मिला | सखियों के तरित - थकित मन को

सन्‍्तोषपूणं. आधार मिला ॥२२६॥ वाणी का अपने भावों की--

वन्दन - विधि से सत्कार किया। आते - जाते सस्देहों को--

मानस - रेखा से पार किया २२७।।

स्वयंवर-साज सर्ग

पूजन, नीरांजतन कर सभाव

मृदु - भावों को मन में समेठ, लेकर प्रसाद -लौ नृूप समीप

आयी करने शुभ सुमन-भेंट ॥२२५॥

नल के समीप गति बनी मथुर

फिर प्रेम-भमरी बॉलाओं की। भावों की कलियाँ खिली मुदित

किरणें पाकर आशाओं की।२२९॥

पाकर प्रसाद -लोौ जीवन में--

वह पहली बार निहाल हुआ। अब तक तो वह भूपाल रहा

अब प्रेम-भरित उर-पाल हुआ ॥२३०॥

कर विकसित सुमन गुलाब लिये

सहमित बाला नल-पास गयी, अन्तर-स्वर-तार मिलाने को

छवि - वीणा - सी श्वृंगारम्री ॥२३१॥

मन के उद्गारों से श्रम पा-- प्रस्वेद मुदुल॒तन ख्रवित हुए। शशिमणि दोनों के हृदय आज मुखचन्द्र-सुधा-छवि-द्रवित हुए ॥२३२॥

हर अंग मधुरिमा के साँचे--

में राग नवल मृदु भरता-सा, कोमल अजञ्जुलि में सुमन धन्य,

उपमान-चुनोती करता - सा ॥२३३॥

१७५

१७

हख-कलाधर

कर-पललव में शुचि सुमन आज

सहिदानी के स्वर विलस रहा, सस्मित मुख-शशि-छवि-कला निरख

नव राग-रंग में विहेंस रहा ॥२३४।॥

चपला ज्यों शशि से मिली आज

कल कुसुमरूप उर सार लिये, मधु-राग-अंक की आशा से--

सज्जित मोहक श्रृंगार किये ॥२३५॥

नल रोक पाया अपने को

कोमल अञ्जुलि आगे कर दी, जिसमें बाला ने सुमन - रूप

नव भावों से आशा भर दी ॥२३६॥

सस्मित - से युगल सलाज - भाव

नयनों के चार विचारों में, आशा की चपला चमक उठी

यौवन - घन के शथ्यूगारों में ।।२३७॥

भावों की चमकीली डोरी नयनों के कर उर बाँध सकी, वह दमक मधुर आभा वाली अ्रम-अध-तम:ः पथ नाँघ रुकी ॥२३८५॥।

वाणी की गति अवरुद्ध जान

परिहासा धीरे -से बोली, निश्चय की बन्द पिटारी ज्यों

मृदु कथन-कुछ्जिका से खोली ॥२३६॥

स्वयंवर-साज सर्ग १७७

“है, आये ! आज का ही निश्चय मेरी आली का जीवन-बल पर मर्यादा लौकिक रख दें-- शुभ सजे स्वयंवर में कल [॥२४०॥

आली-कर की शुभ जयमाला

उर-आआजित सहज सनाथ करें, फिर अपने विकसित हुथों सें

आली के कोमल हाथ धरे” ॥२४१॥

यह सुनकर नल-दमयन्ती के--

मुख-देशों पर मुस्कान चली, छवि-कला-केन्द्र-दयय पा नत्तित

ज्यों भावित हो घन-विभा-लली ॥२४२॥

“प्रेमाश प्रार्थना बाला की,

मेरी भी होगी तत्परता। उसके निश्चय की रेखा वह

छू सके कौन-सी असफलत्ता” ॥२४३॥

वह प्रेम-पूर्ण शुभ मिलन रहा

यौवन - बहार में खिलता-सां, विकसित वसचन्‍्त के नत्तेन में--

स्व॒र - ताल कलित ले मिलता-सा ॥।२४४॥।

राजा ने छुम संकेत किया

आशा लेकर घर जाने का। अपने निश्चय का भाव दिया

कूल प्रात स्वर्यंवर आने का ॥२४५॥

१७८

हंस-कलाधर

नप बोला, हे बालाओं, अब

अपने वितान - थल जाऊँगा ! मंडप-श्री सजे स्वयंवर में--

में उचित समय पर आऊँगा ॥२४६॥

अब एक साथ मिल घर जाओ

देखो, सन्व्या - वेला आयी, मोहक सुरंग ले अम्बर सें--

अनुराग जनित स्वर भर लायी ॥२४७॥

जग की कलरंजित मधु लीला

क्षण भर मज्जित अरुणाई में, रवि निरख-परख ज्यों डब चला

भावों की निज गहराई में ॥२४८५॥!

दिन भर जग-लीला देख सहज

रवि ने अस्ताचल पार किया, सन्ध्या की लाली छोड़ सुघर

आगे पथ का आधार लिया ॥२४९;

अपनी कलरंगी आशा में--

वह अस्ताचल पर रुक भोली-- सन्ध्या अब खड़ी विचार रही

कर ले सिन्दूर - भरी झोली ॥२५०॥

उससे लेकर सिन्दूर दिव्य

वह माँग भरित किसकी होगी किन हाथों में वह हाथ किये

उर-स्नेह-सार किसको देगी ?”॥|२५१॥

स्वयंवबर-साज सर्ग

परिहासा सस्मित -सी बोली

“सिन्द्र दिव्य निज कर धर दें अवसर आने पर आली की

शुभ माँग कलित कर से भर दे” ॥२५२॥

क्षण भर वह हास - विनोद - भाव

रसमयता का आधार बना, आशा - सरिता - संतरण - समय

नव प्रेम - पुलित - संभार बना ॥२५३॥

कर वन्दन और नमन समुचित

बालायें निज घर -ओर चलीं। मन के साँचे में ढली हुई

नुप-नयनों को अति लगी भली ॥२५४॥ कैसे उनके उपमान बनें

स्वगिक सुरचित तन परियों के ? चन्द्रिका - निमज्जित घन - वन में

क्षणप्रभा सहश तन ललियों के? ।॥२५५॥

नृप सोच पाया, क्या विधि की--

रचना भी ऐसी हो पाती, जिसमें वसन्त--श्री ड्ब - तिरे

मधुमय विकास में मदमाती ? ॥२५६॥

कोयल क्या फिर अब बोलेगी

इस सुमन - भरे कल - दावों से ? ऐसा उपवन - विहार फिर क्‍्यों--

रुतझुन नूपुर-स्वर भावों से ? ॥२५७॥

१७६

१५०

टंस-कलाधर

मधुमास - कला जीवन - रस की

छवि - नत्त में स्वर - तालवती, प्रकटित वेदर्भी के स्वरूप

वगराती श्री क्षण-क्षण लगती २५८॥॥

राजा नल मोहित भावों से--

सुधि भूल गया छवि - अंकन में यकतार निरखता खड़ा रहा

उमड़ित क्षण-क्षण नवता तन में ॥२५९॥

बालाओं ने मुड-मुड़ देखा

नृप - तन-छबि सुघर निराली-सी, नयनों से पीने योग्य, अहा !

सौन्दर्य - सुधारस - प्याली - सी ॥२६०॥

तन का सुढार संभार, जहा!

किस रमणी को विकल कर दे यौवन - विकास में लहरित वह

नव तन-श्री कहाँ रस भर दे ? ॥२६१॥

स्वयं वर-साज सर्य १८१

चलते -से मोहन - वाण रहे

तन - छवि - भावों के उर-थल से यद्यपि वह सधि - मिलन निश्चित

फिर भी प्रहार अन्तर-बल से ॥२६२॥

पथ में शोभा बगराती नव

चल पड़ी कुमारी भोली - सी, आशा-घन में कल कौधमयी

दीपित चपला की डोरी - सी ॥२६३॥

श्दर हंस-कला छर

दोनों फिर एक दूसरे की-- छवि अन्तर - पट पर अकित कर, निज - निज पथ - गामी हुए घूम कुछ समय-शिला पर विरचित कर | २६४॥

निशि - वेला का चिन्तन - भावन

कल्पित पथ का आधार बना नल दमयन्ती के सपनों में---

कोतूहल का उदगार बना ॥२६५॥

स्वयेवर-सर्ग

खपनों की अपनी लीला रच

ध्यारी रजनी अब बीत चली ॥।॥ ऊषा झाँकी मुस्कान भरी

ज्यों पा निकली श्यूं गार-गली ११

अरुणाई का जादू लेकर

रविमंडल आज निखर पाया जग की लीला में थिरक उठी

नत्तन कर किरणों की माया ॥२॥

ग्रातः फिर धूम मची अनुपम

वह चहल - पहल लग और रही। शुचि साज स्वयंवर - भावों का--

अब निरख हुई अति धन्य मही ॥३॥

अपने - अपने. श्रृंगार - साज---

में भूप सभी थे लगे हुए। प्र्याशी बनकर भाये जो

आशा के मध्‌ में पंगे हुएं।॥झा।

विधिवत मंडप के बीच हुआ

फिर पूजन, हवन, दिव्य बन्द शभ हांखनाद गुरु गहन हुआ

आवाहन - हित देकर निस्‍्वन ॥५॥

१८४

हुंस-कलाधर

लेकर समाज फिर पहुँचे

नप अपनी नव तत्परता सेै। समुचित आसन पाकर बेठे--

निज गौरव की सुन्दरता से ॥६॥

वह भव्य प्रदर्शन अति सुन्दर,

ज्यों शालीनता स्वरूप धार नाना तन धर छविमयी हुई

दिखलाती - सी शछूगार ढार॥७॥

सज देव अलौकिक आसन पर

होकर सत्कृत आसीन हुए। कल कामरूप माया वाले

सुन्दर छवि धरे नवीन हुए ॥५॥

वह॒ पास सुसज्जित आसन था

जहाँ विराजित निषधराज, जिसकी आगमन - विभा से खिल

जगमग मंडप के कलित साज ॥६९॥

भूपाल चमत्कृत क्षण भर सब

वह रूप निरख नर-नओपृगव का। नर-रूप कलित अनुपम झाँको--

में सार फलित ज्यों उत्सव का ।।१०॥।

ऐसा सुन्दर नर - रूप अहा -- आँखों का विषय बन पाया। बह देश, काल, कुल धन्य हुआ जिसमें पोषित ऐसी काया ॥११॥

स्वयंवर संग श्य्छ्‌ सबकी आँखों में रूप वहीं नत्तित चिन्तन-सर 5" लहरा पर

लहराता सस्मित जान पडा बढ़ता फलन्हेतु पुलिय पर वर।॥।१२।

चिन्तित अति चकित्त देव सहमित

नूषप. के स्वरूप श्ूगारों से। युर कामरूप, पर देख विकल

समता में न्‍्यून विचारों से।॥।॥१5। देवों के मन में बात जेंची,

“हम्म भी नल का रवह्प धरत, अपनी देवी सुन्दरता से--

बाला का मन्र कंदित कर ले ॥६ »। होती लख हार होड़-थल पर

नल - रूपए - नकल यूर धार यक जो कामरूप माया बाले,

बस यही यत्व बाकी उन ॥१५॥

फिर भी असमंजस और बड़ी

बाला भ्रम भें किसका होंगी ? चौकी - सी निर्णय क्या लेगी,

जीवन का दाँव किस देगी? ॥१६।॥

चारों देवों के रूप कल्ित नल के समाव ही आराजमान | अव रूप कौन वह किसका है, इसका सहज हो सका भान ॥१७॥

९१५८६

हुस-क्रलाधर

सुर-वर नर-वर की सुन्दरता--

लख सहम गये मन हार मान। आजा की रेखा दूर हुई

मंशा का दाँव अलम्य जान १८५॥

फिर भी देवों की माया तो-- भीतर से कसी हो पाती ? नर - लक्ष्य - सिद्धि की बेला मे-- नाना रूपो में बहकाती ॥१६॥ नर रहा अडिग तो देव द्रवित-- आशीवेचन देने वाले जेसे वे मात्र परीक्षक हों पथ अन्त सफल करनें वाले ॥२०॥॥

तब तक उद्घोषक बोल उठा

भूषालों को इंगित करता, आकर्षण की निज बोली मे--

भावी विचार का रस भरता॥२१॥

“प्रत्याथी निज-निज थल होयें

दर्शक-जन हों अपने थल में, दमयन्ती अब रही यहाँ

जयमाला लिये स्वयंबर में” ॥२२॥

वह सभा चमत्कृत, सावधान, पथ लगी निरखने बाला का, वह विद्व-सुन्दरी कंसी है, वह प्रेम-माव क्या माला का ?॥२३॥

स्वयंवर सर्म १८७

तब तक मंडप ही दमक उठा अम्बर ज्यों क्षण-छवि होने से, आला सखियों-सेंग. दीख पढ़ी दामिती-विभा-सी कोने से ॥२४॥

आगे चलती वह दमयन्ती

जयमाला शुभ मोहक कर लें, दर्शक-दल के मव डूब तिरें--

छवि-भावो के सर-पाथ मिले ॥२५॥

सखियों ने था श्वूगार किया

समुचित सुवस्त्र आभरणों से, अपने में सज्जित छवि-कलिता

फिर भाव और उपकरणों से ॥२६॥ कल कंगन सरव किकिणी से--

मिलकर नतृपुर - ध्वनि-तालो पर, लयबद्ध गान सखियों से पॉ--

माला में देता कम्पन भर ॥२७॥

सब अंग मनोहर अपने में--

मुदु मौत कहानी कहते -स लहरित ज्यों काम-सरोवर मे--

सुमनों के स्वर में हिलतेनसे ॥२८॥

बोवन - विकास के अंग सुघर--

सम्मोहन वाण चलाते थे, भूषण - वसनों में लुका - छिपी--

कर मधु -सिंगार दश्ाति थे ॥२६॥

श्८घ८

हँस-कलाधर

वह॒ सुमन - कुन्तला गन्धवती

अलिभावों में नयनों को कर, होगी किस पर अब रागवती

मकरंद महाछवि तन में भर ॥३०॥॥

घन केश - राशि लख नृप-तयनों--

के भाव शिखी -सम हो पाये, मन की मोहक हरियाली पर

नत्तित -से छटठा निरख भागे ॥३१॥

छवि आनन में कमनीय कलित

नयनाभिराम कलना मन की। चितवन में मादक प्यास भरी

सस्मित द्विज-पाँति दमक घन की ॥॥३२॥

आलीगण के आगे बाला

जयमाला कर में लिये लसित, मनथर गति में छवि - छलकन से

होते नर - भाव सहज विचलित ॥३३॥

प्रिय प्रेम - प्रशिक्षण ले जेसे--

शगार - लोक से आयी हो, वस्त्राभषण की छटा साथ

छवि - सार सुतन भर लायी हो ॥३४॥

परिचय में आने लगे भूप

परिचायक के कोमल स्वर में, दमयन्ती निरख परख बढ़ती

नराश्य छोड़ पीछे दल में ॥३५॥

स्वयवर सर्ग

कह सके कौन छवि भाव वहाँ

शोभित नव हंस - गामिनी का। आगे. कलकौंब, पात पीछे

उल्टा व्यापार दामिनी का ॥३६॥

बाला के बढ़ते जाने में--

कौतूहल जेसे झाँक रहा। दर्शक - दल भी वह चयन - रूप

टकटकी लगाये ऑक रहा ॥३७॥

तब तक दमयन्ती ने देखा

तन - श्री - विकास अनुपम नर का, उपवन में जिसको चयन किया

देकर सदभाव - सुमन वर का ॥३५॥

दमयन्ती क्षण भर निरख रुकी

मृदू चपल चमत्कृत आँखों से। अन्तर में उसे निवास दिया

वह रूप अलग कर लाखों से ॥३९॥

बालाओं ने भी रुक देखा

अवसर का दाँव हाथ अपने, आशामय रचित विचारों के--

पूरित होने वाले सपने ॥४०॥

दमयन्ती मन की रचना में---

भावों की रेखा खीच रही, योवन - स्वभाव, छवि - रंजन में-..

क्षण पड़ी मोह के बीच रही ॥४१॥

श्पड

१६०

हँस-कलाधर

तब तक जेसे रस भंग हुआ परिचायक परिचय दे सका | लख निषध - राज के पाँच रूप

समरूप निरख माथा ठनका ॥४२।!

सखियो ने भी जब देखा तो

यह बात समझ में सकी, आइचये भरे जादू की-सी

यह दीख पड़ी माया किसकी ? ॥४३॥

सुख के सपनों से जागी तो

मुड़कर दमयन्ती ने देखा, सुख-भरी ललक की आँखों में--

क्षण नाच उठी चिन्ता - रेखा ॥४४।॥।

समता के एसे रूप बने

फिर भेद - भाव कुछ हो सका देखा, सोचा--यह चमत्कार !

इसमे क्या राज भरा किसका ? ॥४५॥

पर बात तुरत वह ताड़ गयी, यह रही सुरो की ही माया। वे कामरूप क्षमता वाले रच लेते क्षण भर में काया ।४६॥

गुरु हंसराज को याद किया,

अन्तर - प्रेरित नव भाव जगे, जेसे कोई समझाता हो

“मत चिन्ता कोई कर सुभगे !” ॥४७॥

स्वयंवर-साज सर्गे

असमय की दूभर बेला में--

धीरज को सदा सहायक कर, चलता जो समझ विवेक सहित

होता है वही सफल पथ पर ॥४५॥

देवी का ही वन्दन कर ले

वे ही शुभ राह बतायगे, अपने स्वरूप फिर प्रकठटित कर

रक्षक तेरे बन जायेंगे ॥४६॥।

अमरों के लक्षण उनपर जब

अपनी आँखों से दंख सके, अपने विवेक से स्वयं जान

तब सफल परीक्षा में उनके ॥५०॥॥

दमयन्ती ने तब हाथ जोड़

उन देवों का क्षण ध्यान किया पावन बन्दन मन से कर फिर

सदभाव सहित सम्मान दिया ।५१॥

देवों ने देखा, बेदर्भी--

कातर स्वर में कुछ बोल रही, उसकी उस सकरुण चितवन में--

भावों की व्यथा अमोल रही ॥५२॥

“दंवों से मुझे आज्या थी--

होंगे वे कभी प्रेम-बाधक लेते है खरी परीक्षा जो

होते फिर सहयोगी साधक ॥॥५३॥

१६९२

हँस-कलाधर

हे, देव! कथन क्या सत्य नहीं

या देख रही हूँ मैं सपना ? सचमुच ही बाधक आप बने

या मुझमें ही है श्रम अपना ?॥५४॥

दमयन्ती के उन भावों का--

देवों ने भी सत्कार किया। निज रूप प्रकट कर भाव-सहित

सुर-रूप कलित आकार किया ॥५५॥

अमरों ने आशीर्वाद दिया

“तेरा मंगल निश्चय होये, प्रिय का तुझको सौभाग्य मिले,

तेरी ही आज विजय होये” ॥५६॥

सुरराज समाज सहित अपने

निज देवरूप का दिया भास। मंगलमय. वातावरण बना,

सुन्दरियों ने ली सुखद साँस ॥५७॥

बाला ने देखा देव - भाव,

उनकी रही छाया बनती, पद भूमि नहीं कर परस रहे

पलके मनुज - स्वर में झंपती ॥४५८॥|

हाथों के सुमन रहे ताजे

मक्षिका वहाँ पहुँच पाती। पहचान हुई उन देवों की

आशा की राहु मिली आती॥४५९॥

स्वयंवर से

फिर देखा बालाओं ने मुड

नल के सस्मित मृद भावों को। दमयन्ती निरख सभाव रुकी

भुली क्षण सकल व्यथाओं को ॥६०॥

नयनो की ज्योतित रेखा में--

अन्तर का प्रेम - प्रकाश मिला, बह कौंध कि जिसमें आशा के--

मधुमिलन - राग का सुमन खिला ॥६१॥

अन्तर - उदगार फलित रूपित

निरमेिल यदि सम्मुख जाये, निशछल जीवन की राह पकड़

शुचि प्रेम-लोक तक फ्हुँचाये ॥६२।

वह॒ प्रकट रूप में दीख पड़ा

दर्शक जन निरख निहाल हुए उस सफल युग्म की रचना लख

विस्मित अति सब भृपाल हुए ॥६३॥

देखा बाला ने बार - बार-- नल का सुरूप, जो अब अपना। दुख को माया मिद चली सहज अब कहाँ रहा भ्रम का सपना ? ॥६४॥

सहिदानी का वह फूल मृदुल

कुछ - कुछ मुरझाया जान पढ़ा, अपने कर का जो दिया हुआ

निज निरचय से पहचान पड़ा॥६५।

€्ए

हुस-कलाधर

मोती - माला भी झलक पड़ी बाला ने उसको देख लिया।

अपने विवेक से नस-झवर के लक्षण बिचार सनन्‍्तोष किया ॥६ दा)

सन्‍्देह वहाँ कुछ रहा नहीं

अब निषधराज के होने में। माया की छत्र॒ना दूर हुई

भग तमोलोक के कोने में ॥६७॥

परिचायक्र ने. बतलाया फिर

“हे, देवि! यही है निषधराज, राजा नल, जीवन - भाव - भरे

पर दुष्ट-दलन-हित अनल-साज ॥६5॥

जेसे बाहर हैं दीख रहे वैसी मन की मुदुता वाले जन - सेवी, कारुणीक, प्रंमी इन पर विचार कर ले, बाले !” ॥६९॥

बालाओं ने मुस्कान भरी, नल के अन्तर में प्रात हुआ, पा सुमन - राग सन-मधुप पास रोमांचभरित मृदु गात हुआ ॥७०॥

सस्मित सलाज दमयन्ती तब

शालीन भाव से आगे चल, नल के सम्मुख पहुँची समाल

मुद्रा गति भाव लिये कोमल ॥७१॥

स्वयंवर से

बयमाला अपनी शोभा में--

आकर्षण - भरी विराज रही, दमयन्ती के मुद्र हाथों में--

नव छुटा दिखाती आज रही ।॥।७२॥

घनमाला को चपला - वाला

प्रकटित शशि का मधुमिलन जान माला ले लत्ित कला की ज्यों

तत्पर रखने को हुई मान ॥७३॥

श्रद्या छविवती प्रकट जैसे

आशा की माला लग्यी हो, छविमान प्रकट विश्वास देख

प्रिय जान सहज ढिय आयी हो ॥७४॥

अपने निएचथ पर अड़ी हुई,

प्रा सपनों का साकार भावन, खिल उठी स्वयं में दमयन्ती

पाया जीवन - आधार जान ॥|७०।।

आलीगण से संकेत मिला

मुदुता की दिव्य छठा छायी। दमयन्ती ने जयमाला शुभ

नल के भ्राजित उर पहनायी ॥७६॥

नभ सुमन-वृष्टि बहुरंगसयी आशीबंचन के साथ हुई। वह ललित गान सखियों से सुन तर-वर के साथ सनाथ हुई ॥७७॥

(६४

(६६

का

हँस-कला घर

देकर शुभ आशीर्वाद देव

कर प्रेम परख निज लोक चले, फिर “धन्य देव” जयकार लिये

दिव-पथ पर जाते लगे भले |छदा/

छुटी स्वजनों की कुसुमाञझजलि

शुभ स्वस्तिकार के भावों से। विह्वलता भरे निहाल सभी

ममता के पूरित दावों से ॥७९॥

माता मंजरी प्रियंगु मुदित

कर कलित थाल उपहार लिये, पहुँची पति भीमराज के संग

सचित जीवन का प्यार लिये ॥८०॥|

वह समा निराली अपने में--

भावों के साथ निहाल हुई। नेयनों में रूपकला रमती

पर वाणी की गत चाल हुईं॥5५१॥

उपहार लाभ कर राजा नल

अनवरत सुमन - कल - वर्षण में-- बगराते -से श्री केन्द्र बने

अनुपम छविमय शुभ दहन में ॥८२॥

नयनों में जादू की माया

सस्मित बिखेरती सुमन - हास छुटी कुसुमाञ्जलि सखियों की

भरकर मन में मधुमय हुलास ॥5८३॥

स्वयंवर सर्ग

प्रत्याशी असफल विवश पढ़े

चिन्तित अपनी असफलता में, अपनी कटु दशा विचार चले

कठित - से भाव - विकलता में ॥८४॥

पुर की ललनाओं में जंसे

उत्सुकता को आकार मिला, वर- वधू - छटा में रूपित ज्यों--

अनुपम जीवन - श्रृंगार खिला ॥८५॥

बालायें चँवर - धारिणी कुछ

पीछे से चँवर इुलाती थी, ज्यों सभा - बीच यौवन - श्री की

प्रसरित छवि पास बुलाती थी ॥5८६॥

मणि - हारों की मुद्रु जगमग में-- शोभा - सुराग के भाव लिये,

किन नयनों में भरी मधुता छवि से अन्तर - प्रस्ताव किये ॥८5७॥॥

न्दरतत। की सीमा - रेखा नयनों में विषय - विचार बनी,

निइछल भावुक्त उर-प्रियता को छवि - अंकन - हित आधार बनी ॥८८॥

जिसके भावों की मन - माया

जिस आशा तक जा पाती थी, दर्शन की मोहक रूप - कला

वैसी उसको बन जाती थी ॥5६९॥

१६८ हँस-कलाधर

मणि - जड़ित दिव्य अति सजे हुए रथ में बाला आसीन हुई पर निषध-राज का पादवे आज उसकी छवि - छटा नवीन हुई ॥६०॥

आगे था उचित उपक्रम अब

सिन्दर -दान होने वाला, धर्मानुतार सम्पन्त व्याह--

हो सके सफल कर जयमाला ॥६१॥

राजा का प्रेमादेश मान

नल नव हित-साज-समाज-सहित-- दमयनती को भी साथ लिये

चल पडा महल की ओर म॒दित ॥६२॥ जय - जय ध्वनि से सत्कार हुआ

मंगल गीतों का भाव मिला। वाला - सखियों की मुदिता से

अन्तर-वसन्त का सार खिला। ६३॥।

स्वागत - सुवास के भाव आज

जुसे आकर साकार हुए, नव रीति - प्रेम के भाव साथ

देते सबको सत्कार नये ॥६४॥

सबके मन में यह चाह जगी देखें मंगलमय व्याह - साज, नल - दमयन्ती का पाणि - ग्रहण हम निरख-परख हों घन्य आज ॥६५॥

स्वयंवर समें

स्वागत उछाह में दिन बीता सन्ध्या सुहाग रच चली गयी,

अम्बर में शशि मुस्करा उठा तारक-छवि लगती आज नथी ॥६६॥

विरचित विवाह - मंडप - रचना

लख चन्द्र - कला विस्मित होती। मणियों की जगमग ज्योति सहज

तारक-स्वर में झिलमिल करती ॥६७॥

शोभा विकासिनी आभा से

मणि - दीपों का व्यापार रहा, पाये छवि जिससे सुन्दरता

नयनों का हो उपकार महा ॥६€५॥

मन - भायी कला प्रसारित कर आंगार - किरण अम्बर वाली,

विहेंसित मधु-श्री ले नाच रही भावों में भूली मतवाली॥६९॥

मुस्कान स्वयं मणिखंभों में

कलभास मधुर रच पाती थी, सुन्दर स्वरूप ढिग पाने पर

अनुपम निखार दे जाती थी ॥१००॥

रत्नों की विजड़ित झालर से--

होता संगन शशि-किरणो का। मणियों की द्यूति आलिगन में--

पाती सुहास उपकरणों का। १०१॥

९६९

२००७

हँस-कलाधघर

सुमतों की नवल विकास - कला

आभासित . पद्मराग. दाली, पकर हरीतिमा के पत्रक

होती विलसित बिखेर लाली ॥१०२॥)

स्वणिम कल कदली - स्तंभों में-- उरू की गुरुता शोभा की - सी,

नव रूप लिये जो विलस रही प्रिय-मिलन-कला-कृति रचती-सी १०३१

शुति स्वर्णकलश की आभा पर

खिल मदन - कला लहरीली - सी चपला का हाव दिखाती थी

अम्बर-घत काम-लजीली - सी ॥8१०४॥॥

चूँदवा में चित्रपी मोहक

नव चित्रों की श्ूंगारमयी, जगमग मणि - प्रभा विकीरण में--

लगती सुप्रीति - उदगारमयी ।॥॥१०५॥

रेशम - डोरी के बन्धन में-- चिपकी - सी कला प्यार वाली। भुदु प्रेम -पाश के द्योतन मैं-- वर भाव सरस कहीं खाली ॥१०६।॥

चित्रावलियाँ. अनुरूप. बनीं

सज्जित मंगलमय अवसर की, मानव - स्वभाव - रेखाओं को

जिनमें मधुता अन्तर - स्वर की ॥१०७॥

दे सर्मे स्वयंवर सभ

जहराते वेसन घ्वजाओं कें--- छवि - ताल -मात्राओं के बल, लुपुर - ध्वनि पा ललनाओं से मुदु स्व॒र-चा लित होकर चंचल ।।१०८३,

दर्पण - सज्जित प्रतिफलन-कला--

से दृ्य और ही हो जाता पंडप का कोई रूप वहाँ

ओझल बाँख से हो पाता ॥१०६९३,

बेदी जसे गौरव - भावित--

रति के हाथों की रचना थो, लयनों के जादू-चित्रण में--

मन - मोह - भाव की कलता थी ॥॥११०॥५ रह - रह कर चमक - दमक होती

घनवत ज्यों क्षण-छबि पाने को सलल दमयन्‍्ती के भावों में--

छूवि-रूप-कला मिल जाने को ॥१११॥

आसन जिसपर बल दमयनन्‍्ती

हो सके साथ में समासीन, मणि - रत्वो की नव रचना में--

लगता छवि-दादी - सा नवीन ॥११२॥

बन कर सुवासिनी राज सके

दमयनन्‍ती श्रीवर साथ आज, दर्शक भावों से आऑँक सकें

दम्पति-श्री का श्रृंगार - सॉज ॥११३।

र्ण०्रे

हंस-कलाधर

परिजन - समूह में समय जान

भर चला उमड़ उत्साह नया। परिणय - वेदी पर श्रीवर के--

आने का तब आह्वान किया ॥११४॥

निज व्याह-साज सज्जित समाज--

ले वरनप का आगमन हुआ। मंडप के वेभव में सभाव

सस्मित श्रीवर का नमन हुआ ११५॥

कर लिये आरती वर-सम्मुख

सुन्दरियों ने ढिग गमन किया। अपने सस्मित मुदु भावों से--

श्रद्धा के स्वर में नमन किया ॥११६॥

शतवार आरती - भावी से--

श्रीवर का शुभ सत्कार हुआ। माता मंजरी प्रिंयंगु मुदित,

जिधतका सपना साकार हुआ। ११७।।

फिर भीमराज ने भाव - सहित

मगल सत्कार नवीन किया। मणि - विजड़ित जगमग आसन पर

बर को सभाव आसीन किया। ११८॥

मन - मोहक, मादक, मधुर-मधुर

आमभा पड़ वर -मुखमंडल पर सुन्दरियों के अन्तर - पट पर

चित्रित उसको करती सत्वर ॥११६॥

स्वयंवर सर्ग २०३६

छुख को मुस्कान विलसती थी मणि - दीपों की कोमल द्य ति में उस मोहक छुवि से नयनों का-- उपकार हुआ अनुषम गति में १२०॥

आगमन - भाव - अभिनन्दन से--

अवसर के सरस बिधान चले विलसित छवि की उस समाँ बीच--

सुन्दरियां के कलगान भले ॥१२१॥

संडप में बाला दमयनन्‍्ती-- को लाने का आद्वान हुआ, घन - विरल - हास - रेखा में ज्यों शशि का चकोर हित भाव हुआ १२२।

आशानुसार वहू॑ रूप प्रकट

मंडप - विधान - दर ति - कलना में, जगमग नखशिख शूंगार लसित

मधु विकसित नव तन रचना में १२ ३॥

तूपुर के रूनझुन वादन से--

किक्रिणी सुराग मिलाती थी। कगन को ध्वनि मुदु तालमयी

गति के रब से मिल पाती थी ॥१२४॥

कौषेय वसन की आभा में-- कल जरी-कापम के भास भले श्रीमंत भाल ज्यों चन्द्र-कला--

राका प्रमदा पा बन -ठन ले।॥१२५॥

हंस-कलाधर

हर अंग मनोहर कलित साज

सखियों की कलाकारिता में॥ बह चाल हंसिनी - सी जेसे--

संतरित मदन - मधु-सरिता में ॥॥१२६। बाहर लज्जा की छवि अनुपम

गालीन भाव दिखलाती थी प्र अन्तर की मुस्कान मधुर

ज्यों अञज्चल पर फहराती थी ॥१२७॥

कोमल बाँहें.. संकोच - भरी

मुदुता के भाव जतातो थी, झीने अम्बर में झलक - भरी

आभरित कला मे भाती थीं ॥१२८५।॥

उभ्रित विकास - तन - लहरों को अम्बर में सहज छिपाती थी, प्र छिप सकी गति भावों में--- इसलिये तनिक शर्माती थी ॥१२९॥

अपने में वह सकुचाती - सी

मुदिता के भाव विचारों मे, चलती ज्यों केन्द्रोभूत हुई

जीवन - रस के श्वगारों में ॥१३०॥

बर के सभीप खड़ी हुईं सखियो के मंगलगान साथ। श्रीवर ने भी उठ भाव दिया

प्रिय वधू-हप करके सनाथ ॥१३१॥

स्वयंवर सरमें

मंत्रों के साथ सुमन - वर्षण

कुसुमाञ्जलि के सत्कारों में बर - वध्‌ - रूप शोभा अनुपम,

मणि - दीप - साज-श्व गा रो में ॥१३२॥

दोनों द्शत की चाह मधुर--

लज्जा की ओठ छिपाते थे, पर दह्ांक छवि नयनों में भर फले - से नही समाते थे ॥१३३॥

क्र

शुचि सुघर रूप प्रतिबिम्बित थे

दर्पण. पर कलित छटाओं में, मोहक श्वूगार, सुछवि जेसे

थिर चपला - रूप घटाओं में ॥१३४॥

जोड़ी पर स्वयं विमोहित वे

वर-वध्‌ स्वयं से इतर जान, नथनों के मोहक धोखे में,

अवसर पर दोनों भावमान ॥१३५॥

दोनों जब स्वस्थ हुए मन से

तब एक दूसरे को विचार, मुड़कर सलाज फिर निरख सके

दर्पण. में रूपित रूप -सा२ ॥१३६॥

वर की शोभा कमनीय सहज

प्रतिबिम्बित दर्पण में निहार--- नयनों को नहीं रोक पाती

बाला मृगनयनी बार-बार ॥१३७॥

२०५०

२०६

हंस-कलाधर

प्यासी आँखों से पान किया वह रूप-सुधा तब जी भर कर, पर प्यास कहाँ बुझने वाली क्षण-क्षण नवीनता के रस भर ॥१३८५॥

नव बूँद-रूप में भाल-बीच

अति मधुर स्वेद तब झलक पड़ा ज्यों नयन-पात्र में अंट सका

वह रूप-सुधा कुछ छलक पड़ा ॥१३६।

वर ने भी दर्षण में देखा

दुलहन दमयन्ती का निखार। वह भूल गया क्षण अपने को

बह निकली उर नव मोह-धार ॥१४०॥

मधुमय विकास की काया में--

रमणीय कला ज्यों खेल रही, नव साज भरी जगमग द्यूति में

ज्यों भरती मौन हिलोल रही ॥१४१॥

शालीन भाव थे झाँक रहे

मुख की कोमल सुधराई में अधरों की लाली मज्जित-सी

अन्तर - रस की गहराई में ॥१४२॥

नयनों में भाव शिथिलता का अपने में पूरित झाँक रहा, कुछ लाज भरी गरिमा लेकर प्रतिबिम्ब-कला-श्री आँक रहा ॥१४३॥

स्वयवर सर्ग

छवि की झाँकी के भाव देख

परिणय का कायें-विचार हुआ, कुसुमाञ्जलि से सुमनिल वर्षा,

फिर मंत्रों का उच्चार हुआ ॥१४४॥

मंगल गीतों के भाव आज

छवि के रस से मिल पाते थे। सखियों के स्वर से भावित हो

अनुपम रस - धार बहाते थे ॥१४४५॥

वर-वध्‌ भाव से दोनों फिर

शुभ आसन पा आसीन हुए। आपस की अनुपम झाँकी से

दोनों के भाव नवीन हुए ॥१४६॥

परिजन, पुरजन, हितजन अपने

सबके सुख-दाँव रहे शेष, भावों में मज्जित भूले-से

छवि लगे निरखने निरनिमेष ॥१४७॥

अब पाणि - ग्रहण, सिन्द्र - दान

कौतृहल के आधार बने। अन्तर - वसन्‍्त की मुदिता में

मधु " सुमन खिले सबके अपने १४८॥

मंगल गीतों के साथ - साथ फिर पाणि - ग्रहण संस्कार हुआ। वर - वध्‌ - रूप से दोनों का-- तब भाव - सहित सत्कार हुआ १४९॥

२०७

र्०८

हेँल-कलापधर

श्रीवर ने कर सिन्द्र लिया

बाला की भर दी माँग सुधर। देकर सुहागिनी का जीवन

प्रिय हुआ प्रिया का जीवन-धर || १५०।

सखियों के मंगल गीतों से-- प्रिय जन - मन भाव सहज सरसे। फिर उनके कोमल हाथों से-- शुभ-सूचक दिव्य सुमन बरसे ॥१५१॥

बाला - सखियों के गीतों में--

गाली के कल-परिहास चले। वर - दुल्हत ने मुस्कान भरी,

अवसर पर सबके भाव भले ॥१५२।!

भगिनी को गाली सुन नल ने ससुरालय का रस - भाव लिया। फिर भी आगे कुछ सुनने को-- मुस्कान - बीच प्रस्ताव किया ॥१५३॥

लज्जाएण आनन खिल उठते विहेंसित अथरों की लाली से। वर - वध्‌ युगल सस्मित होते क्षण व्यंग - भरी मृदू गाली से ॥१५४।॥

आमोद - भरे. परिहास - हास--

से मन की कटुता खो जाती, बहुभाँति व्याह-विधि-स्वर में ज्यो--

धर रूप मधुरिमा लहराती॥१५५॥

ध्वयंवर से २०६

दूल्हत के कोमल अज्चल में--

बर - उत्तरीय की गाँठ जुड़ी। उस प्रेम-भरे शुभ बन्धन में--

जीवन - सुराग की मिली कड़ी ॥१५६॥ बाहर का वह मुद् ग्रन्थि - भाव

अन्तर का पावन मेल बना, अपनापन जहाँ चिपक पाया

जीवन में पा मन का सपना ॥१५७॥

फिर प्रेम- साक्षी अग्तिदेव--

को मान युगल निर्भार हुए। देने फिर लगे भाँवरी शुभ

भर ममता के उदगार नये ॥१५५॥

मंगल गीतो, मंत्रों के संग

उ्जलि - बहार सुमनों वाली, गुदगुदी उठा देती मन में

ललनाओं के उर मतवाली ॥१५६९॥

आगे - आगे वर की गति के--

पीछे गति हंसगामिनी की। प्रतिबिम्बित छवि मणि - रत्नो पर

ज्यों उमिल प्रभा दामिनी की ॥१६०॥॥

विकसित वसनन्‍्त, उसकी बहार दोनों ज्यों मिल गति में मन्थर, पद - चालन की माधुयें - कला दर्शाते पा नव जीवन - स्वर ॥१६१॥

हंस-कलाधर

वर - वधू - रूप प्रतिबिम्बित थे नव जड़ित दर्षणों के ऊपर, सव भाँति कलित छवि - समता में, प्र कमी रही न॒पुर के स्वर ॥१६२॥)

कंगन जो कर लेता सलाह गति - लसित किकिणी के स्वर से, वह प्रेम - कथन मिल सका नहीं चल रूपों में दर्षण. पर से ॥१६३॥।

प्रतिबिम्ब - कला की जगमग में--

भावों के तार मचलते थे, सुन्दरियों के अधरों पर से--

गीतो के स्वर में मिलते थे ॥१६४॥

वर - वध्‌ - साथ गति-भाव धरे

क्षण दे प्रतिबिम्ब - रूप खिलते, मानो श्ुगार सुछवि दोनों

सेवारतः बार-बार मिलते ॥१६५॥

या लुका - छिपी थे खेल रहे

श्रद्धा विध्वास विनोद भरे, शोभा की आड़ी लहरों में--

चपला के नव श्यूगार धरे॥१६६॥।

परिणय-विधान सब भॉति सफल

रुचिकर अति मधुर कल्पना से। आनन्द - मम्न॑ सब लोग हुए

दोभित श्वगारिक रचना से ॥१६७॥

स्वर्यंबर सर्म रह!

यों भाँति - भाँति मोहक विधान--

से व्याह - कार्य सम्पन्न हुए। आशानुसार छुवि - दर्शन सै--

नव राग - रंग उत्पन्न हुए ॥१६८४६

इूच्छानुसार नल - दमयन्ती--

को भावों का सत्कार मिला। जीवन में स्नेह सफलता का--

आशानुसार आसार मिला १६६॥

परिणय के मोहक उत्सव में--

जिन आँखों का सम्मान हुआ, सचमुच उनको छुवि - रसता का

जीवन में उत्तम ज्ञान हुआ॥१७०॥

ज्योनार - व्यवस्था आगे फिर

अपने में आप निराली थी; रसना की रसता ने ज्यों आ--

रूपित सुभोज्य-विधि पा ली थी १७१॥

जेमन - विधान के साथ - साथ

बालाओं का मृदु गान चला। गाली के व्यजित भावों से--

मधुमय सुराग-रस बह निकला ॥१७२॥

अवसर को ग्राली मधुर भली

आनन्द - सुमन बरसाती थी सस्मित आनन - कानन से चल

श्रुति - पथ रस-राग बहाती थी ॥१७३॥

िहऔ। शक

हस-कलाधर

व्यंजन - रस में स्वर की रसता

मिलकर बन जाती स्वादममी, स्वादन - सुहासमय धारा में--

लहरित सुस्मिति आह्वादमयी ॥॥१७४।॥॥

गाली के कोमल भावों से--

श्रीवर का जो सत्कार हुआ दिन-दित मन के अवगाहन को--

मधुरस - प्रित कासार हुआ ॥१७५॥

स्वागत से तुष्ट बराती सब,

निन्दा की कहीं बात मिली। अवसर की बनी व्यवस्था वह

अन्दर - बाहर सब भाँति भली ॥१७६॥

आगत - स्वागत के हेतु सभी परिजन - समाज अतिशय तत्पर क्या माँग, तुरत पूरी करते श्रद्धा - विचार - भावों से भर ॥१७७॥

जन - जन की सेवा समझ - बूझ

अति नम्र भाव से पूरित कर, फिर-फिर लेकर आदेश - भाव

आगे बढ़ते परिजन तत्पर ॥१७५॥

सेवा स्वागत युग रूपित ज्यों

व्यवहार - जनित सुन्दरता मैं-- जन-जन को तोषद आज हुए

अवसर की दिव्य सफलता में ॥१७६।

स्वयंवर सर्ग २१३

जैसे अभाव ही भाग चला अवसर पर अपनी हार मान।

आइचय - चकित हो जाते थे पाकर स्वागत आगत सुजान ॥१८०॥।

आतिथ्य - भाव - सत्कारों की--

वह समाँ निराली बन पायी, स्वगिक निधियाँ ज्यों स्वय सजी

स्वागत में वहाँ उतर आयी ॥१८१॥

रुक एक पक्ष तक वर - समाज सत्कृत जीवन - रस भाव लिया

फिर मिल - जुलकर आज्ञा माँगी निज-निज पथ गमन-विचार किया ।।१८२॥।

सन्ध्या - बेला में बात चली,

“प्रातः शुभ समय विदाई का' सन्ध्या ज्यों अपनी किरणों से--

लेखा कर गयी जुदाई का ॥१८३॥

स्वागत - सेवा, फिर राग - रंग,

रंजन मन के उद्गारों में। उर छाप छोड़ती बीत चली--

रजनी अपने श्ूंगारों में॥१८४।॥

प्राची की गोदी में उतरा

प्रातः फिर जग चित्रित करता, परिजन - विछुड़न का कटुक कथन

दमयन्ती के उर में भरता ॥१५४॥

२१४

हँस-कल। धर

भोली बाला सखियों से मिल

अब गले लगाकर सिसक पड़ी। सकरुण आँखों से पिघल - पिघल

गिरती भावों को अश्रु - लडी ॥१5८५६॥|

आली परिहासा नाम सत्य--

करती नित मोद बढ़ाती थी, पर आज विदाई के दिन वह

भर भाव रुदन ही पाती थी १८७।॥

जिन आँखों से यौवन - सुहास

भर मोद चपलता भर पाता, उन आँखों से आऑसू - वर्षण--

हित आज मिलन घन बन जाता ८८॥ शशि-कला गगन-घन में छिप कर

जिससे निज लाज बचाती थी, मस्कान वही धर और रूप

आँसू से भीगी जाती थी॥१८९॥॥ जिसके उर-अज्चल से लगकर

मलयानिल बास लिपट भरता, हा ! आज आद्रबन पीड़ा का--

कटु भाव चकित अनुभव करता १६०।|

प्राणों से प्यारी बेटी का--

माता दुख कभी देख सकी, भावों भर भेंट, लिपट उससे

वह भरने लगी करुण सिसकी ॥१६ १॥

स्वयंवर सर्ग

फिर पास पिता के चरणों पर

बेटी के आँसू टपक पड़, भावों के घन से द्रवित नेत्र

ममता - चपला से चमक पड़े ॥१६२॥

झझा के जीवन - दुदिन मैं-- आँखे जो कभी जल भरतीं, वे आज घनिल हो बेटों का-- सकरुण अम्बर-सिर तर करतीं ॥१६३॥

बेटी को आशीर्वाद दिया

धीरज - बल अपने साथ लिया। अवसर लख उचित प्रबन्ध - सहित

जन-जन का शूभ सत्कार किया १९४॥

यौतुक में जितना दिया उसे

जन कोन कुशल जो आऑक सके ? जिसकी जंसी, अंकन - विधि थी

कलना के भाव वहीं उसके ॥१€५५

दमपनन्‍ती के सेंग जाने को--

स्वगिक निधियाँ उतर पड़ी श्षुगार - साज धन - वेभव ले--

निज तत्परता में रहीं खड़ी ॥१६६॥

नल चले विदाई - हित अन्दर

भावों की लहरें उमड़ चलीं, मानस - पंकज - दल की कंम्पन

ज्यों आज सफल पा प्रेम-अली ।१६७॥

२१५

२१६

हँस-कलाधर

माता मंजरी प्रियंगु - साथ

आलीगण - साज - समाज वर, आगन में भाव विदाई का,

था निज पर का कटु भाव कहाँ ? ॥१६८॥।

राजा नल का आगमन हुआ मुदिता भर कलित समाज खिला, जेंसे जीवन की रसता का मधुमय लहरित बन साज मिला ॥१६६॥

भावों के साथ नमन वन्दन--

का मोहक शुचि व्यापार चला, मानो स्वरूप धर प्रकट हुई

आगन में मुद्रु व्यवहार - कला ॥२००॥)

कोमल सुढार, अति सज्जित तन

कुसुमाञ्जलि छोड़ सुभाव किये, सखियाँ करती थी कुशल प्रश्न

सस्मित अवसर के भाव लिये॥२०१॥

आभार प्रकट कर देने में--

अन्तर की कला झलकती थी अवसर वह जान विदाई का--

मोहक उर चाह मचलती थी ॥२०२॥

योतुक, उपहार, दान देकर माता ने आशीर्वाद दिया, बर - कन्या के कल्याण - हेतु-- क्षण विश्वदेव को थाद किया ॥२०३॥

स्वयवर सम २१७

पति - धर्म सिखाया बेटी को--

बसुवा का भाव समपषंण में, छाया - सी पति के साथ रहे

सुख, दुख, जीवन - संघर्षण में ।२०४।॥

पति - सेवा में सन्‍तोप - राह

जिस नारी को मिल फ्ती है, जीवन की अन्तर- ज्योति सदा

उसको सत्पथ बतलाती हैं ॥॥२०५॥

नित पति के अन्तर - भावों में--

रसता भर दे जो मुदिता की। उसकी श्रृंगार - कलाओं में--

आभा मुस्क्याती शुचिता की ॥२०६॥

सर्वेस्व समर्पण. कर दे जो निज हित कहीं कुछ चाह रहे, पथ परम उसी का होता है फिर कौन उसे क्‍या राह कहे ? ॥२०७॥।

पति - हेतु समर्पित सर्वेभाव,

फिर इससे बढ़कर भोग कौन ? नारी - जीवन के भावों में--

इससे बढ़कर फिर योग कौन ?” ॥२०५।॥!

बाला - सखियों ने जीवन - हित

माता का शुभ उपदेश लिया। फिर दमयन्ती के भावों में--

अपना उर - भाव विशेष किया ॥२०९॥

रश्८

हस-कलाधर

नल ने सोचा, -- क्या दिव्य राह ! यदि भाव सहज यों मिल पाये। इन भावों के अनुरूप, अहा ! यदि पुरुष-भाव भी हो जाये ॥२१०॥

श्रद्धा - नत भाव - सगिनी को--

जीवन - अनन्यता में पाकर, विश्वासमयी आशाओं . के--

पथ पर चलना ही नित हितकर ॥२१ १॥)

श्रद्धान॒ुसार॒ विश्वास दिया

राजा नल ने निज जीवन का, शशि परम भाव तक चलने का--

पा साथ सगिनी के मन का ॥२१२॥

नारी - समाज को मोद मिला

नल ने सभाव सन्‍्तोष दिया, मुदु शब्दों में हितवाद - सहित

जीवन का मंगलवाद लिया ॥२१३॥

छवि - लसित उमड़ते हाथों से

उपहार अमूल्य भरे अचज्चल लगते मुख की सस्मित यूति में,

जेसे शशि - हास - रचित संबल ॥२१४॥

ललनाओं ने ममता देखी--

सम्मूल उस मिने पाहुने में, सोन्दय - राग की अभिलाषा--

पूरित ज्यों मन के सपने में ॥२१४५॥

स्वयवबर सर्स २१ै६

अवसर का हास विनोद वहाँ

युवती - समाज से हुआ सरस। मुदिता पा भाव विदाई का

होती क्षण विचलित विरह परस ॥२१६३॥

अब सोच उपक्रम चलने का-- मोहक तत्परता जाग्र पड़ो। उस मिलन - भेंट के अवसर पर हिल उठी विरह-श्ूगार कड़ी ॥२१७/॥

वर - वध्‌ - रूप के भावों में--

वह समा बनी सत्कार » भरी, जयमंगलभरे सुमन - वर्ष ण--

की कला निखरती प्यार - भरी ॥२१८॥ फिर समय जान नल - दमयन्ती--

को ले परिजन, नारी - समाज, चल पड़ा विदाई - हेतु विकल

लेकर अपना शुभ कलित साज ॥२१९॥

सुदिता की धारा विचलित हो

करुणा - प्रवाह से मिली बहाँ, उस संगम पर अब खड़े स्वजन

आँखों के उमिल भाव जहाँ ॥२२०॥

दमयन्ती सबको साश्रु - नयन लख रही मोहवश बार-बार वह मिलन, हाय ! मुख शब्द कहाँ ? सिसकी में विगलित अश्जु - धार ॥२२१॥

२२०

हस-कलाधर

फिर हाथ जोड़ कर निज मन की-- आँसू से वध्यथा सुनाती -सी, मुंह फेर नमित रथ पर बंठी करुणा की धार बहाती - सी ॥२२२४७

नल भी जा बंठा पादवें - भाग सबको कर संयम - सहित नमन, रथ में गति का आदेदय दिया, उस क्षण का हो क्या भाव-कथन ? ॥२२३॥

निज - निज भावों की व्यथा लिये

सब लोग निरन्तर ताक रहे, परवशता - भरी विदाई की--

मोहरूता मन भर आँक रहे। २२४॥

बेटी जब घर से जाती, हा! उसके विलाप का चुभता स्वर-- क्षण भर क्‍या कभी समभाल सका वात्सल्य-भरा मानव का उर ? ॥२२४५॥

सूता कर जननी का अज्चल हा ! छोड़ जनक का वह दुलार, जा रही सिसकती दमयन्ती सखियों का छोड़ अपार प्यार ॥२२६॥

हा! छोड़ जन्म - भू की लीला भोली वेदर्भी कहाँ चली ? हा प्रिय तक पहुँचाने वाली-- होती है निमंम कठिन गली ।२२७॥

स्वयंवर सर्म

क्षण नगर - कोट की वह झाँकी

चित्रित कर नथन - पुतलियों में-- फिर स्वजन - भीड़ के चित्रण संग

रचती आँस की लड़ियों में ॥२२५॥

पालित मृग पथ में मिला, हाय ! वह रूप लिये भोलेपन का। रथ रोक रुकी क्षण दमयन्‍्ती पा मौन रुदन उसके मन का ॥२२९॥

झुककर मस्तक पर हाथ फेर अञ्चल से आँसू पोंछ चली। फिर बंठ समलकर देख सकी परिजन-समाज क्षण भीम-लली ॥२३०॥

दूरी से लख यह हृदय वहाँ

आलीगण, परिजन भाव - विकल, आँसू की विगलित माया ही

अब रही भेंटती मौन निकल ॥|२३१।॥

फिर भीमराज ने धीरज धर

निज अतिथि जनों से मिल जुल कर, सबको सत्कार - विचार दिया

यौतुकवाही दल कर पथ पर॥२३२॥

कुछ दूर पहुँचने पर नल ने रथ रुकने का आदेश दिया। जो यत्र -तत्न छिटके - भटके उन सभी जनों को साथ लिया ॥२३३॥

२२६

हस-कलाधर

देखा. दमयन्ती ने समाज

शुचि भावों में निज प्रियतम के। विचलित भावों को मोड़ लिया

लख नूतन पथ निज जीवन के ॥२३४॥

र"

तरु - वीरुध के खग-गीतों से--

सुन पाती थी अब करुण गान, विलसित वसन्‍त की लीला में

पथ पर पाती विपरीत तान ॥२३५॥। अति मोहक स्वजन - वियोग - भरी

पथ हृदय - वेदना मिलती थी, पर पाकर वह प्रिय - पादवें - भाग

शुचि सहज प्रेम - पथ धरती थी ॥२३६॥

ऑसू की चलती लीला को-- आँखों के साथ अरूप भाव-- दे चली समय अवसर विचार ढीला कर ममता का कसाव ॥२३७ |

रह - रह कर टीस उठाती थी

वह विछुड़न निज आलीगण की, विकसित उपवन की लीला में--

मोहक क्रीड़ा बीते क्षण की ॥२३५॥

रोकर प्रियतम को पाने की--

लीला जीवन में चल पाती, पाने पर आऑसू की पीड़ा

श्रिय भाव-सुधन में मिल जाती ॥२३६॥

स्वयंवर सर्ग २२३

दमयन्ती ने निज भावों को--

प्रिय के भावों से जोड़ दिया, पावन विश्वास सहज पाकर

श्रद्धा से घर, भ्रम छोड़ दिया ।॥॥२४०॥।

प्रिय के भावों को छाया में-- पथ प्रकृति-छटठा अब परख सको, खग - गान - भरी हरियाली में-- सुमनों की जगमग निरख सकी ।।२४१।॥

रथ बढ़ा विदर्भा के तट से, वह दृश्य निराला तटिनी का। तट तरु-शिखाग्र, खग-सुमन-भाव लख मुदित हृदय वर-पत्नी का ॥२४२॥

जल पर लहरा धर गगन-राह जब हंस-पाँति कतराती थी, पंखों के दोलन में बाला कुछ मोहक राग मिलाती थी ॥२४३॥

रथ को गति लख जब मुग-माला

भर चली चोकड़ी दावों में, सरिता - कगार की दूरी से--

जा मिली क्षितिज के भावों में ।।२४४।॥।

पनघट की सुन्दरियों के नव--

मोहक लहरें प्रतिबिम्ब बना-- क्षण भर यौवन के चित्र खीच

चल देती तज पथ की रचना ॥२४५॥

हुंस-कलाधर

चकवी चकवा के भावों में--

संयोग आज झयुगपद पाकर, दमयन्ती लख कुछ मुदित हुई

रथ की उमिल-सी मुद्रु गति पर ॥२४६॥। मोहक सधुन्ध वह देश नाँघ--

लहरें सन्देश सुनाती थी, बाहों भर तरणी से मिलकर

प्रिय से निज मिलने जाती थी ॥|२४७॥।

इयामा अपनी प्रिय बोली से-- लहरों में राग मिलाती थी, जिसकी ध्वनि जीवन - राग लिये प्रिय-प्रेम-पुलिन तक जाती थी ।२४५॥

कौोतृूहल के छवि-जीवन मे--

मादक रहस्य ज्यों तिरता-सा, इ्यामल लहरों के नत्तेन में--

खोया रहस्य भी मिलता-सा ॥२४६९॥

देखा बाला ने भावभरी

आँखों में लीला नाच रही। परिणाम एक प्रिय - मिलन - भाव

सबमें मोहित - सी बॉच रही ॥२५०॥

सब कुछ खोकर प्रिय - प्रेम - राह

की झाँकी पाती नयनों से, रंजित बस एक राग में पथ

विलसित पत्रक-दल - सुमनों से ॥२५१॥

स्वयंवर सर्ग

नल के वसन्‍त की क्या सीमा

कवि कंसे कौन कथन कर दे ? जीवन - रस प्रेमाकार पास

क्षण - क्षण नवीनता जो भर दे ॥२५२॥

विलसित सुमनों के भावों में--

लतिका विकास - माया वाली, इयामा के स्वर मे विह्चल जो--

उत्सुक भरने को उर - डाली ॥२५३॥

लख समुद तितलियों के नत्तेन

खग - गान सहज लय में कोमल, वीणा - वादन सम मधुप - राग

सुनते जाते प्यारी - संग नल ॥२५४॥

शीतल समीर नव गंध लिये अंचल में फहरन दे पाता। नव स्पर्श - लाभ की माया में-- मृदु भावों से तृप. भर जाता ॥२५५॥

पल्‍लव की भोट लिये कम्पित

खिलने को कलियाँ झाँक रही, यौवन - विकास - सुन्दरता की

दम्पति में मधुता आँक रही ॥२५६॥

जीवन - वसन्‍त की निज वद्यामा

कह देती कुछ जब निज स्वर से, भावों की कलियाँ भर विकास

भर लेती राग नये सिर से ॥२५७॥

श२५

२२६

हँंस-कलाधर

आसार - भरे मृदू भावों में--

हिल - मिल समीर कुछ कह पाता शीतलता ले मधुगंध - भरी

प्यारी - संग नुप रथ पर जाता ॥२५०॥

तटिनी - कगार, तरुवर शिखाग्र कलरव - विहार देखा जी भर, वह निरख परेवा का चुम्बन नल क्षण-विभोर भर प्यार सिहर ॥२५६ |

छिपते मयूर की बोली से मभाती मयूरिनी का दुलार लखते जाते रथ की गति में-- प्यारी संग नल भर सहज प्यार ॥२६०॥

कल उत्तरीय के भावों में--

विश्वास - कला - कृति लहरित-सी, श्रद्धामय अश्चल से हिल - मिल

चलती रथ - गति में फहरित-सी ॥२६१॥

दम्पति के भावों की रेखा--

नव रूपों में पथ पर मिलती, मधुगंधभरी भीनी - भीनी

अन्दर - बाहर अतिशय खिलती ॥२६३२॥

सधुमय भावों के नव विचार

पथ प्रकृति प्रकट हो दरसाती, देम्पति को रस-झाँकी देकर

रथ को गति में छिपती जाती ॥२६३॥

ध्वंवर सम २२७

सबकी सुविधा का समाचार नूप पथ में रुक लेता जाता। सेवक - समाज, परिजन - समूह पथ-श्रान्ति-व्यथा फिर क्‍यों पाता ? ॥२६४॥ मुदिता को मधुर उमंयों में-- श्रम आलिगन कर दिपता जब, कठुता की काली रेखा फिर दिखलायी देती पथ में कब ? ॥२६५॥

बन - थ्रो, सरिता, गिरि, उपवन, पथ

आनन्द - छटा के भावों में-- सगन-मृग-विहार से इंगित कर

मुदिता भरते आश्ाओं में ॥२६६॥ मंगल विचार के साथ सभी

अवसर पर पहुँचे निषध-देग | वैला भी सन्ध्या पहुँची

साभार बदलती सहज बेशा ॥२६७॥!

पिगल किरणों की आभा में-- सन्ध्या वह हइृश्य संवार रही श्यामल अम्बर की गोदी मे

विलसित-सी कर श्वृंगार रहो ॥२९६५॥

पहुँच स्वजनों के साथ नृपति अपने पुर का वह छोर जहां, हो गये प्राप्त कर समाचार पुरजन सब आत्म-विभोर वहाँ ॥२६६९॥

रर२८

हँस-कलाधर

तत्परता-भरी सजावट का--

छाया ज्यों नव उद्गार वहाँ मणि-माणिक-मरकत- खचित दिव्य

था महलों का शगार जहाँ।।२७०॥

सज्जित अटारियपों के ऊपर

चढ़ चला उमड़ नारी-समाज मणि-रत्निल कला-विकी रण में--

वस्त्राभूषण के कलित साज ॥२७१॥

चपला मानो बहुरूप धरे

घनमाला में विलसित होती, चौधी में मोहक भाव-कला

सौन्दयंगमयी विकसित होती ॥२७२॥

अति दिव्य सजावट स्वागत से

मगल गीतो के भावों में-- सज उमड़ पड़ा पथ जन-समह;

विलसित छवि-भाव-लहर पुरमें ॥२७३॥

अनुपम स्वरूप के दम्पति कौ-- छुबि - कला देख जन नथनों से-- होने को तृप्त आज सज्जित जीवन के मोहक सपनों से।।२७४॥

धीरे - धीरे रथ की गति से--

छवि का श्यवगार उमड़ताथा। नयनों के आगे दम्पति - श्री---

लख मोहक राग निकलता था ॥२७४॥

स्वयंवर सर्ग

रथ का प्रवेश अब मुदित नगर--

के राजमहल - पथ हो पाया जयगान, सुमान, सुमन-वर्षण--

की दीख पड़ी शोभित माया ॥२७६९॥

रत्नाभ कला की जगमग में--

ललनाओं का श्ूंगार खिला, सज्जित अटारियों से सस्मित

मुदिता का मोहक भाव मिला ॥२७७॥

रत्नाभ दमक थी दम्पति कौ--

श्गा रमयी कलनाओं से। सस्मित मानो थी पूछ रही

सौन्दयं - सुपषधष. ललनाओं से ।२७८५॥

मन्थर गति से रथ चला और--

जा रुका पाँवड़ों के पथ पर। मंगल सुर-वन्दन हुआ दिव्य

रथ से दोनों फिर गये उत्तर ॥२७९॥

सन्ध्या की मुदु पिंगलता में--

मणि - रत्नों की श्री चमक उठो। सस्मित छवि - कलित अठाओं से

ललनाओं की छवि झमक उठी ॥२८०॥

उसमें श्रीकलिता के पथ पर

सुषमा ऋतुराज स्वरूप घरे, मानो दम्पति का गरमन हुआ

योवन - मधु कलित अनूप भरे ॥२८१॥

२२६

२३०

हंस-कलाघर तयनों भर छवि सब निरख सके मंगल सुमनों के वर्षण में, उस समय स्वयं को भूल गये नव फलित रूप आकषंण में ॥२८२॥

मिमंलकारी सीन्दर्य परम--

दर्शनपर आँखों में छाया। कटुता को दे जो दिव्य रूप,

ऐसी उस छवि की मुदुमाया। २८३॥

सौन्दय॑ परम सम्मुख पाकर

उर - कटुक वासना भग जाती, मुड़ परम दिव्यता के पथ पर-- चलने की आशा जग जाती ॥२८४॥

अभिनन्दन, वन्दन, जय-ध्वनि से--

नव दम्पति का सत्कार हुआ। अनुपम शुचि रूप -प्रदर्शन से

उस अवसर का श्ृगार हुआ ॥२८५॥

नल दमयन्ती को साथ लिये

पहुँचे निज माता - पिंता - पास भावों से भर नव दम्पति ने

सस्नेह बझ्चायी नमन - प्यास ॥२८६।॥

स्वयंवर सर्ग २३१

फिर अन्य बड़ों को नमन किया

सदभाव - सहित परिचय देकर। छोटे पाये आशीष - बचन,

सब लोग गये पुलकन से भर ॥२८७।॥।

नृूप नल ने राज - भवन में जा

मंगल विधान, आचार किया। स्वागत में आगत स्वजनों का--

सदभावपुर्ण सत्कार किया ॥र८८॥

परिचय, सत्कार, नमन-विधि की--

ज्यों परम छटठा साकार हुई, नल दमयन्ती के व्याज आज

नयनो को रूपाधार हुई ॥२८६॥

२२२ हंस-कलाघर

आशानुसार यों दमयन्ती

परिणय - पथ से प्रिय-साथ हुई परिपूर्ण प्रेम के भावों से--

प्रिय जीवन - सहित सनाथ हुई ॥२६०॥।

ज़ाज्ति-विलास सर्यग

मन का सपना साकार सफल

नल ने निज जीवन में पाया। रसता विलास में भरने को--

वेभव - छू गार उतर आया ॥१॥

सुख-शाध्ति-भरा वह राज जहाँ--

जन - जीवन - धन का रक्षण था। राजा में अपने प्रजा - प्रेम--

का मिलता प्रा लक्षण था।।शा नप - हित मे निज हित समझ सका

उत्सगमेंभरा जन -जीवन था। मानवता की रेखाओं. मैं--

कलरंजित ज॑ंसे प्रति जब था। ३॥ झुति भाव - भरे जन - जीवन में

कटुता की गन्ध न्त अज्ती थी। सम्पत्ति स्वयं दर्शन - हित

जीवत - धरूगार बढ़ाती थी।४॥

अपना - अपना अधिकार समझ

उपभोग उसी पर चलता था। सवा में पर - सहयोग - भाव

अवसर पर सबको मिलता था॥१५॥

हस-कलाधर

दमयन्ती को सन्तोष हुआ

लखकर पति का सुन्दर स्वदेश सुन्दरता अपने भावों में--

छायी ज्यों धर विविध वेश ॥६॥

वह महल कि जहाँ सुबास मिला, आकषंण का था मृत्त रूष वह कक्ष विशेष कलित छविमय दमयन्ती को पाकर अनूप ।।७॥

जादू की श्री बगराता था

मणि - रत्नों का छुवि-भाव-जहाँ, दमयन्ती को पाकर जैसे

वह कक्ष विशेष निहाल वहाँ ॥८॥

यौवन - विकास में मादकता

लेकर छवि - धार उमड़ चलती | रत्नों के नव शोभा - गृह में--

छवि-सारमयी बाला लसती ॥६॥

हर अंग सुतन - छवि-छलकन से--

श्षुगार सेंजोकर धरती जो, ऐसी सुकक्ष की रचना थी

मन में मोहकता भरती जो ॥१०॥

आशा भर जगमग होती थी

जो चकाचौध कर देती थी, दमयन्ती को ज्यों केन्द्र मान

निज गोदी में भर लेती थी॥११॥

शान्ति-विलास सगे

जीवन का राग बिखर कर ज्यों

सुन्दरता का आभास लिया सन का कोता - कोना मोहित--

होले, उसने विश्वास किया ॥१२॥

दीवालों के कल चित्रण से--

सोच्दयें - कला मुस्क्याती थी। रस - ओर जान संकेत स्वयें

दमयन्ती भूली जाती थी॥१३॥

गलबाँही के मृदु चुम्बन में

नयनोी का जाद बना हुआ, रतिमय बह रंग - विलास - रचित

फोमल भावों से सना हुआ ॥१४॥

विकसित अंगों के भावों में--

वसनों की छूटा निराली थी, छवि - अंग - भंगिमा में फहरित

लक्षित रतिमय रस बाली थी ।'१५॥

रति - लीला के सकेतों पर

छाती सछोह कप जाती थी। आँखें मादक उन्मादभरी

मुदु भावों में झेँप जाती थी॥१६॥

धर रूप विविध ज्यों मदन - कला

सश्वुगार नयथन भर आऑँक रही, दमयन्ती को अन्दर पाकर

रसमय भावों से झॉँक रही ॥१७॥।

२२४५

हस-कलाधर

भावों के उन संकेतों कॉ--

प्रिय लक्ष्य आज मिलने वाला ! अन्दर - बाहर के भावों से--

कुछ सोच रही सहमी बाला १८॥) भावों में डबी दमयन्ती--

आकर अलिन्द से निरख सकी सम्मुख उपवन की दिव्य छठा

मोहक भावों मे परख सकी ॥|१९॥)

कोयल कुछ कहकर चली गयी उसका मृदु भाव बन पाया। यह चंचरीक गूजार लिये क्या कहने ढिग, कक्‍्योकर आया ? ॥२०॥

किसलय में छिपती कलियों के--

जीवन में क्‍या उनन्‍माद भरा? कह दे कोई, अलिगूजन में--

छने का कौन प्रसाद भरा ?॥२१॥ ममता की बाहों में पत्रक--

रुक - रुक क्‍या सिहर समेट रहे। प्रिय मिलन-भरी किस आशा मे--

कुछ कंपित स्वर से भेंट रहे ॥२२॥

कुसुमित मुदु कलित लतायें क्‍्यों--

झुक कर भावों से भर जातीं मादक समीर के झोके से

तरु - परस - भाव में बल खातीं ॥२३॥

शान्ति-विलास सर

वह कौन भाव तितली पाकर नत्तन करती - सी थिरक रही। नव राग - भरे सुमनों से क्‍्यों-- सहमित चुम्बन ले झ्लिञझ्लक रही ॥२४॥

लज्जा निज त्याग कपोती वह

अपने प्यारे से क्‍या कहती ? किस मधुर मिलन की मदिरा वह

मादक भावों से रुक भरती ?॥२५॥

भावों के संगम को रेखा

क्या देह - मिलन में खीच रही ? अन्दर - बाहर क्‍या प्रेम - कथा

वह चाह समागम बीच रही ? ॥२६॥

ग्रीवा - चुम्बन मादक पाकर--

प्रिरंभ परेई का करता, संसार परेवा भूल कटुक

रस - भावो की झोली भरता ॥२७॥

सुमनों की रागभरी माया--

तज भ्रमरी प्रिय अलि से मिलती बॉहोंभर निज आलिगन मे--

दिन भर की व्यथा दूर करती ॥२५॥

हारिल निज व्यथा प्रेयसी से--

डाली पर छिपकर कह देता, किस प्रेम - विन्दु के पान - हेतु--

पथ सहज सरलता का धरता ? ॥२९॥

२३७

श्श्८

हँस-कलाधर

पशु - पक्षी प्रेम - भरे वि्चारित

दिन की रूपद उजियाली में, मादकता भरने को तत्पर

अपनी - अपनी उर - प्याली में ॥३०॥!

फ्थ घरे अनादि वासना का

सुख - हेतु सभी डग भरते - से मिल रहे प्रेम की लीला में--

अन्तर - कर से छवक्‍ि धरते - से ॥३ १॥॥

सबकी चलती प्रिय प्रेम - कथा,

मन का मोहक व्यापार चला, घर॒ सहज समपंण क्‍या जाने भोले विचार के जन्तु, भला ? .३२॥

दमयनन्‍्ती सोच रही मन में--

शुभ मिलन, अहा ! भावी क्षण का “उत्सन कर चुकी पहले ही

सर्वेस्व सहज निज जीवन का ॥३३॥

भूली प्रियतम की बॉहों में-- निर्भराा बनी रह जाऊंगी, तन - मन से पावन सेवा दे--

जागरण - बीच सो जाऊँगी ॥३४।॥

मेरा अपना क्‍या जीवन में,

तन - मन-यौवत सब वार चुकी बहू बाह्य मिलन भी सफल बने जिन चरणों पर सब हार चुकी ॥३५॥

शान्ति-वलास से

प्रिय - प्रेम प्रप्रित करने को--

निज अन्तर खाली कर देखा, भर गया उसी के भावों से,

उसमें अब कहाँ अन्य लेखा ॥३६॥

यौवन, उभार, तन - रत्ति - रसता

सब प्रेम - उदधि के घन - वर्षण, चपला - सी सस्मित संधि - बीच

दिखलाते मोहक जीवन - क्षण ॥३७॥॥

पावन निशीथ - दर्शन - वेला प्रिय - मिलन - भाव में आयेगी। वह प्रथम मिलन की रचना क्या--- नयनों में सदा समायेगी ?। ३८॥

मधुता समेत प्रिय - मिलन भला

क्या बुरा कि जिससे सुमन खिले, जिससे यौवन की भूख मिटे

श्ु गार - कला का भाव मिले ?” ॥३५॥

दमयन्ती अपने भावों कौी--

धारा में डबी जाती थी, मन की मोहक चल लहरो पर

निज मृदुता में बल खाती थी ॥४०॥

नल भी मन के श्रृंगार - बीच

यौवव की रेखा खीच रहा। अभिलाषाओं के रंजन में--

चित्रित करता छवि-रूप महा ॥४१॥

२४०

हँस-कलाधर

यौवन - घन में छुवि - चपला की

मुस्कान सहज क्या हो सकती, आकर्षण भर क्षण प्रकट और

फिर गोदी में किस छिप रहती ? ॥४२।॥।

उसको वसन्‍्त के प्रिय मधुमय--

संकेत चतुदिक जान पढड़ो। मधु से मधुता के मिलन - भाव

संकेतों से पहचान पड़े ।।४३॥ कदली - पत्रक सुस्तंभ परस

अन्यत्र तनिक लहरा जाते, युगता के प्रिय संकेतों पर

उरू की सुढार दरसा पाते ॥४४॥

कचनार सुघर कलियों में निज

योवन - सिंगार लख मुस्काते, कोमल - दल के मद हाथों से--

निज तन्मयता में क्या पाते ? ॥४५॥

शीतल समीर झकझोर तनिक लतिकाओं से क्‍या कह पाता, जिनसे पाकर तरू बाहु -पाश

बेसुध सिहरव से झुक जाता ? ॥४६॥

वह मधूरस की प्याली लेकर

कलिका गूलाब को हिलती - सी अलिगूजनमय प्रिय चुम्बन पा

मादक विकास में खिलती - सी ॥४७॥|

शान्ति-विलास सर २४१

घ१क

बह “कहूँ कहूँ" कह कोयल भी

अब कोन कथा कहने वाली, जिसका स्वर सुनकर झूम रही

लत्िका - लिपटी तर की डाली ? ॥४८॥

नव कूज - द्वार के कलश युगल

क्या कह जाते निज रचना में * जघनिल माया चित्रित करते

फामुकता - भरी कल्पना में ॥४९॥

सुमनों को रंग- विरंगी वह

छवि - छटा लता की बाँहों से-- लिपटी मुस्कानभरी कहती

मृदु मौन कथा उर- चाहों से ॥५०॥

पललव की ओट लिये मुंडकर

क्या सरस सारिका कह जाती !? मोहक बोली में जादू भर

क्यों छिपती - सी कुछ शर्माती ? ॥५९॥

लव रागमयी मुस्कान मधुर

कलिका विकास में अब भरती। उस सरस भाव से झूम, अहा !

तितली मादक नर्तव करती ॥५२॥

पत्तों की लाज त्याग कोमल--

सेमल की कलियाँ झाँक रही, कीरो की सरस ठिठोली भी--

भावों से भर कर आँक रही॥५३॥

२४२

हँस-कलाधर

दिन की लीला का भाव सहज

बन रहा निमंत्रण रजनी का, तारक - स्वरूप - मणि-भावो में--

भावी सुहास शशिवदनी का ॥५४॥

वह चन्द्र - कला को वेला भी-- सस्मित स्वरूप ले आयेगी, नल सोच रहा, -- छवि रेखा पर कब मिलन - बिन्दु घर यायेगी। ५५॥

अम्बर की बाँहों में वह शशि--

निशि रूप » कथा नव कह लेगा, भावों के ललित विरल घन से--

लीला रच क्‍या रस भर देगा ? ॥५६॥

आशाओ के मृदु भावों में--

छवि की वह॒ थिरकन क्‍या होगी ? तन-मन-विकास में तिरती - सी--

आती वह सिहरन क्‍या होगी ?॥ ५७॥

भावी प्रसंग के जीवन में--

भावों की झाँकी क्‍या होगी? उस मिलन-विन्दु के पार स्वयं

इच्छा बचकर फिर क्‍या देगी ? ॥५८५॥

यह सोच हृदय विह्नलता में--

सन्ध्या की झाँकी पाने को, नल पहुँचा झान्‍त सरोवर -तट

सकेत सरस पा जाने को ॥५९॥

शान्ति-विलास सर्ग

देखा तब पिगल - किरणों से--

मिलकर लहरो का मटठकाना, यौवन - उभार की माया में--

स्वीकार - कला से नट जाना ॥६०॥

छकि - कलित करों के पाश - बीच

पंकज - लीला बल खाती थी। योचन को रागममसयी हलकन

मुदु लहरों में मिल जाती थी ॥६१॥ सुख - श्री जसे शूंगार - बीच

सिन्‍न्द्री छवि - रेखाओं से-- सन्ध्या - बेला थी खीच रही

पंकज के सहमित भावों से ॥६२॥

खजञ्जन वह॒ तीर लता - ऊपर चञ्चल लुक-छिप कर उड़ जाता , किन नयनो के मृदु भावों सें-- त्रीड़ा - विलास ले शझर्माता ?॥६३॥

बुलबुल लतिका की बाँहों में--

घुस - पेठ - कला क्‍या सीख रही ? कलियो को कोमल कम्पन दे--

आलिगन - रत - सो दीख रही ।६४॥

सत्कार कपोती का पाकर

प्यारा कपोत क्‍या रस पाता ? आभार प्रकट कर डाली पर

मधुरस - भावों से भर जाता॥६५॥

२०८३

हस-कलाघर

सूरज तरु - राजि - फूनगियो पर कर से स्पशित कर सुमन - माल--- रच रहा कि बन्दन - भावों में-- पक्षी कलरव कर हों निहाल।॥ ६६॥)

वह सरल सारिका प्रिय के निज --

भावों में भरती मोद -मान। चलती सन्ध्या की बेला में

कर सके कि जिससे प्रेम - पान ॥।६७।॥)

वह कीर अरे! किन भावों में--

ले प्रिया पहेली ब॒प्च रहा। उसकी आँखों में भावों का--

वह सरस वेश क्‍या सूझ रहा ? ॥॥६५॥

यह भौरा मादक भावो में--

सहमित कलियों को चूम - चूम-- सकेत कौन-सा देने कौ--

आता समीप है घूम - घूप ॥६६॥

कोमल पाँखो के जाद से--

नयनों में मबुरस भरती -सी परिरंभ - कला का भाव जता

तितली सुमनों से मिलती - सी ॥७०॥

उस अद्ध तग्न नत डाली पर

सकेत शकुन का करता -सा, वह काग कौन मंत्रणा लिये

विश्वास हृदय में भरता - सा ? ॥७१॥

शान्ति-विलास सर्ग

वह सरिता-जल लहरित बेसुध

भावों में भर करता विहार, निज दिव्य करों में भर गुलाल

सन्ध्या दर्शाती ललित प्यार ॥७२॥

वह खग - दल, अरे, उड़ा क्धोंकर

नभ - पथ से करता नीर- पार ? सरिता की उमिल बाँहों से--

क्रीड़त क्या लखने को कगार ? ॥७३॥

विह्लूल स्वर से क्‍या बोल रहा

वह तीतर भोला जल पीकर, सन्ध्या की छवि क्‍या पा लेगा

पंदल चलकर कगार - ऊपर ? ॥७४॥

निर्मेल जल में तिर मीन मधुर

नयनों की कला दिखा जाते, हेमाभम कलित कर - रंजन में--

क्या सन्ध्या की श्री लख पाते ? ॥७५॥

स्वणिम लहरें. मदमाती - सी

सेकत बाँहों की रजत - कोड़ मुस्क्याती कल - कल ध्वनि करतीं

लखती जाती ले मधुर मोड़ ।७६॥

लहरें क्‍या सोचे भूत - कथा,

भावी पथ का विस्तार कहाँ ? बस, वत्त मान में लहराना

उनके जीवन का भाव रहा ॥७७॥

२४२

२४१६

हंस-कलाधर

कुछ समझ रहा राजा नल भी

जीवन का मार्ग सरसता का जीवन तो है, बस, वत्त मान

पथ वही सजग निजवशता का ॥७८॥)

फिर लगा निरखने सन्ध्या की--

छवि-कला रंगिनी माया में। नाना रंगोी की लीला लख

सुधि कहाँ रही निज काया में ? ॥७९॥॥

कलरव खग - गान - कला विलसित

तर॒ुवर शिखाग्र मुदु झोके से-- पीताभ सुरंजित श्यामलता--

में भरते भाव अनोखे - से ॥८०॥

आकाश - विहारी पंखों के--

दोलन की छटा निराली थी, सन्ध्या - श्री रहे बटोर नभग,

अनुपम प्रसरित छवि-लाली थी।।८१॥

नल सोच रहा, “वह मानव कवि,

सुन्दर निसर्ग के पथ उसके विषयों के घेरे से उठकर

बाहर मन कर जो देख सके ॥८२॥

फिर भी मन में विषयों वाली बन गयी रंगिनी छाया थी, सिर पर सवार हो विचर रही,

उसको अपनी मुदु माया थी ॥5रे॥

शान्ति-विलास सम

सोचा नल ने, --“ अब जीवन में--

उसको रसता भी जान सके, उसके स्वदेश की क्‍या लीला,

अच्छा होगा, पहचाव सकूँ॥८४॥

जब दिया देव ने मुझे सुखद विषयों - हित सरस रागिनी भी तो निश्चय राग मिलाने पर--- वह होगी भाव - सगिनी - भी ॥८५॥

दिन के विलास का अन्त जान

उस निशि पर नृप का चला मनन, जिसमें अन्तर - गति - राहों के--

संगम प्र भावी भाव - मिलन '5६॥

दिनमणि मोहक निज कला लिये

अस्ताचल के उस पार हुआ, प्रव से रजनी की झाँकी--

का छाने: शर्तें: आसार हुआ ॥5७॥

राजा अब वापस लोट चला

मणि - दीपों में छवि - शरण जान, आशा भर रूप - विलास - भाव--

का उनको ही द्यूति - करण मान ॥८८॥

निशि का प्रवेश निज वेभव में--

सस्मित शशि-कलित निखार लिये, विलसित जगमग मृंदु रचना में--

हो सका सहज श्ूगार किये ॥5८६९॥

२४७

२४८

हंस-कलाधर

रस-गानमयी उस रजनी में-- विकसित सुहाग था फलित आज, भधु छवि का पावन मिलन जान सज्जित हो ले ज्यों ललित साज ॥६ ०)

तत्परता अपने यौवन में-- मधुमय विकास भर खिलने को, छवि - साज-भरी ज्यों निरख रही आशा भर रसता मिलने को १॥ दमयन्ती मोहक कलना से-- शुगार-कला में अकित-सी कोमल सभाव मूच्छेना सहश मन के तारो में झंकृत - सी ॥६२॥ मोहक छवि - राग - विकी रण में-- दमयन्ती सम दमयन्ती थी, मणि - कला - बीच चपला समान नव झमकभरी गति करती थी ॥९६३॥

राजित निशीथ - मणि-जगमग में --

राजा नल पहुँचा कक्ष-बीच दूति-फलित कला के चित्रण में--

बाला रसता देती उलीच ॥६४॥

अंग-चालन में लहरित विकास --

अनुपम शोभा का सार लिये-- मणि - दीप - प्रभा में चमक उठा

योवन का मादक भार लिये ॥६€५॥।

शान्ति-विलास सर्गे २८६

ऐसा विकास शुचि नव रस ले--

किस परम कला से भिन्न आया, क्षण-क्षण नवीनता की गति में--

नव मिलन - विभा पर खिल पाया ॥।६६॥

नयनों का लाभ फलित नृपवर--

उस कलित प्रभा में आँक सका। कुछ समय स्वयं को भूल सहज

अनुपम उस छवि में झाँक सका ॥|६७॥

पाने को कटुता भाग चली क्षण भर आपस - छवि - दर्शन से देना ही देना साथ रहा प्रिय रूप - फलित आकर्षण से ॥६८।

अम्बर से युग शशि उतर पड़े

मुखमंडल बन ले अमी -सार जगमग आभूषण - लसित अंग

तारक-विकास का ले निखार॥&€६॥

नल सोच रहा -- सुन्दरता कौ--

सुन्दरता का क्षण आज मिला, दमयन्ती के तनरूप विकस

मादक मधुता के साथ खिला ॥॥१००॥

नयनो से चार चपल चितवन-- मिल चार कलाओं में निकली। - छवि मत्तिमती पति - चरण लाभ-- कर भावभरी -सी लगी भली ॥१०१।

हंस-कलाधर

कल कंभ सहृश उर से खसकर

अञज्चल की चरणों पर फहरन आजगीप बचन के भावों में--

फिर बाहु - पाश, उर-आलिगन ॥१०२॥

मुस्पशं॑ सरल मुदुभाव भरे

ममता की मादक माया में, गलबॉही के शुचि भावों तक--

मधु-चुम्बित कोमल काया में ॥१०३॥

मधु-क्भ विकास कला से भर

उर उमड़ चला मुदु छोह भाव, संस्पशन की नव ललित कथा--

में पहुँचा जीवन - सुदाँव ॥१०४॥

ममता की मधुर कहानी कह

जीवन - सरिता का कर मिलाप; छवि-मादकता की नव लहरें

आशा - सगम तक गयी व्याप १०५॥

छविमयी वासना की प्याली तन - मन - विलास भर पायी-सी, पर मन की इच्छा कहाँ भरी वह नव सुराग पर आयी -सी ।१०६॥

तन्‍्मयता प्रेम - कहानी की--

कोमल बविलास में मिलती - सी, अन्तर की मोहक लतिका में--

श्र गार-सुमन बन खिलती - सी १०७॥|

शान्ति-विलास सर्गे

छवि. दोनों ओर उमडती - सी नयनों में सहज अट पाती, रस - भावों की कोमल छलकन श्रम-विन्दु भाल पर बन जाती ॥१०५॥

आपस के मधुरस - पान - हैतु शशिमुख ढय सहज मचलते थे उस मिले दॉाँव से युगल चन्द्र अलि-पंकज-स्वर मे मिलते थे ॥१०६।।

विकसित उरोज - कलिकाओं तक

नयनों के भअ्रमर जा पाते कर - पल्‍लब के ही भावों में--

दूरी से मुदिता पा जाते ॥११०॥

फल. कदरूप दाड़िम - रसता

ले पाटल छवि में विकसित - से, मादक कपोल यो भावभरे

अधरों के संग रस-विलसित-से ११ १॥।

शशि - पोषित घन से सुधा लिये नागिन - सी रुक मृदु अधरों पर, रस - पान कराती - सी बेसुध वह वर वेणी माती जी भर ॥११२॥

उस केश - राशि श्यामल घन से--

नयनों का मौन मधुर नत्तंन, मधुमत्त शिखी के भावों में--

मन की नव लिये मौन थिरकन ॥११३॥।

नि भ। के

हस-कलाधर

तन - काम-केन्द्र - मुदु-अगों में-- मधुरस की प्याली छलक चली। नव दम्पति के मादक मिलाप-- में जीवन - रस की झलक मिली || ११४।॥

आभूषण छवि की ममता मसे--

संस्प्शन तक दे साथ रहे कुछ बाधा की रेखाओं में--

भावों के साथ सनाथ रहे।॥११५॥

गदकारे वर्ण गुलाबी तन

वसनों की बाधा छोड़ चले जघनोरु विलास-कला से मिल

आपस में करते होड़ भले॥१५११६॥

उर - हार सहम कुच - बीच सिमट

निरवेंसनन जान लज्जित होता, कंचुकी देख बन्धन - विहीन

अञ्चल कतरा विस्मित होता ॥११७॥

परिधान कलित कल खिसकन में--

किकिणी मधुर स्वर बोल उठी कोमल विलास, तन लसित जान

मादकता का स्वर घोल उठी ॥११८॥

नूुपुर अपना स्वर - ताल त्याग

मनमानी ध्वनि में बजता था, सुनने वाले उर लीन कहीं

यह जान तोष मन करता था ॥११६॥

शान्ति-विलास सर्भे

ब्रीडा से मिल मुस्कान मधुर

छवि की धारा में मिल जाती। नयनों से लेकर बाँकपना

मुदिता लहरों में तिर पाती ॥१२०॥

कंगन की झनतक निराली वह

छवि-संगम से भावित होकर, क्षण भर चंचल क्रीडा तजकर

रस-मग्न हुई निज सुधि खोकर ॥१२१॥

अन्तर - गति के प्रिय बन्धन पर

तन - वसन सभी निबेन्ध बने, बन्धन - विहीन भावों में बंध

क्षण समझ सके मन सुख अपने १२२॥

इच्छानुसार नर - सुख - विलास--

में दमयन्ती कुछ जान सकी, श्गार समपेण क्‍या होता,

मन के तल पर पहचान सको ॥१२३॥

मन के पतंग छवि - दीपक के-- नव रूप - कला में भूल पड़ | पर वह तो लौ शीतल जिसमें जीवन रस पाकर सहज अड्ढे ॥१२४।॥

स्वणिम मिलाप-निशि - लीला में-- मिल सका भाव जो अपना था। नल को वह छवि साभार मिली रच सका जिसे गृदु सपना था ॥१२५॥

६५३

२५४

हस-कलाधर मुदु हास लिये अन्तर - घन की-- चमकी डोरी मुस्कानमयीं, वह झमक निरन्तर नयर्नों में-- रूपित करती छवि ध्यानमयी ॥।१२६।॥

जीवन - वसन्‍्त की हरियाली

सुमनों के मधुर विकास लिये, आलिगन के अलिभावों में--

मिल पायी प्रेम - सुपास लिये ॥१२७॥

आशा भर मिलन विचारों का--

हो सका हृदय - तन - देश महा। भावों के अपने चित्रण कॉ--

मधुमय विलास क्‍या शेष रहा ? १२८॥

सपनों को पा साकार आज

नुपवर छव्सिर में विलसित हो-- लहरो में क्रीड़ित सुमनों - सें--

पा सके तीर मधु - लहरित हो ॥१२९॥

वह काम - अवस्था जीवन की-- दोनों ने जिसमें सुख देखा, भावी भूत - विचारों की--

मन से तजकर चिन्तन - रेखा ॥१३०॥

शान्ति-विलास से २५५

रजनी अपनी लीला समेट

अनजाने पथ से चली गयी। दिन आया अपनी प्रभा लिये

रूपित रचना कर नयी - नयी १३ १॥

सुखमय विलास, सुखमय जीवन

नल - दमयन्ती का अपना -सा साकार हुआ सम्मुख विकसित

मधुमय मन-मोहक सपना - सा ॥१३२॥

२४६ हुस-कलाधर

आनन्दभरे जीवन - क्रम मैं--

दमयन्ती प्रिय - संग. धन्य हुई निज मन रखकर पति - भावों पर

जीवन से सहज अनन्‍्य हुई ॥१३ है।॥॥

निसर्ग-दर्शन सर्य सान्ध्य चिहार

बढते अनुदित के भावों में--

राजा ने अनुभव कर देखा, मन के तल पर तन - भोग - बीच

मिल सक्री शान्तिमययी रेखा ॥१७

दमयनती को बह सुन्दरता

यौवन की बॉहोी में पाकर, पाकर झरूचिभर तन - रूप - साज

सन्‍तोष ने देखा, रहा किधर ॥२॥

सोन्दर्य देखने की आाँखें--

शुभ निरमेलता जब पा जाती छवि के परदे में छिपी हुई

वह परम कला तब लेख पाती॥३॥

मन स्वाथ - बिन्दु पर सुन्दरता

जो खीच रहा तन - भोग लिये आनन्द कहाँ उस जीवन में है

क्या होता छवि-संयोग किये ? ॥४॥ नल - दमयल्ती को भोगों की--

माया अवसर पर खूब मिली, पर अन्त निरन्तर भोग -भरी

कायिक ग्रति पर कटु ऊब मिली ॥५॥

दर्द

हँस-कलाधर

दोनों रहस्य यह समझ सके

आपस में भोग- विलासों से, कायिक भोगों में तृप्ति कहाँ

जो मिल ले सुखमय इवासों से ॥६॥) वह काम-श्क्ति छवि-झ्लाँकी में--

तन-रति-विलास से ऊपर चल-- सौन्दर्य - प्रेम के शुभ पथ पर

आनन्द - कला पाती निमेल ॥७ | तन - छवि के यावन भावों में--

दोनों के शुभ आचार मिले, नेसगिक सुषमा के तल पर

दोनों के अन्तर सुमन खिले ॥८॥)

मन के रतिरंजित भावों कौ--

मोहक माया पहचान सके, भोगों के पथ से चलकर वे

दुख - भ्रामक पथ भी जान सके ।९॥

भोगों के पथ अनुभूति मिली हढ़ता की उर - निश्चय वाली, तेन - रति - विलास के ऊपर वह जिससे भरती जीवन - प्याली ॥१०॥।

ताना निसर्ग के रूपों में--

छवि - नट विलसित-सा खेल रहा, दर्शन की पावन आँखों से--

भावों भर करता मेल रहा ॥११॥

निसर्म-दश ने सर्ग २५६

शृति प्रेममरे साधन-पथ पर

नल दमयन्ती के भाव चले। अपनी. दर्शन 5 रेखाओं से--

चित्रित निसम - छवि-भाव भले १२॥

नल ने पछा दमयन्ती से “हे, प्रिये! आज इस सान्ध्य काल, क्या ही अच्छा होता, मिल हम-- हो चलें प्रकृति-श्री में निहाल ॥१३॥

कुछ खोत सरल श्री - दर्शन के-- लख लें सन्ध्या की लाली में छवि-भाव मधुर मादकता का-- भर लें अन्तर की प्याली में ॥१४॥

सन्ध्या का सुकलित आलिगन उस क्षितिज - राग की बाँहों में--- कंसे होता, वह देखें. हम कंसे सजती भिज चाहों में ॥१५॥

हे, देवि ! सन्ध्या - काल की, छवि से भरी रस-लालिमा-- देख, यही मन में हुआ, जिसमें हो कटु कालिमा जिसके गमन की पीर ले, निशि - पथ निरखता नभ सिहर शशि - दीप ले आँखें सहस, आँस गिराती रात भर ॥१३॥

अपनी प्रकृति के भाव में, धर रूप कौन विलस रहा सूरज चकित नित भाव भर, चलकर कलित छवि लख रहा अम्बर सहज ले श्यामता, वह रूप किसका घर रहा? जग के फलित श्रृंगार में, रस - राग क्यों नित मर रहा ? ॥१७॥।

२६० हुंस-कलाधर

खग-गान में मधु भाव भर, तरु की शिखा में झूमता भर कर सुमन में हास मूदु, बनकर भ्रमर नित चमता कलिका सरस मृद्र राग - हित, किसका सुपथ नित देखती ? जिससे सुरंजित तितलिका, माती परस नित थिरकती ॥१५॥

वह नाद पंचम कोकिला, भरती सरस किस ताल पर ? किसको सुनाती गान वह, मोहक हृदय में भाव भर ? अमराइयों के भाव में, वह गूज किसकी चल रही? अन्तर - श्रवण से सूत्र जिसे, रसता सभाव विकल रही ॥१९॥

लतिका विटप से लिपट कर, किसकी कथा नित सुन रही ? शुक - सारिका के प्रइन पर, उत्तर सहज क्या गुन रही ? पल्‍लव - सभा मे बेंठ खग, मधु -पवन से क्‍या पूछते? सन्देश पा आनन्द का, फिर मौन हो क्‍या सोचते ? ॥२०॥

छवि - फलित भावों की कला, में कौन नत्त कर रहा ? मोहक सुरजित चित्रमय, अनुराग रूपित कर रहा? सज्जित क्षितिज के छोर पर, सस्मित स्वयं श्री लख रहा ? पश्चिम दिशा में छिप मधुर, उदगार कौन परख रहा ? ॥२१॥

इतिहास जिसकी बदलती, मोहक निशानी खोजता वह सान्ध्य गीत सभाव रुक, निर्वेद भर नित विरचता। वह लालिमा सिन्द्र की या शक्ति की सकेतिका ! किसने कला - श्रूगार की अनुपम सेंजोयी पेटिका !॥२२॥

हे देवि! जीवन की कला, सचमुच प्रकृति में विलसती। श्रृंगार की मादक छटा, अबुराग -घन से बरसती। मुस्कान चपला - भाव में, नव रूप पर जो निरखती ! वह कौन जिसको लालिमा, श्वगार पाकर परखती ? ॥२३॥

निसर्ग-दर्शन सर्म २६१

नपवर लेकर निज प्रिया साथ ; भावित होकर लख दृश्य सुधर, प्रमुदित उपवन की ओर चला

सन्ध्या का भ्रमण-काल लख कर ||२४॥

सन्ध्या सिन्दूरी कला लिये

आशा का पट रंजित करती, कलरंग - विभा को लाली में--

नव प्रकृति - साज सज्जित करती ॥२४५॥

अम्बर - परिधान पहन द्यामल फहरा मादक छवि क्षितिज - छोर, ज्यों सन्ध्या-श्री अधज्चल पसार उनको पुकारती विभा - ओर ॥२६॥

सुमनिल विकास, पलल्‍लव-लालित,

उपवन का ले कड्चुकी साज, आलिगन को थी बुला रही--

सन्ध्या किसको छवि में विराज ? ॥२७॥

नव भाव - रचित सौन्दर्य - बीच

मनन्‍्थर गति कला संवार रही दम्पति - तन की छवि-छलकन लख

पद - चारण रही समाल मही ॥२८।॥।

बोला नल धीरे, “प्रिये ! निरख

नभ विहग जा रहे नीड़ - ओर दिनभर मस्ती के भाव विचर

जीवन-छबि का लख शान्ति-छोर ।॥॥२९६॥

4

हंस-कलाधर

नभ की आँखों में जादू भर

पंखों में भर कोमल दोलन, पाते छवि सरस विहार -बीच

भोले भावों के विहग प्रमन ॥३०

धरती की माया से उड़कर

नभ से फिर धरती निरख रहे, निष्काम - भाव में खिलती छवि--

नीचे ऊपर तक परख रहे ॥३६१॥

“मैं की तज कटुक दासता खग

लख रहे अकिचन के स्वर में। रूपित निसगग में खेल रहा

छविधर कोई भावित हर में॥३२॥

किसकी छवि से भावित होकर

सन्ध्या का स्वणिम प्यार चला नभ मोहक नाना रूपों में--

किस पर करता श्र गार, भला ! ॥३३॥

अम्बर में कला - विहारी बन

विलसित सन्ध्या के भावों मे, अनुरंजतन का रस पाते खग

उड़कर मादक आशाओं में ।॥३४॥

है, प्रिये! देख वह विहग- पाँति

किरणों पर चढ़ किस देश चली, सिन्द्रोी मदिर विभा में खिल

उड़ती कलियों - सी लगी भली॥३४५।॥

निसर्ग-दर्शन सर्ग अपने मानस की रची हुई ेल्‍ जि जित कला रहा, स॒पथ मय गत केला २, ससख्या आँखों के इंगित भैं+- उस ओर खगों को बला रही।॥ई «।॥

ऊपर चढ़ती मधु - झड़ियों - सी -

किरणों में होकर सतात चल खग भाव परख प्रिय जीवन के

आनन्द - पथथिक, अज्ञात 7 3॥

है, देवि ! देख वहू पंख झाइ अगड़ाई ले दिज डाला पर, साथी खग के पर -दोलन में क्या निरख रहा उस लाभी पर ॥२५॥

सज्जित निसग के बीच मधुर

नत्तन का वह संगीत आन, जिसको सुनकर खग पंख फ्रा

अन्तर - विभोर हो गया मोन ? ॥३६॥

रवि - मंडल जिसके भान - बीच

बन गया सुधर अति लिलब, लाल, जिसके समीप वह विहग-पक्ति

जा रही बनी शुत्षि सुमन-माल ॥४०॥

छिट - फुट छितराये विहृंग - बन्द

दर्शित ज्यों चपल सुमन - बरंण किसकी श्लॉकी में हो निमम्न

भर रहे अलोकिक आकर्षण ? ८१,

२६४

हंवनकलाधघर

मुड, देख, प्रिये ! उस झुरमुट पर--

वह॒वुद्ध शकुन ले रहा धूप खोये यौवन को सन्ध्या की--

मोहक छवि में लखता अनूप ॥४२॥

मधुमप॒ किसके वह दश्शोन मैं-- भूला यौवत्र प्रस्ताव किये, रह - रह कर पंख फूरा देता मस्ती के अमनी भाव लिये ॥४३॥

सर से निज सरस संतरण तज वह॒ गया हंस क्यो डाली पर ? कर - रंजित स्वर्ण - हंस हो लें, इसलिये निरखता क्या जी भर ? ४४॥

मुस्कान मधुर सन्ध्या - श्री में--

मुख - पंकज - दय से निकल मिली पाकर रहस्य की रसता ज्यों

अगुराम - लता की कली खिली ॥४५॥

बोला नृप, प्रिये! देख सम्मुख

सन्ध्या समोहन - रूप लिये भीचे - ऊपर तक विलस रही

मधुरंजित नाना रूप किये ॥४६॥

तू निरखे रही वह हंस - रूप, मन की लीला क्‍या बदलेगी ? आकर्षण की मृदु माया 5० 2

क्या प्रेम - कहानी फिर होगी ? ॥४७॥।

निसमे-दर्शन सर्ग २६४

उत्तर में केवल मधुर हास पीताभ कला में खिल पाया, लल के मानस को लहरों पर

विकसित झतदल ज्यों हिल पाया ॥४८॥

रसलीनब मधुयप के भावों में--

तुप पुनः सेमगेल कर बोल उठा, उप विहग-भाव में ब्यंग दिखा

अन्तर में नव रस घोल उठा ॥४९॥

“धबैठा एकान्त फुनगियों पर

सुमनों से खग करता सलाह, संयोग - फलित सब्ध्या - श्री में--

उसको छवि से कुछ बयी चाह ॥५०॥

वह देख, गश्लोर लताओं में--

लावों की लुका - छिपी कंसी ? फिर एक साथ क्म्बर धरते

फूलो में मधुर बिखेर हंसी।।११॥

तह से लिपटी वह लता प्रिथे !

निज यौवत्त में निर्भार हुई। सुमनों के मिस मृदु हासभरी

क्या निरख रही साभार हुई ? ॥५२॥

पत्रों के कर इंगित करते

सुमनों में किसकी छवि - रेखा ! सादक स्वभाव में झूम रहे

किन नयनों से किसको देखा ? ॥५३॥

हंस-कलाधर

सेमल की डाली पर तोते

दिन भर प्रयास से हो उदास, सुन्ध्या की प्रसरित लाली में--

उड़कर अब पाते सुखद दवाँस ॥५४॥

सन्ध्यः का सम्मुख भाव निरख

सुमनो से क्थषिय - राग तजकर, निज अहकार अब भूल सहम

भागे शुक पथ गहरे अम्बर ॥५५॥

अब लेन - देन के ऊपर उठ अम्बर - श्री में निज रसता से-- उड़ रहे नभग आनन्द - मस्त हट विषयों की परवशता से ॥५६।॥

हारिल अब कला - कलोलभरे

पत्तों को कम्पित कर देते, फ्रकार परो के भावों में--

भर रूप -छटा मन हर लेते ॥५७॥

चंगुल - तुण - ग्राही क्‍या जाने कटु स्वर्ण - ग्रहण की मोह-बला ? जब खगी - सहित क्रीडा - विभोर, तव क्यो वह सम्मुख मोह, भज्रा ॥५5॥

क्या पि्रक विजन इलाते हैं क्रीड़त खग-दल को श्रमित जान ? था उनको हिल - इल समझाते तन-विषय-मग्न, मन-अ्रमित मान ! ॥५६७॥

निसगं-दर्शन सर्ग

रंजित सुरंग श्यामल नभ से--

बह द्वेत कपोतक - दल आया, किसके मानस का भाव लिये

चल जलज-रूप लह॑रित भाया * ॥६०१।

सागर-बेला रवि - कर-कलिता--

जित भाबों से मादक बनती जिस छूवि की लहरों से टकरा

अज्चल - श्रृंगार सफल करती ॥६१॥

क्या यहाँ पहुँच ये खग भोले

आये ले छवि - सन्देण भले? हे, देबि! सहज श्रति-नयनों में

सन्देश - कला वह तो भर ले॥६२॥ जिसकी सितता से विस्मित हो

बह काग - मण्डली सिहर उठी, निज कटुक कालिमा से लज्जित

उच्च बॉस - शिखा से भभर उठो ॥६३॥

क्या हेम - कलित वह श्याम - विभा

लखकर पक्षी होते ऊपर ह? सध्‌ - पीत सुरंगी आभा से--

जा रहे गगत कर दोलित पर ॥६४॥

किस द्यामा की मुस्कान, प्रिये !

सन्ध्या के रूप निखर पायी? श्रृंगार - कला से स्वरता ले--

किस अन्तर से मिलने आयी ? ६५॥

२६७

हंस-कलाधर

वह कम-लोक की शान्ति कौन

जो सनन्‍्ध्या में आकार बनीं, किस मन-मोहन की मुरली से--

ध्वनि इंमित कर स्वर-ताल बनी ॥६६॥

बहु रूप-कुशल नत्तेक - कोई

नाना रूपों में नत्तित सा शुगार - साज अब देख, फ्रिये ! उसका सन्ध्या - श्री में विकसा ॥६७॥

उस क्षितिज-छो र-तरु-रा जि-छटा--

में किसकी आभा नाच रही, जिसके नूपुर - ध्वनि-भावों को--

उर-कलित रागिनी बाँच रही ? ॥६5५॥

क्रिसके भावों की कला देख

भन का आसन अब हिल जाता ? आनन्द - सिन्धु है कौन सहज

जिसमें वह तिर गोता खाता ? ॥६६॥।

विश्वान्ति - लक्ष्गत भावों से--

सन्ध्या की लीला राज रही। निज मधुर विभा की माया मे--

आशा लख भरती साज रही ॥७०॥

गोपाल लिये निज सुरभी - दल

घआ

कल हेम - विभा में चल पथ पर, वृत्सों की गति से प्रम॒दित हो

बक

अब छोड़ रहे वंशी के स्वर ॥७१॥

निसगं-दर्गन सम

गायों की मधुर घंटिका - ध्वनि

वेंदी - वादन के भावों में-- शिखरो पर खग - दल भावित कर

भर रही सूचना गाँवों में॥ ७२॥

स्वणिम किरणें ले ग्रान मधुर

किसके कानों तक जा पातीं सन्ध्या सस्मित छवि- भाव लिये

किसको रसता यह समझाती ? ॥७३१।

जिस मस्ती में हुंकार वृषभ

सुरभी - दल में भरता चलता उसकी बहार में कोन छिपा

नभ में सुद्रर तक बल भरता ? ॥७४॥

श्रद्धापरित उन गायों में--

विश्वास वृषभ किससे भरता, जिससे उनमें नव रसता का--

मधुप्राण प्रवाहित हो जाता ? ॥७५॥

रज - रंजित स्वणिम आभा में-- किसकी मृदु देख रहा थिरकन, वह भाव - मुग्ब॒ तीतर भोला कुछ बोल उठा स्वर-ताल-प्रमन | ७६॥

डाली से उत्तर मोर नीचे

पर सुकलित तनिक झाड़ लेता, सन्ध्या - स्वरूप के वैभव में--

भर भाव सहम आड़ लेता ॥७७॥॥

२६६

३२७०

हंंस-कलाधर

शशि-चित्रित पर की विभा दिखा

किसके आरबगत भावों में-- सन्ध्या से कर छविजलेन-देन

जाता पेदल तर - दावों में ॥७८५॥)

क्या समझ रहे कुछ पशु - पक्षी

आनन्द - पहेली जीवन की, जिसके हल पर शुचि शान्ति मिले

कटु रीति मिटे अपने मन की ? ॥७९॥

है, प्रिये! देख ले उपवन में--

प्रसरित अब छुटा निराली-सी, विश्वाम - हेतु मोहक्‌ थल लख

सचमुच प्रशान्ति ज्यों पाली-सी ॥८०॥ सुमनों में भर नव राग - कला

श्रमरों में प्रेम -कथा कहता तितली के कोमल पंखों से--

निज श्री में कौन थिरक रहता ॥5८५१॥

दिन में तन - भूख मिटाकर फिर किस मोहक छवि की चाह बनी भोले पक्षी आते संगीत

क्या उपवत्त - श्री मे राह बनी ? ॥८२॥ किरणों के जादू में कलियाँ--

वह परम, रूप क्‍या पाती है भूली विकास में हृदय खोल

जिसकी छवि से मिल जाती है ? ॥5८३॥

निसमगं-दर्शन सम २७१

वेसुध विकास में अमरों को

रस रूप कही कुछ मिल जाता लखकर सछोीह जिसकी रसता

किसलय का अज्चल हिल जाता ॥०८४॥

आगार - विक्रीडति यौवन में-- सम्मुख भ्रभरों के भाव, देख। हे, देवि ! सान्ध्य गति - बेला में-- गुन - गुन स्वर से प्रस्ताव देख ॥५५॥

चल रहा गगन में वेद - गान

पक्षी स्वर पाते डातनों पर, किन परियों की मृदु नृपुर-ध्वनि

होती किन छवि-गिरि-ढालों पर ? ॥5८६॥

रही गगन - रेखाओं से--

रंजित किरणों पर चढ़ी हुई क्या लख पाते हम वह थिरकन

किस रव में आती बढ़ी हुई ? ॥5७॥।

तरुवर - शिखाग्र पर रस-विभोर

खग - सभा मुदित कुछ बूझ रही, जिसकी आखों से दिव्य कला

छवि के आश्रय में सुझ रही ॥८५॥

हम धरती की माया में रत

ऊपर कही कुछ परख रहे, निज अहंकार की आँखों से--

वासना पली बस निरख रहे ॥८६॥

२७२

हंस-कलाधर

सुन्दर निसर्ग की रचना का--

संकेतक उपवकन क्या कहता, निज सुन्दरता के परदे पर

सस्सित रस-भाव कौन भरता ? ॥६०॥॥

क्या कोई ऐसा छवि - नत्तेंक

नाना विधान धर खेल रहा, फेलाकर अपनी बाँहों को--

बहु रूपों में कर मेल रहा ? ॥६१॥ घनश्याम कौन-सा वह छविधर

धरती पर रूप बरस जाता, होकर अरूप वह स्वरूप

निज महाशून्य में गति पाता ॥६२।॥

है, प्रिये! सहज आननन्‍्द-राशि

जीवन का एक मात्र जीवन, कंसे हम उससे अलग हुए

लेकर दुखमय कटु भ्रामक मन ॥|६३॥

सम्मुख निसर्ग की हर लीला

संकेतशरी उर खीच रही, पाता नर भाव - पथिक होकर--

वह छवि जो दिशा उलीच रही ॥९४॥

उपवन के शानन्‍्त सरोवर में-- जल - पक्षी दिन भर कर विहार, इंगित मराल की जोड़ी का-- पा पकड़ चुके मधुमय कगार ॥६५॥

निसर्ग-दर्जन सर्भ २७३

ककवा लखकर दिवसावसान

दिन-रसिक प्रिया से कर सलाह, सनिज पख डाल ऊप्र क्षणभर

अब सोच रहा निश्चि-वि रह-राह ॥६६॥

सइयामल पट पर लाली-रंजित

इस काल प्रतीची भास रही, रवि को पाकर अस्ताचल पर

छवि-स्वर में भरती इवॉस रही ॥६७॥

जग के सुढार में श्री भर कर

सूरज की किरणे बात्त हुईं, छुवि-राग - कला में कीड़ित हो

रवि-मइल में एकान्त हुई ॥६०॥॥

छिपती किरणों की माया लख

अब “कहाँ - कहाँ” कर काग रहे, निज भाव-रंग की कटठुता तज

किसमें भरते अनुराग रहे? ॥६६॥

सूरज का लख मोहक प्रयाण

हे, प्रिये! प्रख निवंद - राग, पुखरित अम्बर - खग - वेद - गान

सुतकर विरास - रस रहा जाम ॥६००॥।

कितना मोहक संसार, अहा!

भासित निसर्ग में विलस रहा : भावित अम्बर के परदे पर

नाना रूपो में हुलस रहा ॥१०१॥

२७

हस-क लाधर

दिन का प्रयाण अब देख, प्रिये !

प्राणी सब घरमुख हो पाये, भरकर रजनी के बास- भाव

वापस लिज - निज पथ पर भगये ।१०२॥

सरिता - कगार से ललनाये

जल - बीच उतर प्रतिविम्ब डाल, लहरित जल को निज रूप दिखा

घर - ओर चली बन मोह-जाल ॥१०३॥

लहरो की मोहक कल - ध्वनि में--

नूुपुर को मादक झनक डाल प्रनदा - दल वाफ्स घर लोटा

लहरित जीवन को कर विहाल १०४४७

उनके सिर पर आरोहित हो

गागर का जल ही धन्य हुआ गज - गति की छलकन से रचक

मुख - मंडल सीच अनन्य हुआ ॥१०५॥!

वह दर विचरती म्ृग - माला

जल पी ऊपर सरिता - कगार श्वानों की ध्वनि से भग विचलित

अब पहुँच चुकी उस हार - पार ॥१०६॥

लावा झण्डों मे भर उडान

कावा - विहरित मन अआन्ति जान, उड़कर सुदुर अब जा पहुँचे

तरु-राजि-छोर पर शान्ति मान ॥१०७॥

निसग-दशत सर्मे

सरिता - कगार - विठपों पर से

बगुले निज नभ-पथ साथ चजे कुछ एकाकी पर झार उड़

वत्तुलाकार कुछ लगे भले ॥१०८५।॥

जल पी गज कर निज ऊपर कर

मद - घोष - पूर्ण चढ़ते कगार पक्षी समीप फुरकारभरे

उडते सभीत लख आर- पार ॥१०९।। है, प्रिये! देख लोवा - जम्बुक

जल-पषान - निरत ही दबक रहे गज - रव सुन इ्वान दूर से ही

कटु भूंक्र - भरे जब तमक्र रहे ॥११०॥। हय - टाप अकन घरखमुखतावश

रास्भ - दल पुदित कुलाँच चुका बह तठ प्र घोबी काम रोक

मिल प्रिया-गले अब नाच चुका ॥१११॥

पथ्च दूर बटोही जो जाते

रवि - अस्त-समय अब कर विचार रजनी से रुकना सोच रहे

गति रोक पूछ अपना उबार ॥११२॥

हो सकते जो गल्तव्य लम्य

उनपर गति कुछ निज बढ़ा रहे ऐसे राही उत्साह लिये

भावों भर पद - गति. चढ़ा रहे ॥११३॥

२७५

रछर

हँस-कलाधर

नभ दर देश से दल - कपोत

उड्ध निज बासों के पास चले | मेंडरानि वाले चले. निरख

खग रास छोड़ जीवन - रस ले ११७४७

पक्षी कर मुंह निज नीड़ - ओर

जा रहे गगन -प्थ चाहभरे हे, देवि! समय घर चलने का

आओ हम भी निज राह धरे ।॥११४॥ कुछ दूर पहुँच हो रथारुढ

सयम - विचार के साथ जुड़े सन्ध्या - श्री कर ज्यों पान युगल

भावों से भर पथ -ओर मुड़ ॥११६॥

निसर्ग-दर्शन सर्य प्रात चविहार

रजनी का लख मोहक प्रयाण

तारे वयनों से अश्र ढार वबूमिल शशि को दे नमन - भाव

छिप चले ठउ्यथा ले गगन - पार ॥१॥

अम्बर की सहज द्यामता अब

ऊषा - दरशंन - हित सजग हुई। खोयी निधियों की व्यथा भूल

नूतन निखार में बनी नई॥२॥

दमयन्ती में उल्लास देख

प्रातः छवि - दर्शन - भाव जान, राजा नल उपवन - और चला

दम्पति - लीला का मोद सान ॥३॥

सम्मुख विकास की कोमलता

निज यौवन में श्वगारमयी, कलिकाओं में नव राग लिये

मकरनद भाव में सारमयी ॥४॥

सस्मित आनन की किरणों से--

मधुता सुमत्तों की खिलती - सी, चल दृष्टि -पात के भाव्रों से

मधुपों को प्रियता मिलती - सी ॥५॥

रजड्८

हंस-कलाधर

रंगीन विभा में खिलती नव

कलिकाओ का आभार मान दम्पति - यौवन-छुवि - लहरों से--

मिलती बयार मधु प्यार जान ॥६॥

वोली दमयनन्‍ती, “नाथ, आज

यह प्रात कला की उजियाली-- मधुमयी नवागत लाली से--

कथा भर देगी रस की प्याली ? ॥७॥

क्या उसी नशे में चर आज

प्राची से गठन्धन होगा? अच्छा होगा तब मंत्र बोल

मेश भी शुभ वन्दन होगा” ॥5॥॥

छा गयी मधुर मुस्कान - विभा

मुख - मंडल के व्यापारों में। भर गये युगल आलिगन में

बज उठी रागिनी तारों में॥९॥

प्रची की सिन्दूरी रेखा

अपने सुराग में रंग ढार, नल दमयन्ती के भावों मे--

करती प्रवेश ज्यों मोद धार ॥१०॥

मुस्कान मधुर कलिकाओं में--

मधुता भर कोमल हास बनी, अमरों के मादक भावों में

नव प्रेम-मिलन की प्यास बनी ॥११॥

निसर्म-दर्शव सर्ग--प्रात विहार

संभाषण. की कीमलता ज्यों

अब चचरीक - स्वर गान बनी, दुता भर अंग - भंगिमा अब

तितली की गति में तान बनी ॥६१२॥

प्रिय - प्रेम - विकास विलास रूप

अब नयनों का व्यापार बना, दर्शन में बाहर चित्रित हो

मृदु छवि से मिल साकार बता ॥१३॥।

वोली दमयच्ती, “नाथ, विहेस-

ऊषा भोली आयी कंसी ! अपनी. मस्ती आन-दभरी

लेकर मन की मुदिता जेप्ती ॥१४॥

आनन्दभरी उस लाली में--

वह विभा उमड़ती किस स्वर में ? अन्तर - रेखायें. चल पाती

होकर विभोर जिसके तल में १५॥

अम्बर की बाहों में भूली--

किसकी सुधि में नित जाती, आकर प्रभात में विभा बाँट

सन्‍्तोष कहाँ. वापस पाती ?॥१६॥।

प्रिय, प्रेममरी तव बाँहों मैं--

मैं भो प्रभात -छवि पाऊंगी अपने जीवन का वंभव दे

सन्‍्तोष - लाभ उर लाऊँगी ।[१७॥॥

२७६

बृ८०

शा

हंस-कलाधर

रंगीन - विभा में हंसती वह

निज नित्य मोद में भाती -सी, ऊधा प्रसाद भर प्रकट हुई

प्रिययम - हित लिये आरती - सी ॥१५॥ कल पक्षी पंक्ति बाँव सुन्दर

माला की भाँति उड़ चलते, तरु - राजि - छठा के ऊपर से

अम्बर - छवि - ग्रीवा में लसते॥१९॥

प्यारी छाया को उर समेट

तरुवर सोये जो जगत शभ्ुल, कलरव कर पक्षी जगा रहे

समझा लज्जा के पाठ मूल ॥२०।

9 आआ सा

धीरे-धीरे तर सजग हुए

छाया - मुग्धा सें भाव डाल, मादक गति में जो जाग रही

फेस निशा - मिलन के मोह जाल ॥२१॥

कुहरे को चादर वगल डाल

मादक हरियाली झलक रही, खिलती कलियो के नथनों की--

रसभरी खोलती पलक रही ॥२२॥

प्रिय भावों के उदयारों में--

श्ुगार - कला बल खाती - सी, ऊषा की झॉाँकी में आकर

नयनों में नहीं समाती - सी ॥२३॥

लिसर्ग-दशेत स्नो--प्रात विहार

इयामा सम्मुख मंजरियों कौ--

माया में छिषकर बोल रही, प्रातः की विकसित लीला लख

कानों में घधुरस घोल रही॥२४७

प्रिय झीनी चादर ऊपर कर

कलियाँ लसती अँगड़ाई में॥ अमरों को आकर्षित करती

मधुभरी नवल सुधघराई से ३२५॥

नव विकसित नीरज - नयनों से

ऊषा - द्शत के राग लिये, कोमल लहरें अन्तर - गति से

अब जगती भर अनुराग यये॥२६॥

प्रियतम, यह भ्रम होता होगा

वह ऊषा में लाली क्या है। भरती पराग कलिकाओं में--

वह यौवन - मतवाली क्‍या है॥रज्ष॥।

जादू भर देती नयचों में--

अन्तर - गति मोहित कर देती, निज मौन मृदुल मुस्कान दिखा

भावों से विथकित - सी करती | २८॥।

ज्यों निशि ने शशि-अवुराग-प्रसव--

से ऊषा को नव जन्म दिया, प्राची निज पावन गोदी में--

लेकर अनुपम श्रृंगार किया ॥२९६॥

ल्‍पँ 57 * ०)

२४२

हस-कलाधर

या योग - स्वहूप कला से भर

जग - अन्धकार कटु त्याग चला, आनन्द - विभा की लाली से

पा प्रथम जागरण ज्ञान - कला ॥३०॥॥

या जपा कुसुम के नब वन का लखकर सुहास भावों से भर, नभ चित्र खीचता सस्मित मुख प्राची के पावन फलक सुधर ॥३ १॥

यथा विश्व - सुन्दरी की मादक--

मुस्कान खिली उस लाली में इयामल अम्बर बेमव में भर

भूला उस छवि मतवाली में ॥३२॥

या हेम -विभा के परदे में--

परियों का कोई लोक छिपा, जगमग - सी झलक फलित पट पर

नव राग - रग॒ मादक रति पा ॥३३॥

था मधुशाला का द्वार सजा

मधुरजन की शोभा से भर, परदे में विलसित मधुबाला

कोमल कर में प्याला लेकर ॥३४॥

मुझको लगता, आनन्द - विभा

सबके अन्तर - भावों वाली, छवि - सार सजीवन ले आयी

चाहे जो पी ले भर प्याली॥३५॥

निसर्ग-दर्शन सर्ग--प्रात विहार

प्रिय, अपनी कटुता का ऐनक

सम्म्खल जो सहज उतार सक्रे, ऊषा की मधुर छंटा से वह

पाकर मुदिता मुस्कान छुके ॥३६॥

सज प्रकृति विलसती भर विलास

अन्तर के तार बजादी - सी, लाना भावों में खिली हुई

मादक खग - स्वर में गाती - सी ॥३७॥

रजनी भर सोये इंचरीक

पाकर प्रातः: का ज्योति - भान पृकज सुहास से हिल - मिल कर

किसका करते अब प्रेम - गान ॥३५॥

रसमयी कला में डबा वह

उसका मुदु मादक स्वर क्‍या है? जिसमें खोने का भाव मिला

वह जीवन - शह उधर क्या है ? ॥३६॥

रंगों की विरचित माया से--

पाकर मधुरूपित कौन कला-- कोमल प्रकाश पर तिरती है

धर साज तितलिका वह अबला ॥४०।।

किस परम अलक्षित का रहस्य

शूंगार - कला में नाच रहा? वह स्वयं विनत्तित लीला में--

आनन्द, रूप, रस जाँच रहा ॥४१॥

२८३

श्घ४

के

हंंस-कलाधर

क्रोमल निसग॑ के अघरों - सी

ऊषा मुस्कान सफल करतीं, क्षण वत्तमान की रसता में+-

तज भूत - भविष्य उत्तर पड़ती ॥४२॥)

बह मिट जाने का भाव छन्‍्य

जो वत्तमान पथ चलता हो, मधुभाव क्षण भर तजकर जो

आनन्द - रूप में मिलता हो ॥४३॥

जिसकी मुस्कान निरख कर जन

भावों की झोली भर लेता, अपनी सुधि के उद्गारों से--

निज-निज मन भर लेता - देता ॥४४।॥

पर लेना -देना तजकर जो

रस - सिन्धु - धार में पाता आनन्द परम उसका होता

भूले अपने को पा जाता ॥४५॥

ऊपा का लेता - देना क्‍या आनन्द - मस्न होना उसका। मन की माया तज ऊपर हो मस्ती सें भर हँसना जिसका ॥४६॥

उड़ने की गति में मस्त नभग पंखों से किसकी छठा साध प्रियतम, देखें कंसे लगते

अपने स्वभाव में हो अबाध ।४७॥।

निसर्ग-दर्श सर्ग--प्रात विहार २८५

वे चले जा रहे किस छवि के--

भावों से प्रित छोर जान, रागारुण दयामल अम्बर में--

आशा के ऊपर मोद मात ॥४८॥॥

वह कौन विहारी पंखों सें--

जीवन - छवि सरस बटोर रहा अम्बर प्रभात के भावों को--

जगती पर मुदित बिखेर रहा ॥४९॥।

जिस छवि से होकर हंस - पाँति

मानस के पार पहुँच जाती, कऊति - कला राह में वितरित कर--

निज सहज सरोवर में भाती।॥॥५०॥

खिलती पंकज की कलियों से-- क्या हंस - विभा कुछ कह देगी ? उस कहा - सुनी के संगम पर-- मन की मुदिता कसी होगी ? ॥५१॥

प्रिय, जिस रहस्य के दर्शन - हित

ऊषा धीरे से झाँक रही, उस परम छठटा में चलने को--

प्यारी सुधि भोली ताक रही ॥५२॥

किस क्षण में जग की व्यथा भूल

जीवन का सर अपना होगा, पुष्पित अन्दर की जग्मग में--

मधुमय अलिगुृंजन भर देगा ? ॥५३॥

श्न्द्‌

हंस-फलाधर

जिसकी बहती छुविधारा में-- लहरित जीवन - छवि - रूप मिला, उस परम रूप की चितवन सें-- मुस्काता भोला प्रात खिला ॥४४॥

हे, प्रिय! वह जीवन अपना है

चलने पर राग-द्वघई तजकर, पश्रगार, परम आनन्द -साज

मिलता सस्‍्वभावगत जो जीभर। ५५॥

सुमनों की सस्मित लीला में--

उपवन - श्री सस्मित देख चले, छुविमानों मे छविमान एक

उसकी जी भर कर झाँकी लें ॥५६!॥

प्रिय, प्रममयी उस दशा - बीच

रेखा फिर कहाँ वासना की? आनबन्‍्द - मग्नता में अपनी

लेने को कुछ कही वाको ॥४७॥

निश्ि-दिवस यवनिका की गति पर

लीला रस - कलामयी चलती सन्व्या - प्रभात विष्कंभ समझ

नाना रूपों में बन रहती ॥४5॥

सोयी जग की कल चित्रपटी

जो निशि की भरी कालिमा में-- ताना रंगों की शोभा ले--

खिल उठी सुप्रात - लालिमा में ॥५६॥

निसगे-दर्शन समं--प्रात विहार २८७

रजनी गुण से, नित खोच रही

जगती का थकित पुरानापन। प्रातः करता फिर से वितरित

जग - रूप - भाव में नव जीवन ॥६०॥

आशा की किस मधु डोरी से--

खग खिंचे जा रहे प्रेमभरे, पीताभ द्यामता में तिरते

प्राची समीप चब राग धरे॥६१॥

निशि सपनों को साकार देख

वह ग्रगन परेवा प्रिया - साथ, प्रिय, देखें वह जा रहा पू्व

प्रातरछुवि की सुनने सुगाथ ॥६२॥

दुख - सुख में हाथ बटाने को--

जा रही परेई संग लगी, अम्बर सुरंग इयामल श्री में--

प्रेमाभ छ॒ुटा के भाव पगी ॥६३॥।

आनन्द मनाना ही जीवन,

इसकी रसता खग समझ रहे, उत्साह मोद से भरे हुए

नभ में कही पर उलझ रहे ॥६४॥

सत्कार खगी का देखें, प्रिय !

कुसुमित श्री - सज्जित डाली पर, रूपों से होड़ मिलाने को--

निज प्रिय चुम्बनवश मधु से भर ॥६५॥

स्ध्८

हंस-कलाधर

जिस चुम्बन की रसता है, प्रिय !

आलिंगन के पथ उमड़ रही, प्रिय - पंख-पाश में पड़ी खगी

भावों भर रति में जकड़ रही” ॥॥६६।॥।

भर गये युगल आलिगन में--

नल - दमयन्ती रस भाव छुक़े क्षण भूल समय की गति मोहक

विस्मृति का सुख पहचान सके ॥६७छ॥॥

फिर दिव्य भाव से दमयन्ती

लख दिव्य छटा की रस - झाँकी रंजित रस में रवि - बिम्ब देख

कुछ समझ सकी अपने जी की ॥६८५॥॥

आशाओं का सत्कार देख--

खग - गानभरे भावुक उर से विद्नत सुमनो के भावों में--

फिर बोल उठी कोयल स्वर से ॥६६।॥।

जीवन - रस - पथ कुछ समझ सकी

वत्तित छवि के वग्यापारों से। भोली दमयन्ती फिर बोली

भावकता भरे विचारों से ॥७०॥

“प्रिय, नवल प्रभाती लीला में--

जीवन के सुमन खिला लें हम . क्या ही सुन्दर होता, मोहन !

जीवन - मधु - धार मिला लें हम ॥७१॥

निसमं-दर्शन सर्ग--प्रात विहार

40]

| जो जीवद की कलियाँ

अब तक अभाववश खिल सकी, मकरन्द - भाव से भर उनको यौवन - रसता प्रा ले उनकी शाह

मल छ्र

देखें, कोयल की माती ध्वनि कलिकाओं से क्‍या कहती

मधुमय विकारू की घारा में-- स्वर - लहये सहज उमड़दी है ॥७३॥

४2४77

पाकर विकास जो सुमन बनीं स्वर-धारा में लहरा लेती, कलियाँ मुस्कान प्रदशन - हित घूंघट के दल विखरा देती ॥७४॥

मोहक विकास - छवि - रूपों में--

खिलने की जेसे होड़ लगी अलियुजन की वह नब्य कला

कंपित लतिका के साथ जगी ॥७५॥

पक्षी क्‍या हैं नादान सभी जीवन का रस भर लेने में ? है बरस रहा जो क््हज स्वयं बस भूल उसे खो देने में ॥७६॥

खिलकर निदान मिट जाने की--

चिन्ता जीवन में कौन करे जीवन - हित जो रस वरस रहा

उप्तको सप्रेम बस मौन भरे ॥७७॥

7

हस-कलाधर

पाकर विकास मिट जाने में--

प्रिय, शान्ति - भाव का रस बसता, आनन्द अमर सबमें कोई

लख ले जो, मधु उसका बनता ॥॥७८५॥।

सबका परिणाम सरसता का

अन्तर - स्वभाव से जान सके, वह धन्य महामानव जग में--

जो मधु - धारा पहचान सके ॥७९॥

दुख सुख दोनों के खेल बीच

रस के स्वभाव में झाँक रही, मधुता वह प्यारे जीवन कीौ--

प्याली की क्षमता ऑक रही ॥5८०॥

प्रिय, भूत भविष्य भूलकर हम

क्षण वत्तंवान खाली भर लें, नयनो के मदिर झरोखे से--

मधुशाला की प्याली भर लें।॥।5१॥

मतवाली अपनी माया मे-- प्रियता स्वभाव भर नाच सके, उस चकाचोध में क्षण भर हम मधुनयी एकता जाँच सकें ॥5२

प्रातः की छवि मधुणाला मैं--

द्वार खोलती रंजन का, जिसकी ज॑ंसी अन्तर - गति हो

पा ले आसन अपने मन का ॥८३।॥

निसगं-दर्शन सर्ग--प्रात विहार २६१ प्रिय, देख सके तो देखें छवि

प्रात). की इस उजियाली में कसी वह लगती भावमयी

अपनी रचना मतवाली में ॥८४॥

सरिता सर स्वणिम रंग - विभा पाकर शोभा में विलस रहे,

उमिल आलिगन के स्वर में प्रिय, प्रातकला भर विहेँस रहे ॥॥५४५॥

अम्बर से कलित नव्यता का

श्गार सहज ज्यों उतर चला, आनन्द मधुर मुस्कान - सहित

वितरित करता - सा प्रेम - कला ॥८६॥

प्रिय, रस - रंजित मुस्कान - साज

अन्तर - पट पर अंकित कर नें जब॒ चाहें उप्तरकों अन्दर लख

मुदिता से निज झोली भर ले ॥5८७॥।

पावन खग - वन्दन शिखरों पर

चलता पिगल - कर - भावों में उड़ती तरु से वह बगुल -पंक्ति

स्वणिम माला की श्री जिसमें ॥८८॥

वह पावन .वन्दव किसका है

विहमगों के कोमेल कल स्वर में, जिसको नृततव छवि सुन पाती

सस्मित झोभित शुचि अम्वर में ? ॥5५६,।

हंस-कलाधर

नथनो के पथ से जो होकर

अन्तर में भर अनुराग रही, छवि सुमनों में वह किसको है

जो प्रात विभा में जाम रही ॥६०॥॥

जो स्वयं वना यौवन - स्वरूप

मुस्कान - किरण में खिलता -सा जीवन की ज्ञाँकी देने को

उर प्रेम - रूप में मिलता - सा ॥६ ?१॥॥

तारक नयनी से किसे निरख

बतला दें, वे किस देश चले, शशि से लेकर मुस्कान » कला

जो हंसते निशि मे सहज भले ? ॥६२॥

निशि - माया की मोहक रचना रवि - ज्ञान-कला में क्‍यों छिपती ? क्या प्रात -अक में और रही जीवन की मुदु शोभा दिपती ? ॥६३॥

मधु - हित चलती जग-लीला मे--

पट पर नाना छवि जो धरता, वह तो जीवन का जीवन प्रिय

मधु-निधि रस-भाव सफल करता ॥॥६४।॥।

[0

निशि अन्धकार को आशा दे-

प्रात।ः में धरती अलग राह कुछ नुतन॒ राग बजाने को मिलती सन्ध्या - तट लिये चाह ॥६५॥

निसमं-दर्शन सग--प्रात्ष जिहार

नतृततता की पा दिव्य राह

रसता रूपित हो चलती -सी पाकर निसगे की शात - छठा

संकेत कही कुछ करती - सी ॥६६॥

सन्ध्या प्रातः को बुला रही

मुदु भावभरे कोमल स्वर में, नित किरण-लास में भर विकास

निज रस बिखेरती - सी हर में ॥९७॥

प्रातः पुकारता सन्ध्या को--

आशा के प्रेमभरे पथ से, श़्ंगार - कहानी दीपक की--

नित समझ्न रहा ऊषा-स्वर से ॥६८५॥

प्रातः की गोदी में सन्ध्या--

नित लाली लेकर मिलती ज्यों मुख की लाली रख देने को

श्रृंगार - राग में खिलती ज्यों ॥६९॥

सन्ध्या भी प्रातः को लेकर निश्षि प्रेम - लोक में छिपती - सी फिर मिलन - कला से विकसित हो ऊषा बन सस्मित खिलती - सी १००

यह प्रेम - कहानी जीवन की--

प्रियतम, सचमुच जो जान सका, आनन्द - सिन्धु में लहरित-सा

पुरा जग - जीवन मान सका ॥१०१॥

२६३

२६४

हँस-कलाधर

अम्बर द्यामल आनन्दभरा सन्ध्या - प्रभात की लीला भर, खग - गान - भरित सुमनित विकास प्रिय, कटुता इसमें कहाँ किधर ? ॥१०२॥।

बीते जीवन को भूल सहज

नव जीवन में खग॒ विचर रहे पीताभ कला पर तिरते कुछ

पुष्पित तरु पर कुछ, प्रियव र, है! ॥॥१०३॥

सचमुच उनका जो वेद -गान

प्रातः की छवि में चल पाता, रसता की राह पकड़ कोमल

सन्ध्या के स्वर में मिल जाता ॥१०४।॥

कोयल मादकता में पागल

बस “कहूँ कहूँ” कह रह जाती। उतनी ही ध्वनि पंचम स्वर में--

कोमल कठो से कह पाती ॥१०५॥

“पो कहाँ” पपीहा परावस में--

उस मोहन को रटता स्वर से चपला -स्मिति में जो, कभी - कभी

झाँकी देता घन - अम्बर से ॥१०६।॥

चपला की चमकीली डोरी

बेंघती - सी ज्यों प्रमिल तन मे, नत्तनरत सहज शिखी होते

लख उसकी ही मधुता घन में ॥१०७॥

निसगं-दर्शन सर्ग-प्रात जिहार

पावस प्रभात की शोभा में--

घन - इन्द्रधनुप की छवि उसकी। छुविधर जीवन की झड़ियों से--

वर्षा कर देता छवि - रस की | १०८॥

सुरधतुषी रंगों में क्रीड़ित--

रंजित कर चंगुल, चजञ्चु, भाल, शुक विलस रहे रस - भावभरे

पहने कंठों में कलित माल ॥१०९॥

मधुमास - बीच वह रसमय हो नाना रूपों में घम रहा खग - मृग तरु, सुमनित लता - बीच मधुभाव - भरित वह झूम रहा ॥११०।॥

है, प्रिय! आलिंगन के स्वर मे--

तितली क्या उसको समझाती ? मधुरंजित नव परिधान पहन

चुम्बनगत रस से भर जाती ॥१११॥

मधु - धारा का ग्रुण-गान सहज

गुन - गुन कर मधुप कह पाता, मधुपान - फलित मादकता से--

दलगत रजनी में खो जाता ॥११२॥

प्रिय धन्य वही जो डब तिरे,

मधुता की निज गहराई में बाहर की झाँकी दीपित हो,

अपने मन की सुघराई में ॥११३॥

ल्‍प्ँ 072 जौ

२६६ हँस-कलाघर

भर वह छ्ूगार प्रभाती में--

उत्तर देता घर दिव्य कला प्रिय, देख सके तो देखें अब,

उसके आश्रय मे छवि अबला ॥११४।॥

छवि सदा सहारा ले बसती

रूपो की चलती माया से वह रूपवान तो एक सदा

बनता अनेक निज काया से ॥११५॥

मीहक प्रकृति के भाव में, वह नित विलसता एक ही, प्रातदछुटा के अंक में, बेसुध विचरता है वही, निशि - साज - वलित मयंक बन, तारक - सभा में निखरता मादक बदल निज ताल नट, नत्तित विभा से विलसता ॥११६।

प्रियता। नवल नित दे रही, पावन प्रभाती लालिमा। सौन्दर्य का भर साज शुचि, भूली कटुक उर - कलिमा निशि के गिरे ऑसू सहज, मुस्कान में अब खिल गये फिर दीप-लीला लख विगत, प्रिय रवि-कला में मिल गये ११७॥

रस-राग की लीला वही, निज रास में नित रच रहा, संगीत भर नव भाव में, नित रूप रचता नट महा। मधुरूप यौवन में दिया, अपने बदलते ताल से। फिर बदल कर स्वर और ही, मिलता जरा-गति-भाव से | ११८५॥

तरुवर-शिखा पर गानकर, खगरूप में लसता वही, पत्रक सभा में ताल भर, बन कर सुमन हँसता वही। चुम्बन-कला का वह मधुप, मधुभावना उसमे बसी

रंजन उसी से पा तितलियाँ, थिरकती बन रूपसी ॥११९॥

निस्ग-दर्शन सर्ग--प्रात विहार २६७ भर नाद पंचम कोकिला, गाती उसी के ताल पर हर भाव में रूपित वही, भरता विलक्षण नवल स्वर योवन-विभा में छिप वही, भरता नवल रस - वासना

का

फिर दर्णकों में भाव भर, भरता मद्रुर रस - कामना ॥१२०॥

लतिका लिपट प्रिय विटप से, सुनती कथा वस प्रेम की खगगानभय मृद्रु प्रश्न पर, पाकर कला मधु मात की। पललव - सभा में नभग चित, जिसकी कहानी पूछते प्रतिरूप - वासी सहज प्रियतम, को कला नित बूझते ॥१२१॥

छवि - फलित रचना में स्वय, धर रूप नत्त कर रहा वह ज्ञान - सत्‌ - आनन्द के, संग प्रेममथ भी बन रहा। अम्बर दिशा के छोर पर, सस्मित कला नित लख रहा मादक दरशाओं में वहीं, संभार कलित परख रहा॥१२२॥

इतिहास देकर बदलता, वह तो स्वय जग-खेल में सन्ध्या - प्रभाती में स्वयं, हँसलता विरमता मेल में। संयोग में सस्मित वही, विरही सुपर - वियोग में। श्रूगार में खिलता वही, नित प्रेम के रस - योग में॥१२३॥

रस की फलित जीवन-छटा, लेकर प्रक्ृोति नित विहसती रस - हेतु सान्ध्य प्रयाण में, नि्बंेद के सेंग विरमती अनुराग उसका रूप धर, घत की घटा मे बरसता स्नेही सहज चातक बना, उर - भाव - हित नित तरसता १२४॥

रस-हेतु रजनी में छिठी, है प्रिय ! उसी की कालिमा ऊषा सुरजित रूप में, पाती उसी की लालिमा। सन्ध्या सभाव गुलाल भर, छविरंग उसका धारती शुचि रूप में प्रिय भाव भर, करती उसो की आरती ॥१२१५॥

श्श्८

हुस-कलाधर

प्रिय, देख नहीं लेते नभ में--

खग किसको रहे पुकार मुदित, प्रातः की पावन वेला में--

लखकर रवि-रंजित भाव उदित ॥१२६॥

उस भावभरे शुचि वन्दन में-- किरणों को कला विलस पाती, प्रमिल विचार मे नत्त कर

हद

जीवन के स्वर में मुस्क्याती ॥१२७।।

चढती किरणों के रजन में--

घन दे फहार शोभा भरता, शीतल फुलझड़ियो - सम होकर

नव इन्द्रधनुष की श्री रचता ॥१२८५॥

सुरधनु - कगार की राह पकड़

उसकी ही चपला जाती, परियो की प्रभा बिखेर समुद

कवि के कोमल स्वर में गाती ॥१२९॥

उस प्रभ्नु की आभा जीवन में --

श्गार बनी तरसाती-सी। भावों के शीतल अम्बर से--

नित प्रेम - सुधा बरसाती - सी ॥१३०॥

आक्रोइ वही जिसमे ऊपा--

आथशगार सजाकर चली गयी, प्रात: की छवि में चितवन की--

मृदु कला दिखाकर नयी - नयी ॥१३१॥

निसगगं-दर्शन सम--प्रात विहार २९६ जिसकी जश्ञोभा ले प्रात की--

कोमल किरण अब नाच रही, उसके ही जीवन से जीवन--

की सरस कहानी बॉाँच रही ॥१३२॥ प्रातः की छवि ज्यों कहती है

द्रम लता सुमन में हास लिये, खग - चंचरीक - गीतों में मम--

प्रिय छिपा प्रेम की प्यास लिये” ॥१३३॥।

उसकी ही सरस कहानी सर

सरसिज के स्वर में बाँच रहा, पाकर विकसित मुस्कान मधुर

कोमल लहरों में नाच रहा ॥१३४॥

हे, प्रिय | निसर्ग की आँखों मे--

उसकी छवि का मोहक पानी। उन तारों में क्षण झ्ाँकें हम

जिसमे होते कविवर, ध्यानी ॥१३४५॥ देखे, प्रभात की नव शोभा

निज शोभाधर को निरख रही। ऊपा जिसको पा चली गयी

प्राची उसको अब परख रही ॥१३६॥

रजनी से निकल प्रभाती नित

नृतन जीवन - रस॒ वणराती अम्वर के सुकलित परदे पर

रस की लीला फिर दिखलाती ॥१३७॥

हंस-कलाध्षर

क्ृतियों से क्लाति देख रजनी

आकर थकान सुलझा लेती। फिर विहेस प्रभाती नव रस दे

प्रिय. रूप - कला दिखला देती ॥१३८५।॥

सुख - दुख की चित्रित लीला में-- आनन्दभरा आधार वही। रस की आँखों से देखे तो सवमे अन्तर का प्यार वही ॥१३९॥

ताना रूपो की लीला में--

जीवन का पढ़ता पाठ वही। प्रिय दर्कक बनकर देख चलें

उसमें तो कटु रत कही नहीं ॥१४०॥

अपने अन्दर की कदुता ही

बाहर आरोपित हो जाती, मन के विरचित इच्छा - पथ से

जीवन में बूम उतर आती ॥१४१॥

लिसर-दर्शद सबं--प्राव विहार २०:

मत का वन्धन सुलझाकर, प्रिय !

पा लें हम पावन प्रेम -द्वार सवंत्र एक की झाँक्ी में--

निज जीवन का कर ले उबार” १४२॥

छवि - भाव प्रिया मे परख भूप--

प्रियतावश स्वयं निहाल हुआ, अतिचेतत मन को दश्ा देख

मन उसका भी यतचाल हुआ ॥१४३॥

३०२ हुस-कला छर

फिर संभल प्रिया का रुख विचार रथ पर उसको आसीन किया, तब बंठ पास घरमुख रथ कर प्रियता को भाव नवीन दिया १४४।॥

श्रमण-दिवस सर्ग

दिन एक शान्ति के भावों में--

प्रातः जगमग उपकरणों से-- सूरज चित्रण में निरत हुआ

रचना - विलसित निज किरणों से ॥१॥ मोहक मौसम का भाव जान

दमयन्ती के मन चाव हुआ, “हम आज मनाये भ्रमण - दिवस,

नुप से ऐसा प्रस्ताव हुआ॥र॥

सुनकर प्रस्ताव सरल मन का नूप ने प्रमुदित मन मान लिया निज राज्य - भूमि के भ्रमण - भाव -- पर उसका अति सम्मान किया। ३॥

अनुचर रक्षक भी सजग हुए

उत्सव की आज सफलता में। लग गये सभी भावों से भर--

अपनी - अपनी तत्परता में ॥४,॥

मंत्री परिचायक कला - कुशल पथ प्र परिचय का समय जान-- नप के समीप ही हो बेठा अवसर पाकर मन मोद मान ॥५॥

३43

हुस-कलाधर

आगे - आगे रथ चला सुधर

पीछे - पीछे सज्जित समाज छवि - भाव रूप दमयन्ती नल

दोनो रथ -गति में रहे राज ॥६।॥

राजा - रानी का अ्मण साथ उस नगरी के कोतृहल में क्षण - क्षण नयनों का विषय बला

प्रमुदिति मम नर - नारी दल में ।॥छा।

सुन्दरियाँ लगी झरोंखो से--

दम्पति - छवि - दर्भन - चाह लिये चपला समान झर - झमक लिये

उत्सुक छविरूप सिगार किये ॥5५)।

बेभव से विलसित नगर - बीच--

चलती श्री निज तरुणाई में। छवि निरख - परख अंकित करते

जन मानस की गहराई में ॥६॥

भरकर प्रसाद प्रासाद कलित

ढुभ जीवन के आवास बने। शुचि प्रेम - फलित उर - शान्ति - सहित

सब देख रहे सुख के सपने ॥१०॥

वेभव - निवास उस नगर - बीच-- मन में प्रसन्नता भर देता। सुख » भावों का रूपित विचरण-- दर्शक दल के मन हर लेता ॥११॥

भ्रमण-दिवस सर्ग

जगमग वेभव की वह घन - श्री

जीवन बन अन्तर तर करती, भावों के सरसिज विकसित कर

मन भूगों में मधु - स्वर भरती ॥१२॥

जन - जन में व्यापक धर्म - भाव

मन का संघर्ष मिटा देता। निज - निज पथ के आचरण - बीच

जीवन का संबल मिल जाता ॥१३।।

सब भाँति कला सुख - दर्शन में--

रखता कही अपना सानी। बरबस मन आकर्षित करता,

ऐसा था चढ़ा हुआ पानी ॥१७॥

सचमुच ही स्वर्ग उतर कर ज्यों

धरती पर आकर चरण दिया। उसमें भी सुखमय भाव प्रख

निषध देश का वरण किया ॥१५॥

मंत्री ने कला - रूपता को-+- साकार सामने दिखलाया। बेमव - विलास की रसता का--

शृंगार भाव भर समझाया ॥१६॥।

अवसर का व्यापक शान्ति - भाव

सुखमभय जीवन से खेल रहा। विलसित प्रसाद ज्यों मूत्तिमान

अन्तर से करता मेल रहा ॥१७॥

इ्ज४

34

ईडी

हस-कलाधर

राजा - रानी को तोष हुआ

निज राज - नगर के वेभव पर धोरे -धीरे रथ बढ़ा और

सब हुए मुदित भावों से भर ॥१८॥

फिर हुए नगर के बाहर सब

रथ मुड़ा जिधर सरिता - कगार जलता था सदा मसान जहाँ,

शव-दाह-क्रिया -- दुख-हृ्य धार ॥१९॥ मंत्री से पा संकेत सहज

रथ रुका और सब शान्‍्त हुए, जीवन की निर्मम गति लखकर

आइचये - चकित दुख-अ्रान्त हुए ॥२०,।

देखा वह द्श्य भयावह था

ध्‌ू-धू कर उठता धृम रहा, निर्मम तन - लीला - हरण - हेतु

ज्यों काल रूप धर घूम रहा ॥२१॥

विकराल ज्वाल जल रूप धार डट डपट - भरी हर - हर' करती, चुप चित्त पड़ शव पर चढ़कर तन मर्दन कर अम्बर धरती ॥२२॥

हिम्मत हरती करती निराश

नट नाश - क्रिया मे रत रहती, चटपट चढ़ पटक पछाड़ मृतक

हु- हु कर सबमें भय भरती ॥२३॥

अ्रमण-दिवस सम ३०७

गर्देत गह गलित गठन '*धघ्रू - घू--

करती, तन-रूप गटक जाती, लड़ती - सी चढ़ती लौ लुडर

रूपित हो तन विरूप करनती। २४।॥। कुछ नाम-निशानी बच सके

वह तमक - तमक तन हेर रही, विकराल गाल - लाली लहास

आशा पर पानी फेर रही॥२४५॥ चट-पेट, धस-भस, '्‌ - ध्‌' करती

साक्षात्‌ प्रेतिनी के स्वर में, चिढ़ कड़क कराली -सी लगती

लग लपट घूम नत्तित बल में ॥२६॥

बिखरे तन अंग गलित विज्वलित अति अस्त - व्यस्त - से पस्त आज, हो नग्त भरत भय -घुणा - रूप पट - हीन जल रहे विगत -लाज ।॥२७॥।

वह चिता चित्त पड़ धसक - भसक

सुनकर कटु कड़क कराली की, भयभीत दबी पद - तल कम्पित

जिह्ला निहारती काली की॥रदा।

श्रोणित - सिचित जिह्बा कराल

निर्भग निज काल - गाल भरती, निर्मम विनाशकारी नत्तन -

लखकर 'हर-हर, बम-बम' करती ॥२६॥

३०८

हंस-कलाधर

'सिक-सिक' कर चरबी सिसक रही

जल कॉप ट्टता अस्थि - जाल लोढिया मल मांस और मज्जा

सब घृणा-घटित बदतर, विहाल ! ॥३०.।

जलती आँखे रुधिराश्रु ढार जीवन की दशा निरख रोती। क्षण - भगुर जग - श्गार - साज अपना कही हीरा - मोती ! ॥३१॥ पाकर कटु कंदन कपाल - क्रिया - वह टूट खोपड़ी हाय - भरी-- खाकर सपूत से वश - चोट समझी ममता की भूल निरी॥३२॥ श्रम - भूलमरे जग - जीवन में-- कोई सहज साथी अपना। मदिरा पी मोह - वासना की-- सोकर सब देख रहे सपना ॥३३॥

दमयन्ती भय - भ्रम - घृणाभरी वह देख हृम्य कटु कांप उठो,

“गत भोग - दृश्य क्षण सोच भभर

भय की वह कटुता नाप उठी ॥३४॥

वेधी ही छाया नृप - उर में--

छा गयी सोच वेभव विलास, परिणाम परख नव्वरता का,

क्षणभंग्र जीवन से निराश !॥३५॥

अ्मण-दिवस सर्ग

मत्री ने समझाया, “राजन !

जीवन का यह परिणाम - भाव, अपने वेभव में भोग और

फिर पलट रूप धरता कुदाँव | ॥२६।॥

हर नगर - विलास समय पाकर धीरे-धीरे धरता मसान। परिणाम यही सबका होता तन-यौवन-सुख--क्षण-अ्रान्ति-भान ! ॥३३॥।

महलो का पला हआ योवन

परिर्वात्तत हो घरता मसान। जीवन का हास - विनोद स्वयं

दुख-रूप पतक्रडढ गिरता उतान ॥३५॥

अ्रम - भोग समय पर पलट रूप

धर-पकड़ यहाँ तक ले आते। क्षणभंगुर तन - मादकता मे--

जन भूल वहाँ समझ पाते ॥३९॥

मांसल मादकता की शोमा--

नीरस रह जाती अस्थि - जाल आकर फिर यही मसान - घाट

असहाय पहुँचती अग्नि - गाल ॥४०॥

मुस्कानभरी चल चितवन तंज, मुख - मंडल श्री - विहीत होकर, पड़ चिता चित्त अम्बर लखते जल-जल हा ! अपनी छवि खोकर ॥४१॥

३०६

३१०

हंस-कलाधर

अपने वेभव में भूला-सा

स्वगिक सुख नगर - बीच पलता, वह जरा - जीरणंता पर सवार--

होकर मसान - गति से मिलता ॥४२॥ जीवन रंजित सुख सपनों से--

महलों के बीच झलक भरता। मोहक वह चल अद्ृष्ट के पथ

विचलित मसान पर गलता ॥४३॥।

सेवा का सुन्दर साज सहज

जिसका मोहक आधार बना, वह काया आकर जल जाती

क्षणभंगमुर भूल सुखद सपना ॥४४॥।

जो दृश्यमान तन - मदन - गठन,

सब झलकभरे मांसल विकार। जिनपर मन न्‍यौछावर होता

हा ! अन्त काल के सब शिकार ! ॥४४५॥

लो की लीला तज प्रेम - पाश

लौ की ज्वाला में मिल जाती, असहाय विलखती - सी असमय

जल जाती धक - घक कर छाती ॥४६।।

है, नरवर ! काल-मसान - भाव-- हल करने को कठु प्र॒इन बना, जो भी जीवन में हल कर दे उसका ही तो सब कुछ अपना ॥४७॥।

अ्रमण-दिवस सर्ग

जीवन की कठिन पहेली यह

गुरु - ज्ञान - कृपा से बूझ सके, पाये वह भाव अमरता का

फिर काल बसे वश में उसके ॥४८ |

जी ही

अन्तर - भावों में प्रश्न-चिन्ह--

राजा - रानी के जाग उठा। भोगासुराग - आवृत मन में--

उत्तर - हित सजग विराग उठा ॥४६॥

दमयन्ती की सम्मति लेकर

विचलित मन त्याग मसान घो र-- राजा ने फिर सकेत किया

रथ मुड़ा और फिर अन्य ओर ॥५०॥

फिर स्वस्थ भाव से आगे चल

कुछ दृश्य और ही देख सके, भोले पशु - पक्षी विचर रहे

साथी जंसे जीवन -रस के ॥५१॥

हरियाली अपने भावों में--

जीवन की व्यथा भुला देती। सुमनों की रंग- विरगी छंवि

अन्तर का राग मिला लेती ॥५२॥

संगीत गान देवी लेकर

मन-मुदित विहग तरु - डाली पर-- राजा के स्वागत - गान - हेतु

गा रहे भाव प्रिय खाली भर ॥५३॥

३११

हँस-कलाधर

बक

स्वागत में पर फ्रकार शुकी शुक - साथ काटती थी कावा। सन्देश - हेतु दल में उडान-- घुस - पैठ - सहित भरते लावा ॥५४॥

सुमनो से भरी लतायें भी--

पथ पर निज भाव दिखा देती, भावों - भर सस्मित प्रेम - सहित

रह - रह अज्चल फहरा लेतीं ॥५५॥

बूलबुल की लुका - छिपी देखी

निश्चित परेवा का विहार, प्यारी - सेंग भूत - भविष्य भू

मदमतत शिखी का मधुर प्यार ॥५६। अम्बर अनन्त की रचना में--

बहुरंगी जग - शूंगार पला। किस प्रेन - लोक के मिलन - हेतु

जग - जीव सीखते प्यार - कला ? ५७॥! श्ृंगार सुपप धर सज - धज कर

प्रिय लोक दिव्य तक ले जाता, पर चल जन बीच भूल जाता

बन भोग - वासना का कर्त्ता ॥४८॥

वह द्वार पाता भूला-सा

विस्तार क्षण का कर पाता, अ्रमवश निज क्षणिक समपंण पर

अन्तर - सुख बाहर जा घरता ॥५९॥

अ्रमण-दिवस सर्ग

रस का जो परम स्रोत भीतर उसकी नित धार अमरता की। उस अपने को नर भूल गया इच्छा से भर नच्बरता की ॥६०।।

भीतर जिसको रस - धार मिली

बाहर भी मिलती मधुर छठा। जीवन वसन्‍्त से भर जाता

उमडी रहती मधुमयी घटा ॥६१॥

यों भावों की गति में रथ - गति

निज गालीनता दिखाती थी। उत्साह - वीरता भरी हुई

छविमयी कला में भाती थी ॥६२॥

तव तक आगे वह दृश्य निला

थी भीड लगी, चौकी क्षण भर राजा का शुभ आगमन जान

जन नमन - सहित आश्या-विद्वल ॥६३॥। वह कला - प्रदर्शन जादू का,

अति भावपूर्ण जन - मेल रहा। रथ रुका, समाज - सहित उत्सुक

आदचयेपूर्ण चल खेल रहा ॥६४॥ सिर पर हाथी का भार लिये

निर्भभता से नट नाच रहा। जसे कन्दुक - क्रीड़ा से भर

प्रमुदित - मन सहज कुलाँच रहा ॥६१॥

हँस-कलाधर

क्षण में देखा, गज के ऊपर

भहरा कर गिरते बिटप रहे। हाथी की सुन चिस्घाड़ भयद

जन भभर चकित भय-भाव लहे ॥६६॥॥

क्षण बाद देखा हाथी वह

सब विटप जहाँ के तहाँ खड़े दर्शक जन विस्मित भावभरे

कोतृहलवश फिर स्वस्थ अड्डे ॥|६७॥

तब फिर नट पट खीचा बढ़कर

सम्मुख यक सिह दहाड़ रहा, माया -मुग पंजे से दबोच

धरती पर पटक पछाड़ रहा ॥६८५॥।

दर्शक - दल गन - गन काँप उठा,

नाहर से स्वयं भिड़ा नटवर, पकड़ी गर्दन, धड़ उड़ा दिया,

वह सिंह उड़ा मुर्गा बन कर ॥६९॥

वह गिरा हुआ सिर नाहर का--

मृग भाव - सहित था चाट रहा। जादू का इरेवान दोड़ आया

मृग के साहस पर डाँट रहा ॥७०॥।

फिर कही दृश्य का पता नहीं सब ताक रहे भोचक्‍का बन। ताली की ध्वनि दे विस्मित - सा

जन-वर्ग हुआ फिर भाव - प्रमन ॥७१॥

अमण-दिवस सर्गं ३१

तब तक देखा युग पहलवान

भिड़ गये जोश से खंभ ढोंक, कर मल्लयुद्ध के दाँव - काट

उत्साहभरे बन से अरोछफह़ ॥७२॥

भर बाहु एक ने बगली दी

कर काट दूसरा निवृक चला। फिर झपट उठाया पट ऊपर

कंचा भर मारा अपर तला ॥७३॥

फिर झपट एक ने बेठाया

बल देकर घूमा अपर रूम, लख बल-प्रयोग जब दवा पुनः

मारा चट कालाजंग घृम ॥७४॥ ध्वनि वाह - वाह की गूंज उठी,

बह कला -प्रद्शनत जादू का, पर सम्मुख क्षण भर सत्य लगा

अर

भर भाव वीरता के रस का ॥3४॥

तब तक देखा अतिरूपवती--

बाला लेकर जयमाबा कर वर की तलाश में खडी हुई

सस्मित मुख - मुद्रा किये सुघर ॥७६॥ नट ने संकेत किया सुदकर

“जो हो प्रत्याशी बढ़ इधर,

बाला स्वागत में खड़ी यहाँ खोयें कही सुन्दर अवसर ॥७७॥

ल्‍च्िक कि

हंस-कलाधर

मनचले युवक अविवाहित कुछ

पहुँचे विनोदबश पंक्ति बॉध। मुखमुद्रा में ऐंठन बनाव--

कर, खूपवती पर दृष्टि साथ ॥७५॥।

बाला करती थी दष्टिपात

रह-रह कर अलग-अलग उनपर क्षणभर मोहित उन मृढ़ों की--

लख दशा चली परिहास - लहर ७९॥

तब तक जादू का बूढ़ा वर खड़ा हुआ सम्मुख उसके।

लकुटी के निपट सहारे वह सनकुट थे केश सभी सिर के ॥८०॥

बाला ने उसकी दाढ़ी घर

मारा थप्पड़ सिर दिया हिला। झकझोर दिया, लखक्र उसको--

निलेज्ज व्यथा की काम - बला ॥८१॥

प्रयाशी जन भी भभर उठे

स्वागत ऐसा ही हो कही। वारी - बारी खिसके थल से,

तव तक देखा वह हृदय नहीं ॥८२॥

क्षण भाव हंसी का उमड़ चला,

दर्शक जन भरे विनोद - भाव ताली ध्वनिभरी प्रशंसा को,

आगे फिर क्‍या, यह लिये चाव ॥८३॥।

अत्रमण-दिवस सर्ग

नव तक देखा झन -झन करता

स्वणिम मुद्रा का ढेर लगा। दशक लोभी जो खड़े वहाँ

उनमें लालच का भाब जगा ॥5४।।

मुद्रा - समीप वह बाला फिर

सस्मित मुख आकर प्रकट खड़ी यद्यपि वह जादू की माया,

फिर भी नयनो में चमक पड़ी ॥८५॥।

बोला नट, “कनक कामिनी अब दोनो जो चाहें ग्रहण करे, इच्छानुसार दोनो का ही-- अवसर विचार कर वरण करे” ॥5८६॥

जादू का बूढा फिर आया

तब प्रेम -याचना करने को, निज काम - वासना - तृप्ति - हेतु

ओऔ धन से झोली भरने को |।८७॥

थप्पड का स्वागत फिर पाया

मुख से निकली तक नही बात, फिर गिरा भूमि पर हो उतान

ऊपर से खाकर कई लात ॥८८५॥

नट बोला, “जो सज्जन चाहें

रस ले कनक - कामिनी से निर्धता अपनी द्र॒ करें

घर भर ले नयी भामिनी से ॥॥८६॥

३१७

हस-कलाधर

पर स्वागत का वह ढंग देख

कामी लोभी सब मोन रहे। पानी खोकर उस सभा - बीच

अपने मन की फिर कोन कहे ? ०॥

क्षण में अदहृदरय वह कनक - राशि बाला का भी कुछ पता नही। पर रोता और सिसकता-सा कुछ क्षण था बूढ़ा खड़ा वही ॥६१॥

बोला जादगर, “यही दशा

धर विविध रूप सबकी होती। जीवन में कनक - कामिनी से--

बस, दंडमात्र की गति मिलती ॥६९२॥

तब तक देखा खड्जर लेकर

वह भीम भयानक पुरुष अड़ा, लम्बी दाढ़ी अति नेत्र लाल

कटु रूप दानवी लिये खड़ा ॥६३॥

ललका रभरी मुद्रा ऐसी जसे हिसा हो रूप लिये। लप - लघ कटार थी चमक रही

रसना ज्यों काल विरूप किये ॥६४।॥।

जिसके सम्मुख थी काँप रही

वह सरल भावसी गोमाता। थी बार-बार रभण करती

जिससे करुणा का स्वर आता ॥€६५॥

त्रमण-दित्रस संग

उस रोद्र रूप से भय खाकर

वह॒ दया - पात्रसी सिमट रही रक्षा के हेतु रमाती थी

अन्तर - गति पीड़ित निपट रही ॥६६॥ “हाँ - हाँ, “'एसा हो दृश्य नहीं”

कुछ लोगों से यह ध्वनि निकली | कुछ बोले, -- “यदि ऐसा होगा

तो बात होगी यहाँ भली” ॥६७॥

लाठी सँभाल कुछ सजग हुए “मारो दानव को धर पछाड़ भू पर पछाड़ सीने पर चढ़ चट उसकी लो दाढ़ी उखाड़” ॥€५"

ललकार चतुदिक से आयी “मारो - मारो, यह क्‍या आया ?” पर वह तो जादू की लीला, क्षण में अहृर्य वह कटु माया ॥६६॥

बोला जादगर हाथ जोड़

“धर्मी दाता, यह जादू भर। करुणा की मात्र परीक्षा थी,

पाया सबसे करुणा का स्वर ॥॥१००॥

जिसके अन्तर के भावों में--

करुणा बसती पहले पद पर बहु रस - विलासिनी माया में--

सुन पाता वह जीवन का स्वर” ॥१०१॥

११६

३२०

हस-कलाधर

क्षण में सम्मुख फिर देखा तो

पिहासन स्वणिम चमक उठा। मणि-खचित कला - पूरित जगमग

श्ंगार - साज में दमक उठा ॥१५१०२॥

अपने वेभव में वह विशेष

गोभित अति कला - प्रदर्शन था | आँखों में विस्मय नाच उठा

जिसका अद्भुत आकर्षण था॥१०३॥ क्षण में देखा, आसीन कोन ?

राजा नल दक्षिण भाग भले। बहू वाम - भाग में दमयन्ती

छवि दर्शनीय निज तन की ले ॥|१०४।

क्षण युगल चकित वह निरख हृश्य

राजा - रानी रथ पर सवार प्रमुदित मन आत्म - विभोर सभी

अद्भुत जाद की छवि निहार ॥१०५॥ परिचारक चेँवर डुलाते थे,

जय - जय ध्वनि नभ मे गूँज रही अम्बर से हुआ सुमन - वर्षण

पुलकित क्षण भर लख हुई मही १०६॥ बोला जादूगर हाथ जोड़

“छबि-भाव निरख लें, कीत्तिमान ! भगवान करें सिंहासन पर

यह जोड़ी रहे विराजमान” ॥१०७॥।

अ्मण-दिवस सर्ग

क्षण - बाद लुप्त वह दृश्य हुआ

भग कर ज्यों भावों - बीच गया नयनों के कोने - कोने में--

विस्मय की रेखा खीच गया ॥१०८५।॥। पर दम्पति को रथ पर सवार

जन - वर्ग आँख भर देख सका। नट - दर्शित युगल रूप सम्मुख,

सरभाव सहज प्रसरित जिनका ॥१०६॥

राजा ने दे बहु पुरस्कार, जादगर को सन्‍्तुष्ट किया।

आशीवंचन जनता को दे, सबके भावों को पुष्ट किया ॥११०॥

रथ चलने को आदेश दिया,

सबसे पाकर शुभ भाव - नमन | मंत्री को उचित मत्रणा से--

आगे रथ का फिर हुआ गमन ॥१११॥

फिर राजमार्ग से रथ चलकर

नेसगिक वन के बीच चला, खग - मुग कुयुमित वीरुध लगार--

से गति में भर कर दिव्य कला ॥११२॥

देखा, डाली पर मोर उचक

भावित मयूरिनी के स्वर से, नुप - दम्पति में छवि- रूप सहज

नयनों भर निरख सिमट पर से ११३

डर

हँस-कलाधर

वह 'पिऊ - पिऊ॑ कर बोल उठा क्षणभर सबमे आकर्षण भर। निज प्रिया - साथ सद्भाव लिये फिर निरख सका छवि दिव्य सुधघर ॥११४॥

स्वर की रसमयता में विलसित पक्षी डालों पर विचर रहे। वन - श्री का वह संकेत कहाँ ? वह कौन विह॒ग-स्बर बूझ कहे ? ॥११५॥ लख शुभागमन, सन्देश समुद शुक बोली में निज जता रहे। नप - दर्शन से कोई बाकी-- रह सके न, सबको भाव लहे॥११६॥।

कलरव कर खग झकझोर सुमन

तरू से नृप पर बरसा लेते। राजा -रानी की श्री निखार

तन - लहरित छवि सरसा देते ॥११७॥

पत्त हिल -डुल कर विजन डुला

शीतल बयार से सुख भरते। निज भाग्य धन्य दर्शन से पा

सबकी श्रम - व्यथा सहज हरते ॥११८५।

घोडों की सबल हीस सुनकर

गवयों का विस्मित झुण्ड जगा। कायरता कर्म - हीनतावश

साहस तज विचलित भड़क भगा ॥११६॥

अमण-दिवस सर्ग

लोवा - दल कावा काट भगा

माँदों में दबके कुटिल स्थार। मृंग दूर चोकड़ी साध भरे

मुड़ अकन अश्वगति बार-बार ॥१२०॥

यों प्रकृति - छटठा के बीच विलस रथ जा पहुँचा वन - सघन भाग। वन की उस बीहड़ माया में-- भय विस्मय उर अति रहे जाग ॥१२१॥

वन - पशुओं के आवास समझ

तरु मौन खड़े समझाते - से पत्त भी काँप भयद गति में--

उर सजग भाव भर पाते - से ।१२२॥

हिसो - दर्शों खग कलरव भर

निज पंख फू्रा ज्यों कॉँप उठे। हिसके पज्चुओं के घात भयद

प्रति दिन की नाई भाँप उठे ॥१२३॥

टठेठे तर्वर॒ पर॒ गिद्ध भभर

कुछ निरख-परख फिर शान्‍्त हुए बायस भी रव कर “ाँव - काँव'

कट भावभरें उद्आान्त हुए ॥१२४॥

नाहर की भयद गर्जना सुन

जन भय - विकारवश कॉप उठे, भय - संवेदद की गुरु रेखा

कुछ समय चौक कर नाप उठे ॥१२५॥

३२३

इम-कलाधर

खज़ग दा मे अस्त्र - शस्त्र

एप ज्वय सजग निज साध वाण पर अकने सिल्न का दंग घात

देर लेने को झट हिस्न- प्राण ॥१२३६॥

हब नह दोखा वह सिह संबल

सम्मल से भयद गजेना भर, बोहर तने हद केधरी वह

सेट झपर भाव में हिसापर॥१२७॥

४प वेद परेजरा बदल तुख्त

गर साध कर पड़ा विषम बार। हतवाज परे परमित ध्वनि कर भर लो दहाड़ मानी ने हार॥१२५॥

फिर सजग भाव तप वार किया सिर लक्ष्य साध ले तीक्षण वाण। बल बड़ बार भह्ी सिर पर है नेब पछल गिरा तज जस्तु प्राण ॥२९॥

4४ पा गर तब सवार

अजा नल ले भाला कर में, पिर सजग है! कुछ अकन बात

जंगल के उस करकश स्वर में ॥१३०॥

कब सके जया आगे, विटप - ओट भर रोष सिहनी की दहाड़, चौके संब सजग हुए चटपट पहुँची तब तक डॉक झाड़। १३१॥